संजय कुमार सिंह
इस 8 अगस्त 2023 को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक अहम मील के पत्थर, ऐतिहासिक ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को 81 साल पुरे हो जायेंगे. 7 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने बम्बई में अपनी बैठक में एक क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित किया, जिसमें अंग्रेज़ शासकों से तुरंत भारत छोड़ने की मांग की गयी थी. कांग्रेस का यह मानना था कि अंग्रेज़ सरकार को भारत की जनता को विश्वास में लिए बिना किसी भी जंग में भारत को झोंकने का नैतिक और कानूनी अधिकार नहीं हैं.
अंग्रेज़ों से भारत तुरंत छोड़ने का यह प्रस्ताव कांग्रेस द्वारा एक ऐसे नाजुक समय में लाया गया था जब दूसरे विश्वयुद्ध के चलते जापानी सेनाएं भारत के पूर्वी तट तक पहुंच चुकी थी और कांग्रेस ने अंग्रेज़ शासकों द्वारा सुझाई ‘क्रिप्स योजना’ को खारिज कर दिया था. ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के साथ-साथ कांग्रेस ने गांधी जी को इस आंदोलन का सर्वेसर्वा नियुक्त किया और देश के आम लोगों से आहवान किया कि वे हिंदू-मुसलमान का भेद त्याग कर सिर्फ हिंदुस्तानी के तौर पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए एक हो जाएं. अंग्रेज़ शासन से लोहा लेने के लिए स्वयं गांधीजी ने ‘करो या मरो’ ब्रह्म वाक्य सुझाया और सरकार एवं सत्ता से पूर्ण असहयोग करने का आहवान किया.
भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के साथ ही पुरे देश में क्रांति की एक लहर दौड़ गयी. अगले कुछ महीनों में देश के लगभग हर भाग में अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध आम लोगों ने जिस तरह लोहा लिया उससे 1857 के भारतीय जनता के पहले मुक्ति संग्राम की यादें ताजा हो गई. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने इस सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित किया कि भारत की आम जनता किसी भी कुर्बानी से पीछे नहीं हटती है. अंग्रेज़ शासकों ने दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. 9 अगस्त की सुबह से ही पूरा देश एक फौजी छावनी में बदल दिया गया. गांधीजी समेत कांग्रेस के बड़े नेताओं को तो गिरफ्तार किया ही गया, दूरदराज के इलाकों में भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भयानक यातनाएं दी गई.
सरकारी दमन और हिंसा का ऐसा तांडव देश के लोगों ने झेला जिसके उदहारण कम ही मिलते हैं. स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार पुलिस और सेना द्वारा सात सौ से भी ज्यादा जगह गोलाबारी की गई, जिसमें ग्यारह सौ से भी ज्यादा लोग शहीद हो गए. पुलिस और सेना ने आतंक मचाने के लिए बलात्कार और कोड़े लगाने का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया. भारत में किसी भी सरकार द्वारा इन कथकंड़ों का इस तरह का संयोजित प्रयोग 1857 के बाद शायद पहली बार ही किया गया था. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को ‘अगस्त क्रांति’ भी कहा जाता है. अंग्रेज़ सरकार के भयानक बर्बर और अमानवीय दमन के बावजूद देश के आम हिंदू मुसलमानों और अन्य धर्म के लोगों ने हौसला नहीं खोया और सरकार को मुंहतोड़ जवाब दिया.
यह आंदोलन ‘अगस्त क्रांति’ क्यों कहलाता है, इसका अंदाजा उन सरकारी आंकड़ों को जानकर लगाया जा सकता है जो जनता की इस आंदोलन में कार्यवाहियों का ब्योरा देते हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार 208 पुलिस थानों, 1275 सरकारी दफ्तरों, 382 रेलवे स्टेशनों और 945 डाकघरों को जनता द्वारा नष्ट कर दिया गया. जनता द्वारा हिंसा बेकाबू होने के पीछे मुख्य कारण यह था कि पुरे देश में कांग्रेसी नेतृत्व को जेलों में डाल दिया गया था और कांग्रेस संगठन को हर स्तर पर गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था. कांग्रेसी नेतृत्व के अभाव में अराजकता का होना बहुत गैर स्वाभाविक नहीं था. यह सच है कि नेतृत्व का एक बहुत छोटा हिस्सा गुप्त रूप से काम कर रहा था परंतु आमतौर पर इस आंदोलन का स्वरुप स्वतःस्फूर्त बना रहा.
यह जानकर किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दमनकारी अंग्रेज़ सरकार का इस आंदोलन के दरम्यान जिन तत्वों और संगठनों ने प्यादों के तौर पर काम किया वे हिंदू और इस्लामी राष्ट्र के झंडे उठाए हुए थे. ये सच है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी भारत छोड़ो आंदोलन से अलग रहने का निर्णय लिया था। इसके बारे में सबको जानकारी है, लेकिन आज के देशभक्तों के नेताओं ने किस तरह से न केवल इस आंदोलन से अलग रहने का फैसला किया था बल्कि इसको दबाने में गोरी सरकार की सीधी सहायता की थी, जिस बारे में बहुत काम जानकारी है.
मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्नाह ने कांग्रेसी घोषणा की प्रतिक्रिया में अंग्रेज सरकार को आश्वासन देते हुए कहा, ‘कांग्रेस की असहयोग की धमकी दरअसल श्री गांधी और उनकी हिंदू कांग्रेस सरकार अंग्रेज़ सरकार को ब्लैकमेल करने की है. सरकार को इन गीदड़भमकीयों में नहीं आना चाहिए.’ मुस्लिम लीग और उनके नेता अंग्रेजी सरकार के बर्बर दमन पर ने केवल पूर्णरूप से खामोश रहे बल्कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज़ सरकार का सहयोग करते रहे. मुस्लिम लीग इससे कुछ भिन्न करे इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी क्योंकि वह सरकार और कांग्रेस के बीच इस भिड़ंत के चलते अपना उल्लू सीध करना चाहती थी. उसे उम्मीद थी कि उसकी सेवाओं के चलते अंग्रेज़ शासक उसे पाकिस्तान का तोहफा जरूर दिला देंगे.
लेकिन सबसे शर्मनाक भूमिका हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रही जो भारत माता और हिंदू राष्ट्रवाद का बखान करते नहीं थकते थे. भारत छोड़ो आंदोलन पर अंग्रेजी शासकों के दमन का कहर बरपा था और देशभक्त लोग सरकारी संस्थाओं को छोड़कर बाहर आ रहे थे; इनमें बड़ी संख्या उन नौजवान छात्र-छात्राओं की थी, जो कांग्रेस के आहवान पर सरकारी शिक्षा संस्थानों को त्याग कर यानी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर बाहर आ गए थे. लेकिन यह हिंदू महासभा ही थी जिसने अंग्रेज़ सरकार के साथ खुले सहयोग की घोषणा की. हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा वीर सावरकर ने 1942 में कानपुर में अपनी इस नीति का खुलासा करते हुए कहा,
‘सरकारी प्रतिबंध के तहत जैसे ही कांग्रेस एक खुले संगठन के तौर पर राजनीतिक मैदान से हटा दी गयी है तो अब राष्ट्रीय कार्यवाहियों के संचालन के लिए केवल हिंदू महासभा ही मैदान में रह गयी है… हिंदू महासभा के मतानुसार व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज़ सरकार के साथ संवेदनपूर्ण सहयोग की नीति है, जिसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेज़ों के साथ सहयोग जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है.’
कांग्रेस का भारत छोड़ो आंदोलन दरअसल सरकार और मुस्लिम लीग के बीच देश के बंटवारे के लिए चल रही बातचीत को भी चेतावनी देना था. इस उद्देश्य से कांग्रेस ने सरकार और मुस्लिम लीग के साथ किसी भी तरह के सहयोग का बहिष्कार किया हुआ था. लेकिन इसी समय हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ किसी भी तरह के सहयोग का बहिष्कार किया हुआ था. लेकिन इसी समय हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ सरकारें चलाने का निर्णय लिया. ‘वीर’ सावरकर जो अंग्रेज़ सरकार की खिदमत में 5 माफीनामे लिखने के बाद दी गयी सजा का केवल एक तिहाई हिस्सा भोगने के बाद हिंदू महासभा के सर्वोच्च नेता थे, ने इस शर्मनाक रिश्ते के बारे में सफाई देते हुए 1942 में कहा –
‘व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि बुद्धिसम्मत समझौतों के जरिए आगे बढ़ना चाहिए. यहां सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली जुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली. बंगाल का उदहारण भी सबको पता है. उद्दंड लीगी जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के साथ संपर्क में आने के बाद काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गये. और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फजलुल हक को प्रधानमंत्रित्व और महासभा के काबिल या मान्य नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदाय के फायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली.’
यहां यह याद रखना जरुरी है कि बंगाल और सिंध के अलावा NWFP में भी हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की गठबंधन सरकार 1912 में सत्तासीन हुई.
अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रवैया 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जानना हो तो इसके दार्शनिक एम. एस. गोलवलकर के इस शर्मनाक वक्तव्य को पढ़ना काफी होगा –
‘1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था. इस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा. प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया.’
इस तरह स्वयं गोलवलकर, जिन्हें गुरूजी भी कहा जाता है, से हमें यह तो पता चल जाता है कि संघ ने आंदोलन के पक्ष में परोक्ष रूप से किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं की. लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी भी प्रकाशन या दस्तावेज या स्वयं गुरूजी के किसी तरह की हिस्सेदारी की थी. गुरूजी का यह कहना कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रोजमर्रा का काम ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है. यह रोजमर्रा का काम क्या था इसे समझना जरा भी मुश्किल नहीं है. यह काम था मुस्लिम लीग के कंधे से कंधा मिलाकर हिंदू और मुसलमान के बीच खाई को गहराते जाना.
अंग्रेज़ी राज के खिलाफ संघर्ष में जो भारतीय शहीद हुए उनके बारे में गुरूजी क्या राय रखते थे, वह इस वक्तव्य से बहुत स्पष्ट है – ‘हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे नहीं माना है क्योंकि अंततः वह अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी.’ शायद यही कारण है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक भी कार्यकर्ता अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते हुए शहीद नहीं हुआ.
भारत छोड़ो आंदोलन के 81 साल गुजरने के बाद भी कई महत्वपूर्ण सच्चाईयों से पर्दा उठना बाकी है. दमनकारी अंग्रेज़ शासक और उनके मुस्लिम लीगी प्यादों के बारे में तो सच्चाईयों जगजाहिर है लेकिन अगस्त क्रांति के वे गुनहगार जो अंग्रेज़ी सरकारी द्वारा चलाए गए दमन चक्र में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल थे, अभी भी कठघरे में खड़े नहीं किए जा सके हैं. सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि वे भारत पर राज कर रहे हैं. हिंदू राष्ट्रवादियों की इस भूमिका को जानना इसलिए भी जरुरी है ताकि आज उनके द्वारा एक प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ जो खिलवाड़ किया जा रहा है, उसके आने वाले गंभीर परिणामों को समझा जा सके.
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी – गिरगिटया सियासत के प्रणेता
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों की मदद की थी. RSS/BJP ने फ़िलहाल अपने अव्वल नंबर के देशभक्त ‘वीर’ सावरकर की स्तुति काफ़ी हद तक कम कर दी है. इसकी सब से बड़ी वजह यह है कि इस ‘वीर’ की असली कहानी दुनिया के सामने आ गई है. हिंदुत्व के इस ‘वीर’ ने अंग्रेज़ हुक्मरानों से एक बार नहीं बल्कि पांच बार (1911, 1913, 1914, 1918 और 1 920 में) रिहाई पाने के लिए माफ़ीनामे लिखे, जिन में अपने क्रांतिकारी इतिहास के लिए माफ़ी मांगी और आगे अंग्रेज़ी राज का वफ़ादार बने रहने का आश्वासन दिया. अंग्रेज़ हकूमत ने इस ‘वीर’ के माफ़ीनामों को स्वीकारते हुए 50 साल की क़ैद में से 37 साल की कटौती कर दी.
हिंदुत्व टोली के नए ‘देश-भक्त’ डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी (1901-1953) हैं. वे स्वतंत्रता-पूर्व हिन्दू-महासभा में सावरकर के बाद सब से अहम नेता थे और यह मानते थे कि हिन्दुस्तान केवल हिन्दुओं के लिए है. वे 1944 में हिन्दू-महासभा के मुखिया भी रहे. आज़ादी के बाद वे देश के पहले अंतरिम मंत्री मंडल, जिस के मुखिया जवाहरलाल नेहरू थे, में उद्योग और रसद मंत्री थे. उन्होंने अप्रैल 1950 में नेहरू से पाकिस्तान से किस तरह के सम्बन्ध हों, पर विरोध होने की वजह से इस्तीफ़ा दे दिया था. इस्तीफ़े के बाद उन्होंने आरएसएस का हाथ थाम लिया और उस के आदेश पर आरएसएस के एक राजनैतिक अंग, भारतीय जन संघ की स्थापना की और इस के पहले अध्यक्ष भी बने. उनकी मृत्यु 23 जून 1953 को श्रीनगर, जम्मू व कश्मीर के एक जेल में हुई, जहां उन्हें उस क्षेत्र में प्रवेश निषेध आदेश के बावजूद दाख़िल होने के लिए गिरफ़्तार करके रखा गया था.
2015 तक इन की मृत्यु के दिन को ‘धारा 370 समाप्त करो दिवस’ और ‘कश्मीर बचाओ दिवस’.के रूप में मनाया जाता था, लेकिन इस साल (2016 में) इन का दर्जा बढ़ा कर इन्हें देश का ‘एक निस्स्वार्थ देशभक्त’ (A Selfless Patriot of India) घोषित कर दिया गया. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कितने महान ‘निस्स्वार्थ देशभक्त’ थे, इसे परखने के लिए हमें निम्नलिखित सच्चाइयों पर ग़ौर करना होगा –
1. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के स्वतंत्रता-संग्राम में हिस्सेदारी का कोई प्रमाण नहीं हैं
अगर देश-भक्त होने का मतलब है कि किसी ने अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ लड़ाई में हिस्सा लिया हो, दमन सहा हो और किसी भी तरह का त्याग किया हो तो यह जानकर ताजुब्ब नहीं होना चाहिए कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आज़ादी की लड़ाई में कभी भी और किसी भी तरह से भाग नहीं लिया. ना ही तो स्वयं मुखर्जी की लेखनी में ना ही उस समय के सरकारी या ग़ैर-सरकारी दस्तावेज़ों और ना ही हिन्दुत्ववादी संगठनों के समकालीन अभिलेखागार में उन की आज़ादी की लड़ाई में हिस्सेदारी का कोई ज़िक्र मिलता है. इसके विपरीत आज़ादी की लड़ाई के विरुद्ध किए गए उन के अनगिनित कारनामों का वर्णन ज़रूर मिलता है. आज़ादी से पहले के दस्तावेज़ इस सच्चाई को बार-बार रेखांकित करते हैं कि कैसे इस ‘निस्स्वार्थ देशभक्त’ ने अंग्रेज़ों की सेवा की और सांझी आज़ादी की लड़ाई को धार्मिक आधार पर विभाजित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. वे जीवन भर सावरकर के मुरीद रहे जो मुस्लिम लीग की तरह हिन्दुओं और मुसलमानों को दो अलग राष्ट्र मानते थे.
2. भारत छोड़ो आंदोलन 1942 में मुखर्जी बंगाल की मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की मिली-जुली सरकार में उपमुख्यमंत्री थे
जब जुलाई 1942 में गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अगस्त 8 से अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया, तब मुखर्जी बंगाल की मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली सरकार, जिस में हिन्दू महासभा भी शामिल थी, के वित्त मंत्री थे और साथ में उप-मुख्य मंत्री भी. इस आंदोलन की घोषणा के साथ ही कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया, कांग्रेस के तमाम बड़े नेता जिन में गांधीजी, नेहरू, मौलाना आज़ाद, सरदार पटेल शामिल थे बन्दी बना लिए गए, पूरा देश एक जेल में बदल गया और हज़ारों लोग इस जुर्म में पुलिस और सेना की गोलिओं से भून दिए गए कि वे तिरंगे झंडे को लहराते हुए सार्वजनिक स्थानों से गुज़रना चाह रहे थे. हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों जैसे कि हिन्दू महासभा व आरएसएस और मुस्लिम राष्ट्रवादी संगठन, मुस्लिम लीग ने कांग्रेस द्वारा छेड़े गए भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध ही नहीं किया बल्कि इसको कुचलने के लिए अंग्रेज़ शासकों को हर प्रकार से मदद करने का फैसला लिया.
जब देश में किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि पर पाबंदी थी, उस समय हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग को एक साथ मिलकर बंगाल, सिंध और NWFP में साझा सरकारें चलाने की अनुमति दी गई. अंग्रेज़ों के दमनकारी विदेशी राज को बनाए रखने में सहायता हेतु इस शर्मनाक गठबंधन को महामंडित करते हुए हिन्दू महासभा के अध्यक्ष सावरकर ने 1942 के हिन्दू महासभा के कानपुर अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए बताया –
‘व्यावहारिक राजनीति में भी हिन्दू महासभा जानती है कि हमें बुद्धिसम्मत समझौतों के ज़रिये आगे बढ़ना चाहिए. हाल ही में सिंध की सच्चाई को देखें, यहां सिंध हिन्दू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली-जुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली. बंगाल का उदाहरण भी सबको पता है. उद्दंड लीगी (अर्थात् मुस्लिम लीग) जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद रख सकी, हिन्दू महासभा के साथ संपर्क में आने पर तर्क संगत समझौतों और सामाजिक सम्बन्धों के लिए तैयार हो गए और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फजलुल हक़ के प्रधानमंत्रित्व और महासभा के क़ाबिल और मान्य नेता श्यामाप्रसाद मुकर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदायों के फ़ायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली.’
3. बंगाल के उप-मुख्यमंत्री रहते हुए मुखर्जी ने अंग्रेज़ गवर्नर को चिट्ठी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए हर संभव मदद का आश्वासन दिया
खर्जी ने एक शर्मनाक काम करते हुए बंगाल केअंग्रेज़ गवर्नर को जुलाई 26, 1942 में एक सरकारी पत्र के द्वारा इस देश भर में चल रहे आंदोलन को शुरू होने से पहले ही कुचलने का आह्वान करते हुए लिखा –
‘अब मुझे उस स्थिति के बारे में बात करनी है जो कांग्रेस द्वारा छेड़े गए व्यापक आंदोलन के मद्देनज़र पैदा होगी. युद्ध (दूसरा विश्व युद्ध) के दिनों में जो भी आम लोगों की भावनाएं भड़काने की कोशिश करेगा, जिससे बड़े पैमाने पर दंगे या असुरक्षा फैले उसका हर हाल में सत्ताधारी सरकार द्वारा प्रतिरोध करना ही होगा.’
4. मुखर्जी ने भारत छोड़ो आंदोलन के कुचलने को सही ठहराया और अंग्रेज़ शासकों को देश का मुक्तिदाता बताया
मुखर्जी ने बंगाल की मुस्लिम लीग-हिन्दू महासभा साझी सरकार की ओर से बंगाल के अंग्रेज़ गवर्नर को लिखी चिट्ठी में अंग्रेज़ हकूमत को प्रांत का मुक्तिदाता बताते हुए उसे भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए कई क़दम भी सुझाए –
‘प्रश्न यह है कि बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन से कैसे निपटा जाए ? राज्य का शासन इस तरह चलाया जाए कि कोंग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आंदोलन बंगाल में क़दम जमाने में कामयाब न हो सके. हमारे लिए विशेषकर उत्तरदायी मंत्रियों के लिए जनता को यह समझाना संभव होना चाहिए कि आज़ादी, जिस के लिए कांग्रेस ने आंदोलन शुरू किया है, वह पहले से ही जन-प्रतिनिधियों को प्राप्त है. कुछ मामलों में आपातकालीन हालात की वजह से यह सीमित हो सकती है. भारतीयों को अंग्रेज़ों पर भरोसा करना चाहिए, ब्रिटेन के वास्ते नहीं, इसलिए नहीं कि इस से ब्रिटेन को कुछ फायदा होग, बल्कि प्रांत की आज़ादी और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए.’
5. हिन्दू महासभा के प्रमुख नेता के तौर पर मुखर्जी ने उस समय अंग्रेज़ी सेना के लिए देश भर में ‘भर्ती कैंप’ लगाए जब सुभाष चन्द्र बोस ‘आज़ाद हिंद फ़ौज़’ द्वारा देश को आज़ाद कराना चाहते थे
एक और शर्मनाक घटनाक्रम में ‘वीर’ सावरकर और मुखर्जी के नेतृत्व वाली हिन्दू महासभा ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेज़ सरकार को पूर्ण समर्थन देने का फ़ैसला किया. याद रहे कि कांग्रेस ने इस युद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध की संज्ञा दी थी और यही समय था जब नेताजी ‘आज़ाद हिंद फौज़’ खड़ी करके एक सैनिक अभियान द्वारा देश को अंग्रेज़ी चुंगल से मुक्त कराना चाहते थे. हिन्दू महासभा लुटेरे अंग्रेज़ शासकों की किस हद तक मदद करना चाहती थी इसका अंदाज़ा ‘वीर’ सावरकर के निम्नलिखित आदेश से लगाया जा सकता है जो उन्होंने देश के हिन्दुओं के लिए जारी किया था –
’जहां भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिन्दू समाज को भारत सरकार (अंग्रेज़ सरकार) के युद्ध सम्बन्धी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिन्दू हित के फायदे में हो. हिन्दुओं को बड़ी संखया में थल सेना, नौ सेना और वायु सेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वग़ैरा में प्रवेश करना चाहिए…
ग़ौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने के कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के सीधे निशाने पर आ गये हैं. इसलिए हम चाहें या ना चाहें, हमें युद्ध के क़हर से अपने परिवार और घर को बचाना है, और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताक़त पहुंचाकर ही किया जा सकता है. इसलिए हिन्दू महासभाओं को खास कर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीक़े से संभव हो, हिन्दुओं को अविलम्ब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए.’
6. मुखर्जी ने जम्मू और कश्मीर के लिए विशेष दर्जे की वकालत की थी
हिंदुत्व टोली के दावों के बरक्स मुखर्जी ने जम्मू और कश्मीर की विशेष हैसियत को स्वीकारा था. इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नेहरू और उनके बीच चिट्ठी-पत्री का एक लम्बा दौर चला था. उन्होंने नेहरू को 17 फ़रवरी 1953 के दिन लिखे ख़त में निम्नलिखित मांग की थी –
‘दोनों पक्ष इस पर सहमत हों कि राज्य की एकता बनी रहेगी और’स्वायत्तता का सिद्धांत जम्मू-लद्दाख़ और कश्मीर पर लागू होगा.’
देश की आजादी में इन लोगों की क्या भूमिका है गौर से पढ़ें, तब पता चलेगा अंग्रेजों का मुखबिर कौन-कौन था.
‘अभिव्यक्ति की आजादी बनाम राष्ट्रवाद’ की लड़ाई के झूठे युग्मक (बाइनरी) के तौर पर पेश करने की कोशिश करते दिखे हैं.संघ परिवार ने बड़ी चतुराई से अपने और अपने कृत्यों पर ‘राष्ट्रवादी’ होने का जो लेबल चिपका लिया है, उसे बिना सोचे-विचारे इन मीडिया संस्थानों ने स्वीकार कर लिया है. यह स्वीकृति दरअसल हमारे कई वरिष्ठ पत्रकारों के इतिहास के कम ज्ञान की गवाही देती है. आज़ादी के राष्ट्रीय संघर्ष के साथ हिंदुत्ववादी शक्तियों द्वारा किया गया धोखा, उनके सीने पर ऐतिहासिक शर्म की गठरी की तरह रहना चाहिए था.
लेकिन इतिहास को लेकर पत्रकारों की कूपमंडूकता हिंदुत्ववादी शक्तियों की ताक़त बन गयी है और वे इसका इस्तेमाल इस बोझ को उतार फेंकने के लिए कर रहे हैं. झूठे आत्मप्रचार को मिल रही स्वीकृति का इस्तेमाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कट्टर राष्ट्रवादी के तौर पर अपनी नयी झूठी मूर्ति गढ़ने के लिए कर रहा है. वह ख़ुद को एक ऐसे संगठन के तौर पर पेश कर रहा है, जिसके लिए राष्ट्र की चिंता सर्वोपरि है.भारत में राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय आजादी के लिए संघर्ष के बीच अटूट संबंध है. अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते इन स्वयंभू राष्ट्रवादियों के दावों की हक़ीक़त जांचने के लिए उपनिवेशवाद से आज़ादी की लड़ाई के दौर में आरएसएस की भूमिका को फिर से याद करना मुनासिब होगा.
दांडी मार्च में आरएसएस की भूमिका18 मार्च, 1999 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संघ के कार्यकताओं से भरी एक सभा में आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार को महान स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देते हुए उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया था. इस पर शम्सुल इस्लाम ने लिखा था कि यह चाल ‘आज़ादी से पहले आरएसएस की राजनीतिक लाइन को उपनिवेश-विरोधी संघर्ष की विरासत के तौर पर स्थापित करने की कोशिश थी जबकि वास्तविकता में आरएसएस कभी भी उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष का हिस्सा नहीं रहा था.
इसके विपरीत 1925 में अपने गठन के बाद से आरएसएस ने सिर्फ़ अंग्रेज़ी हुक़ूमूत के ख़िलाफ़ भारतीय जनता के महान उपनिवेश विरोधी संघर्ष में अड़चनें डालने का काम किया. हेडगेवार आरएएस की स्थापना से पहले कांग्रेस के सदस्य हुआ करते थे. ख़िलाफ़त आंदोलन (1919-24) में उनकी भूमिका के कारण उन्हें गिरफ़्तार किया गया और उन्हें एक साल क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी. आज़ादी की लड़ाई में यह उनकी आख़िरी भागीदारी थी.
रिहा होने के ठीक बाद, सावरकर के हिंदुत्व के विचार से प्रभावित होकर हेडगेवार ने सितंबर, 1925 में आरएसएस की स्थापना की. अपनी स्थापना के बाद ब्रिटिश शासन के पूरे दौर में यह संगठन न सिर्फ़ उपनिवेशी ताक़तों का आज्ञाकारी बना रहा, बल्कि इसने भारत की आज़ादी के वास्ते किए जाने वाले जन-संघर्षों का हर दौर में विरोध किया. आरएसएस द्वारा प्रकाशित की गई हेडगेवार की जीवनी के मुताबिक जब गांधी ने 1930 में अपना नमक सत्याग्रह शुरू किया.
तब उन्होंने (हेडगेवार ने) ‘हर जगह यह सूचना भेजी कि संघ इस सत्याग्रह में शामिल नहीं होगा. हालांकि, जो लोग व्यक्तिगत तौर पर इसमें शामिल होना चाहते हैं, उनके लिए ऐसा करने से कोई रोक नहीं है. इसका मतलब यह था कि संघ का कोई भी जिम्मेदार कार्यकर्ता इस सत्याग्रह में शामिल नहीं हो सकता था’. वैसे तो, संघ के कार्यकर्ताओं में इस ऐतिहासिक घटना में शामिल होने के लिए उत्साह की कमी नहीं थी, लेकिन हेडगेवार ने सक्रिय रूप से इस उत्साह पर पानी डालने का काम किया.
हेडगेवार के बाद संघ की बागडोर संभालने वाले एमएस गोलवलकर ने एक घटना का उल्लेख किया है, जो आरएसएस नेतृत्व की भूमिका के बारे में काफी कुछ बताता है –
‘1930-31 में एक आंदोलन हुआ था. उस समय कई लोग डॉक्टरजी (हेडगेवार) के पास गए थे. इस प्रतिनिधिमंडल ने डॉक्टरजी से अनुरोध किया था कि यह आंदोलन देश को आजादी दिलाने वाला है, इसलिए संघ को इसमें पीछे नहीं रहना चाहिए. उस समय एक भद्र व्यक्ति ने डॉक्टरजी से कहा था कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं. इस पर डॉक्टरजी का जवाब था: ज़रूर जाइए, मगर आपके परिवार का तब ख़्याल कौन रखेगा ?’
‘उस भद्र व्यक्ति ने जवाब दिया: ‘मैंने न सिर्फ़ दो वर्षों तक परिवार चलाने के लिए ज़रूरी संसाधन जुटा लिए हैं, बल्कि मैंने इतना पैसा भी जमा कर लिया है कि ज़रूरत पड़ने पर ज़ुर्माना भरा जा सके. इस पर डॉक्टरजी ने उस व्यक्ति से कहा: ‘अगर तुमने संसाधन जुटा लिए हैं तो आओ संघ के लिए दो वर्षों तक काम करो’. घर लौट कर आने पर वह भद्र व्यक्ति न तो जेल गया, न ही वह संघ के लिए काम करने के लिए ही आया.’
हालांकि, हेडगेवार ने व्यक्तिगत क्षमता में इस आंदोलन में भाग लिया और जेल गए. लेकिन जेल जाने का उनका मकसद स्वतंत्रता सेनानियों के मक़सद से बिल्कुल अलग था. आरएसएस द्वारा प्रकाशित एमएस गोलवलकर की जीवनी के मुताबिक वे ‘इस विश्वास के साथ जेल गए कि वे आज़ादी से मोहब्बत करने वाले, अपनी क़ुर्बानी देने को तैयार, प्रतिष्ठित लोगों के साथ रहते हुए, उनके साथ संघ के बारे में विचार-विमर्श करेंगे और उन्हें संघ के लिए काम करने के लिए तैयार करेंगे.’
हिंदू और मुस्लिम फ़िरक़ापरस्त समूहों की इस मंशा को भांप कर कि वे कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का इस्तेमाल अपने विध्वंसकारी मक़सदों के लिए करना चाहते हैं, अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने 1934 में एक प्रस्ताव पारित करके अपने सदस्यों के आरएसएस, हिंदू महासभा या मुस्लिम लीग की सदस्यता लेने पर रोक लगा दी.
दिसंबर, 1940 में जब महात्मा गांधी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ (व्यक्तिगत) सत्याग्रह चला रहे थे, तब जैसा कि गृह विभाग की तरफ़ से उपनिवेशवादी सरकार को भेजे गये एक नोट से पता चलता है, आरएसएस नेताओं ने गृह विभाग के सचिव से मुलाक़ात की थी और ‘सचिव महोदय से यह वादा किया था कि वे संघ के सदस्यों को ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में सिविल गार्ड के तौर भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित करेंगे.’
ग़ौरतलब है कि उपनिवेशी शासन ने सिविल गार्ड की स्थापना ‘देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक विशेष पहल’ के तौर पर की थी. भारत छोड़ो आंदोलन का आरएसएस द्वारा विरोध ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू होने के डेढ़ साल बाद, ब्रिटिश राज की बॉम्बे सरकार ने एक मेमो में बेहद संतुष्टि के साथ नोट किया कि ‘संघ ने पूरी ईमानदारी के साथ ख़ुद को क़ानून के दायरे में रखा है. ख़ासतौर पर अगस्त, 1942 में भड़की अशांति में यह शामिल नहीं हुआ है.’ लेकिन दांडी मार्च की ही तरह आरएसएस के कार्यकर्ता आंदोलन में शामिल होने से रोकने की अपने नेताओं की कोशिशों से काफ़ी हताश थे. ‘1942 में भी’ जैसा कि गोलवलकर ने खुद लिखा है –
‘कार्यकताओं के दिलों में आंदोलन के प्रति गहरा जज़्बा था… न सिर्फ़ बाहरी लोग, बल्कि हमारे कई स्वयंसेवकों ने भी ऐसी बातें शुरू कर दी थीं कि संघ निकम्मे लोगों का संगठन है, उनकी बातें किसी काम की नहीं हैं. वे काफ़ी हताश भी हो गए थे.’
लेकिन आरएसएस नेतृत्व के पास आज़ादी की लड़ाई में शामिल न होने की एक विचित्र वजह थी. जून, 1942 में- बंगाल में अंग्रेज़ों द्वारा निर्मित अकाल, जिसमें कम से कम 30 लाख लोग मारे गए, से कई महीने पहले- दिए गए एक अपने एक भाषण में गोलवलकर ने कहा था –
‘संघ समाज की वर्तमान बदहाली के लिए किसी को भी दोष नहीं देना चाहता. जब लोग दूसरों पर आरोप लगाना शुरू करते हैं तो इसका मतलब होता है कि कमज़ोरी मूल रूप से उनमें ही है. कमज़ोरों के साथ किए गए अन्याय के लिए ताक़तवर पर दोष मढ़ना बेकार है…संघ अपना क़ीमती वक्त दूसरों की आलोचना करने या उनकी बुराई करने में नष्ट नहीं करना चाहता. अगर हमें पता है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, तो इसके लिए बड़ी मछली को दोष देना पूरी तरह पागलपन है. प्रकृति का नियम, भले ही वह अच्छा हो या ख़राब, हमेशा सच होता है. इस नियम को अन्यायपूर्ण क़रार देने से नियम नहीं बदल जाता.’
यहां तक कि मार्च, 1947 में जब अंग्रेज़ों ने आख़िरकार एक साल पहले हुए नौसेनिक विद्रोह के बाद भारत छोड़कर जाने का फैसला कर लिया था, गोलवलकर ने आरएसएस के उन कार्यकर्ताओं की आलोचना जारी रखी, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में हिस्सा लिया था. आरएसएस के वार्षिक दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने एक घटना सुनाई –
‘एक बार एक सम्मानित वरिष्ठ भद्र व्यक्ति हमारी शाखा में आए. वे अपने साथ आरएसएस के स्वयंसेवकों के लिए एक नया संदेश लेकर आए थे. जब उन्हें शाखा के स्वयंसेवकों को संबोधित करने का मौक़ा दिया गया, तब उन्होंने काफ़ी प्रभावशाली लहजे में अपनी बात रखी, ‘अब केवल एक काम करें. ब्रिटिशों के गिरेबान को पकड़ें, उनकी लानत-मलामत करें और उन्हें बाहर फेंक दें. इसका जो भी परिणाम होगा, उससे हम बाद में निपट लेंगे.’ इतना कह कर वे सज्जन बैठ गए. इस विचारधारा के पीछे राज्य शक्ति के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा और नफ़रत पर टिकी प्रवृत्ति का हाथ है. आज की राजनीतिक संवेदनशीलता की बुराई यह है कि यह प्रतिक्रिया, क्रोध और मित्रता को भूलते हुए विजेताओं के विरोध पर आधारित है.’
आज़ादी के बाद का ‘देशद्रोह’ भारत की आज़ादी के उपलक्ष्य में आरएसएस के मुखपत्र ‘द ऑर्गेनाइजर’ में प्रकाशित संपादकीय में संघ ने भारत के तिरंगे झंडे का विरोध किया था, और यह घोषणा की थी कि ‘हिंदू इस झंडे को न कभी अपनाएंगे, न कभी इसका सम्मान करेंगे.’
बात को स्पष्ट करते हुए संपादकीय में कहा गया कि –
‘ये ‘तीन’ शब्द ही अपने आप में अनिष्टकारी है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित तौर पर ख़राब मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा और यह देश के लिए हानिकारक साबित होगा.’
आजादी के कुछ महीनों के बाद 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे ने-जो कि हिंदू महासभा और आरएसएस, दोनों का सदस्य था-महात्मा गांधी पर नज़दीक से गोलियां दागीं. एजी नूरानी ने उस समय गांधीजी के निजी सचिव प्यारेलाल नैय्यर के रिकॉर्ड से उद्धृत करते हुए लिखा है –
‘उस दुर्भाग्यपूर्ण शुक्रवार को कुछ जगहों पर आरएसएस के सदस्यों को पहले से ही ‘अच्छी ख़बर’ के लिए अपने रेडियो सेट चालू रखने की हिदायत दी गई थी.’
सरदार पटेल को एक युवक, ‘जिसे, उसके ख़ुद के बयान के मुताबिक, धोखा देकर आरएसएस में शामिल किया गया था, लेकिन जिसका बाद में मोहभंग हो गया’’, से मिली एक चिट्ठी के अनुसार –
‘इस समाचार के आने के बाद कई जगहों पर आरएसएस से जुड़े हलकों में मिठाइयां बांटी गई थीं.’
कुछ दिनों के बाद आरएसएस के नेताओं की गिरफ़्तारियां हुई थीं और संगठन को प्रतिबंधित कर दिया गया था. 4 फरवरी के एक सरकारी पत्राचार में सरकार ने यह स्पष्टीकरण दिया था –
‘देश में सक्रिय नफ़रत और हिंसा की शक्तियों को, जो देश की आज़ादी को ख़तरे में डालने का काम कर रही हैं, जड़ से उखाड़ने के लिए… भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने का फ़ैसला किया है. देश के कई हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई व्यक्ति हिंसा, आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्या आदि की घटनाओं में शामिल रहे हैं और उन्होंने अवैध हथियार तथा गोला-बारूद जमा कर रखा है.
‘वे ऐसे पर्चे बांटते पकड़े गए हैं, जिनमें लोगों को आतंकी तरीक़े से बंदूक आदि जमा करने को कहा जा रहा है…संघ की गतिविधियों से प्रभावित और प्रायोजित होनेवाले हिंसक पंथ ने कई लोगों को अपना शिकार बनाया है. उन्होंने गांधी जी, जिनका जीवन हमारे लिए अमूल्य था, को अपना सबसे नया शिकार बनाया है. इन परिस्थितियों में सरकार इस ज़िम्मेदारी से बंध गई है कि वह हिंसा को फिर से इतने ज़हरीले रूप में प्रकट होने से रोके. इस दिशा में पहले क़दम के तौर पर सरकार ने संघ को एक ग़ैरक़ानूनी संगठन घोषित करने का फ़ैसला किया है.’
सरदार पटेल, जिन पर आज आरएसएस अपना दावा करता है, ने गोलवलकर को सितंबर में आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने के कारणों को स्पष्ट करते हुए खत लिखा था. उन्होंने लिखा कि –
आरएसएस के भाषण ‘सांप्रदायिक उत्तेजना से भरे हुए होते हैं… देश को इस ज़हर का अंतिम नतीजा महात्मा गांधी की बेशक़ीमती ज़िंदगी की शहादत के तौर पर भुगतना पड़ा है. इस देश की सरकार और यहां के लोगों के मन में आरएसएस के प्रति रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं बची है. हक़ीक़त यह है कि उसका विरोध बढ़ता गया. जब आरएसएस के लोगों ने गांधी जी की हत्या पर ख़ुशी का इज़हार किया और मिठाइयां बाटीं, तो यह विरोध और तेज़ हो गया. इन परिस्थितियों में सरकार के पास आरएसएस पर कार्रवाई करने के अलावा और कोई चारा नहीं था.’
18 जुलाई, 1948 को लिखे एक और खत में पटेल ने हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कहा –
‘हमारी रिपोर्टों से यह बात पक्की होती है कि इन दोनों संस्थाओं (आरएसएस और हिंदू महासभा) ख़ासकर आरएसएस की गतिविधियों के नतीजे के तौर पर देश में एक ऐसे माहौल का निर्माण हुआ जिसमें इतना डरावना हादसा मुमकिन हो सका.’
’अदालत में गोडसे ने दावा किया कि उसने गांधीजी की हत्या से पहले आरएसएस छोड़ दिया था. यही दावा आरएसएस ने भी किया था. लेकिन इस दावे को सत्यापित नहीं किया जा सका, क्योंकि जैसा कि राजेंद्र प्रसाद ने पटेल को लिखी चिट्ठी में ध्यान दिलाया था, ‘आरएसएस अपनी कार्यवाहियों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखता… न ही इसमें सदस्यता का ही कोई रजिस्टर रखा जाता है.’ इन परिस्थितियों में इस बात का कोई सबूत नहीं मिल सका कि गांधी की हत्या के वक़्त गोडसे आरएसएस का सदस्य था.’
लेकिन नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे, जिसे गांधी की हत्या के लिए नाथूराम गोडसे के साथ ही सह-षड्यंत्रकारी के तौर पर गिरफ़्तार किया गया था और जिसे जेल की सज़ा हुई थी, ने जेल से छूटने के 30 वर्षों के बाद फ्रंटलाइन पत्रिका को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा था कि नाथूराम गोडसे ने कभी भी आरएसएस नहीं छोड़ा था और इस संबंध में उसने अदालत के सामने झूठ बोला था. उसने कहा –
‘हम सभी भाई आरएसएस में थे. नाथूराम, दत्तात्रेय, मैं और गोविंद. आप ये कह सकते हैं कि हमारी परवरिश घर पर न होकर आरएसएस में हुई. यह हमारे लिए परिवार की तरह था. नाथूराम ने अपने बयान में कहा है कि उसने आरएसएस छोड़ दिया था. उसने ऐसा इसलिए कहा था क्योंकि गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आरएसएस बड़े संकट में थे. लेकिन सच्चाई यही है कि उसने आरएसएस नहीं छोड़ा था.’
उसके परिवार के एक सदस्य द्वारा इकोनॉमिक टाइम्स को दिए गए एक हालिया इंटरव्यू से भी इस बात की पुष्टि होती है. फ्रंटलाइन को दिए गए इंटरव्यू में गोपाल गोडसे ने और आगे बढ़ते हुए नाथूराम गोडसे से पल्ला झाड़ लेने के लिए लालकृष्ण आडवाणी पर ‘कायरता’ का आरोप लगाया था. गोपाल गोडसे ने शिकायत की थी –
‘आप यह कह सकते हैं कि आरएसएस ने यह प्रस्ताव पारित नहीं किया था जिसमें कहा गया था कि ‘जाओ गांधी की हत्या कर दो’ लेकिन आप उसे बेदख़ल नहीं कर सकते.’
लेकिन गांधी की हत्या के वक़्त नाथूराम गोडसे के आरएसएस के सदस्य होने के बारे में गोपाल गोडसे के क़बूलनामे से काफ़ी पहले जुलाई, 1949 में सरकार ने साक्ष्यों के अभाव में आरएसएस पर लगाया गया प्रतिबंध हटा दिया था.
लेकिन ऐसा करने से पहले पटेल के कठोर दबाव में आरएसएस ने अपने लिए एक संविधान का निर्माण किया, जिसमें यह स्पष्ट तौर से लिखा गया था कि ‘आरएसएस पूरी तरह से सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रति समर्पित रहेगा’ और किसी तरह की राजनीति मे शामिल नहीं होगा. चार महीने बाद, जबकि संविधान की प्रारूप समिति ने संविधान लिखने की प्रक्रिया पूर्ण कर ली थी, आरएसएस ने अपने मुखपत्र द ऑर्गेनाइजर में 30 नवंबर, 1949 को छपे एक लेख में संविधान के एक अनुच्छेद को लेकर अपना विरोध प्रकट किया –
‘लेकिन हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनोखे संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं किया गया है…आज की तारीख में भी मनुस्मृति में लिखे गए क़ानून दुनियाभर को रोमांचित करते हैं और उनमें ख़ुद-ब-ख़ुद एक आज्ञाकारिता और सहमति का भाव जगाते हैं. लेकिन संविधान के पंडितों के लिए इसका कोई मोल नहीं है.’
यहां आरएसएस संविधान की तुलना में मनुस्मृति को श्रेष्ठ बताकर, शायद अपनी या कम से अपने नेताओं की प्रतिक्रियावादी मानसिकता को समझने का मौक़ा दे रहा था. वह उसी मनुस्मृति जो कि एक क़ानूनी संहिता है, को इतना महान दर्जा दे रहा था जिसके मुताबिक, ‘शूद्रों के लिए ब्राह्मणों की सेवा से बढ़कर कोई और दूसरा रोज़गार नहीं है; इसके अलावा वह चाहे जो काम कर ले, उसका उसे कोई फल नहीं मिलेगा’; यह वही शोषणपरक मनुस्मृति है, जो शूद्रों को धन कमाने से रोकती है- ‘वह भले सक्षम हो, लेकिन धन संग्रह करनेवाला शूद्र ब्राह्मणों को कष्ट पहुंचाता है.’
संविधान की जगह मनुस्मृति को लागू कराने का अभियान संविधान को आधिकारिक तौर पर स्वीकार कर लिए जाने के बावजूद अगले साल तक चलता रहा. ‘मनु हमारे दिलों पर राज करते हैं’ शीर्षक से लिखे गए संपादकीय में आरएसएस ने चुनौती के स्वर में लिखा –
‘डॉ. आंबेडकर ने हाल ही में बॉम्बे में कथित तौर पर भले ही यह कहा हो कि मनुस्मृति के दिन लद गए हैं, लेकिन इसके बावजूद तथ्य यही है कि आज भी हिंदुओं का दैनिक जीवन मनुस्मृति और दूसरी स्मृतियों में वर्णित सिद्धांतों और आदेशों के आधार पर ज़्यादा चलता है. यहां तक कि आधुनिक हिंदू भी किसी न किसी मामले में ख़ुद को स्मृतियों में वर्णित क़ानूनों से बंधा हुआ पाता है और उन्हें पूरी तरह से नकारने के मामले में ख़ुद को अशक्त महसूस करता है.’
लेकिन अब वे देशभक्त हैं इसलिए निष्कर्ष में मैं यह सवाल करना चाहूंगा कि आख़िर कौन सा शब्द उस पंथ के लिए सही बैठेगा जो उपनिवेशी सरकार के सामने घुटनों के बल पर बैठ गया और जिसने देश को आज़ाद कराने के लिए चलाए जा रहे जन आंदोलन का विरोध किया ? वह पंथ जिसने देश के राष्ट्रीय झंडे और संविधान का विरोध किया और जिसके लोगों ने देश की जनता द्वारा राष्ट्रपिता कहकर पुकारे जाने वाले महात्मा गांधी की हत्या के बाद ‘ख़ुशियां मनाईं और मिठाइयां बांटीं’ ? क्या उन्हें गद्दार का दर्जा दिया जाए ? नहीं. हमारे समय में जब राजनीतिक बहसों के लिए इतिहास एक बेमानी चीज़ हो गया है, वे ‘राष्ट्रवादी’ हैं और बाकी सब ‘देशद्रोही.’
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