ओबीसी के लिए आरक्षण लाने वाले वी. पी. सिंह का आज जन्मदिवस है. ऐसा नायक जो पैदा तो सवर्ण घर में हुआ लेकिन मरा शुद्रों अर्थात ओबीसी के लिए. और जिसे न तो सवर्णों ने अपनाया और न ही ओबीसी के लोगों ने अपनाया.
ओबीसी समाज को वी. पी. सिंह को जैसे याद करना था और जिस सम्मान के वह हकदार थे, वैसा उनको सम्मान और हक़ नही मिला. सिंह तो ठाकुर घर में जन्म लिए, ऊपर से राजा के घर में फिर उनको क्या फिक्र पड़ी थी कि ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करते ?
आरक्षण के कारण उनकी सत्ता भी चली गई और आज कोई ओबीसी का नेता ऐसा है जो समाज के सबसे वंचित तबके के लिए ऐसी लड़ाई लड़ सके, उसके लिए त्याग दे सके…? ये सवाल हैं जिसके जवाब आप सबको पता है.
नार्थ इंडिया में ओबीसी आरक्षण का फायदा जिसने सबसे अधिक उठाया उसने कभी वी. पी. सिंह को नेता स्वीकार्य नहीं किया. लेकिन जब उसे ओबीसी का नेता स्वीकार्य करने का समय आया तो उसने मंडल, लालू, मुलायम, शरद और नीतीश कुमार को अपना नेता माना. लेकिन यह सम्पूर्ण ओबीसी का मत नहीं है.
वी. पी. सिंह के कारण जिसने सरकारें बनाई, जिसने उनके राजनीति की फसल काटी तो आज उनसे यह सवाल क्यों नहीं होना चाहिए कि आपने वी. पी. सिंह की याद में क्या-क्या योजनाएं लेकर आये हैं ? कितने स्कूल खोले ? कितनों के लिए फेलोशिप की व्यवस्था की ? कितनों के लिए घर बनवाये ? कितनों के लिए पानी की व्यवस्था की ? कितनों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराई…?
जबकि दक्षिण के सुदूर राज्यों में जिसको ठीक से हिंदी नहीं आती अर्थात तमिलनाडु जिसके मुख्यमंत्री स्तालिन ने मंडल को जस्टिस का नायक नहीं माना है जबकि स्टालिन ने वी. पी सिंह को Guardian of Social Justice माना है, साथ ही उनकी मूर्ति को स्थापित करने का काम किया है.
जगजाहिर है कि NEET के लिए किस पार्टी ने लड़ाई लड़ी ? यह भी जगजाहिर है कि किस पार्टी ने EWS के ख़िलाफ़ केस लड़ा ? और यह भी जगजाहिर है कि इन सबसे नार्थ में किस जातियों को फायदा हुआ है लेकिन नार्थ की कुछ जातियों के लोग दिन रात आपको यह एहसास कराने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं कि हमारी जाति सामाजिक न्याय के लिए लड़ रही है. ये फर्क आपको समझ आना चाहिए कि किस राज्य के लोग न्याय के विचार को आगे ले जाने का काम कर रहे हैं.
अगर मान भी ले कि आपकी जाति सामाजिक न्याय के लिए लड़ रही है, तो क्या कारण है कि ओबीसी के 85 प्रतिशत आबादी की हालत बद से बदत्तर हो गई ? क्या कारण है कि कुछ जातियों के लोग आज भी चूहे खाने पर मजबूर हैं ? क्या कारण है कि आज भी कुछ लोग दवाओं के अभाव में मर जाते हैं ?
क्या कारण है कि कुछ जातियों के लोग अपने पुराने व्यवसाय में ही लगे हुए हैं और क्या कारण है कि आज भी ओबीसी की 85 प्रतिशत जातियों के लोग 5 किलो राशन के नाम पर वोट करने को मजबूर है और सवर्णों के साथ-साथ अपर ओबीसी के हिकारत का भी शिकार हैं ?
जरूरी नहीं है कि आप किस जाति, धर्म और परिस्थिति में जन्म लिए हैं, जरूरी यह है कि आप जिस समय शासन में हैं, उस समय आपने कैसा व्यवहार किया, कैसी नीतियां लेकर आए, ये जाति, धर्म और परिस्थिति से ज्यादा मायने रखता है.
आज जब अतिपिछड़ों के मुद्दे राष्ट्रीय पटल पर उभर कर आने लगे हैं और अति पिछड़े वर्गीकरण की डिमांड करने लगे तो कुछ खास जातियों के लोग यह कहने लगे कि इससे ओबीसी एकता खंडित हो जाएगी. पहले उन्हें यह तय करना होगा कि ओबीसी एकता बनाने की कोशिश ही कब हुई और कब बनी और क्या ओबीसी एकता की जिम्मेदारी अतिपिछड़ी जातियों ने ले रखी है ?
ऐसे तर्क ब्राह्मणवादी चासनी में डूबे हुए तर्क है, ठीक वैसे ही जब कोई वंचित तबके के लोग आरक्षण के लिए मांग करता हैं तो ब्राह्मणवादी सरंचना में यकीन रखने वाला तर्क देता है कि इससे हिन्दू एकता खंडित हो जाएगी. क्या हिन्दू एकता की जिम्मेदारी शोषितों ने ले रखी है ? दोनों की जिम्मेदारी किसी पर नहीं है, जिम्मेदारी न्याय की है, जिसे लागू ही होना चाहिए.
पिछले कुछ वर्षों से जब कोई सवर्ण अतिपिछड़ी जातियों के मुद्दे पर अपना समर्थन देता है या उनके लिए आवाज़ उठाता है तो खास जातियों के लोग उन्हें यह कहकर चुप करा देते हैं कि तुम तो सवर्ण हो. जबकि याद होना चाहिए कि इस देश में दलितों के लिए लड़ाई लड़ने वाले अम्बेडकर के पीछे भी कुछ ब्राम्हण खड़े थे और मनुस्मृति दहन करने में साथ में खड़े रहे. ओबीसी को आरक्षण देने वाले वी. पी. सिंह और अर्जुन सिंह भी सवर्ण थे.
अतिपिछड़ी जातियों के हीरो फुले दंपति भी हैं, पेरियार भी हैं, अम्बेडकर भी हैं, बिरसा मुंडा भी है, कर्पूरी ठाकुर भी हैं और वे लोग भी हो सकते हैं जो उनके मुद्दों पर समर्थन करेंगे, न्याय दिलाएंगे भले ही वह घनघोर सवर्णवादी सरंचना का हिस्सा ही क्यों न हो ? सुचिता का सवाल अतिपिछड़ों के कन्धों पर किस जाति के लोग डाल रहे हैं ? ये आपको जानना पड़ेगा अन्यथा सुचिता के चक्कर मे जिदगी भर मल्टीपल शोषण का शिकार रहेंगे.
अतिपिछड़ों को सार-सार गहन करना है, थोथे को छोड़ देना है. स्वतंत्रता पूर्व गांधी के लिए आजादी की लड़ाई पहली प्राथमिकता थी जबकि आम्बेडकर के लिए दूसरी प्राथमिकता थी, ठीक वैसे ही अतिपिछड़ों के लिए उनके प्रोफेशन के आत्मसम्मान, भूख मिटाने के लिए खाने का प्रबंध करना, रहने के लिए आवास व राजनैतिक प्रतिनिधित्व की लड़ाई पहली प्राथमिकता है जबकि कास्ट सेंसस दूसरी प्राथमिकता हो सकती है.
कास्ट सेन्सन पुराने मुद्दे हैं जिनके नाम पर कुछ लोग सक्सेज हो चुके हैं, अब दोबारा सक्सेज नहीं होने वाले हैं और न ही 2-4 जातियों का गिरोह बनाकर चुनाव जीता जा सकता है. अगर जीत पाते तो 2014 से लगातार चुनाव नहीं हार रहे होते.
मैं अपने मुद्दों को अपनी भाषा शैली में कहने और लिखने का आदी हूं इसलिए कुछ खास जाति के लोग नाराज़ होते हैं. मैं उन्हें विश्वास दिलाता हूं कि मैं जिंदगी में कभी भी उन्हें खुश नहीं करने वाला हूं क्योंकि मैं किसी को खुश करने के लिए पैदा नही हुआ हूं.
इन्हीं शब्दों के साथ पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ‘जो न घर का रहा और न घाट का’ को नमन करता हूं.
- पंकज चौरसिया
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