एक फैक्ट्री में मई दिवस के सवाल पर मैं फैक्ट्री मालिक से बात करने गया था. फैक्ट्री मालिक ने 1 मई को मजदूर दिवस का छुट्टी घोषित कर दिये तभी कुछ मजदूर वहां आ गये और फैक्ट्री मालिक के इस छुट्टी के खिलाफ सवाल उठा दिये.
फैक्ट्री मालिक गुस्से में आ गये और कहे – ‘होली-दशहरा में भले ही छुट्टी मत लो लेकिन 1 मई को छुट्टी रहेगा.’ मजदूरों ने कहा – ‘लेकिन हम तब भी काम पर आयेंगे.’ मालिक ने कहा – ‘छुट्टी है तो छुट्टी है, गेट ही नहीं खुलेगा.’ यह कहकर उसने दरबान को बुलाकर स्पष्ट आदेश दिया कि – ‘कल छुट्टी है और गेट का चाबी जाते समय दफ्तर में जमा कर जाना. गेट नहीं खोलना है.’
मूंह लटकाकर मजदूर मरे मन से वापस लौट गये और फैक्ट्री मालिक मेरा मूंह देखने लगे और कहे – ‘ये मजदूर है ! जिन लोगों ने इनके लिए अपनी जान दे दी, ये न तो उनको जानते हैं और न ही जानना चाहते हैं, कम से कम उनका सम्मान तो करो !’ यह घटना बदलते मजदूर के नैतिक पतन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है.
ये उदार फैक्ट्री मालिक राष्ट्रीय पूंजीपति थे, जो आंदोलन को नजदीक से जानते थे, कभी कभी मदद भी करते थे. लेकिन मजदूरों ने अपनी जिस वैचारिक दिवालियापन का परिचय दिया था वह आगे मजदूर आंदोलन की हासिल उपलब्धियों को छिजते जाने का ही प्रतीक था और अब 12 घंटे कार्य दिवस और श्रम कानूनों के खात्में के तौर पर सामने है.
मजदूर पत्रिका ‘मुक्ति संग्राम’ के ताजा अंक में लखविंदर अपने आलेख में लिखते हुए कहते हैं – पिछले दिनों ख़बर आई है कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन भारत में 12 घंटे कार्य दिवस करने के प्रस्तावों की समीक्षा करेगी. कहने को मज़दूरों की भलाई के लिए बनाई गई यह संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ का एक संस्थान है. संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व के साम्राज्यवादी पूंजीवादी देशों की सरकारों की एक संस्था है.
भारत में केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा काम के घंटों की बढ़ोतरी की कोशिशें नई नहीं हैं. क़ानून चाहे 8 घंटे कार्य दिवस का ही है, पर ज़मीनी स्तर पर ज़्यादातर कार्य स्थलों पर 12 घंटे कार्य दिवस तो दशकों से लागू है ! 12 घंटे ही नहीं, बल्कि 14-14 घंटे भी काम कराया जाता है. अब तो बस क़ानून ही बदलने की तैयारी चल रही है, ताकि बची-खुची कसर भी निकाल दी जाए.
इतना कुछ इतने बड़े स्तर पर हो चुका हो और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यह कहे कि भारत में काम के घंटों से संबंधित प्रस्ताव की समीक्षा की जाएगी, तो इसके इस ऐलान के झूठेपन के बारे में बख़ूबी समझा जा सकता है.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के आकाओं साम्राज्यवादियों और भारत के पूंजीपतियों की इच्छाओं के अनुसार ही भारत में मज़दूरों के श्रम अधिकारों पर डाका डाला जाता रहा है. क़ानूनी श्रम अधिकारों में बड़े स्तर पर कटौती कर दी गई है.
तीन दशक पहले कांग्रेस के शासन के दौरान भारत में नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत हुई थी, जिसके अंतर्गत मज़दूरों के श्रम अधिकारों के हनन के लिए क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी हथकंडे अपनाने की प्रक्रिया काफ़ी तेज़ कर दी गई थी. आज भारत और राज्य स्तर पर श्रम क़ानूनों में बदलाव की प्रक्रिया चल रही है. यह मौजूदा सरकारों से पहले की सरकारों के दौरान ही शुरू हो चुकी थी. भाजपा की भारत सरकार बनने के बाद यह प्रक्रिया पहले से भी तेज़ हो गई.
मोदी सरकार ने श्रम क़ानूनों के सरलीकरण के बहाने पुराने 29 श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके उनकी जगह कोड/संहिता के रूप में चार नए श्रम क़ानून बनाए हैं. इन नए क़ानूनों में अभी भारत सरकार और राज्य सरकारों के स्तर पर नियम बनाने की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है.
लेकिन विभिन्न राज्य सरकारें अपने स्तर पर पहले ही नए क़ानूनों की मज़दूर विरोधी बातों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से लागू कर रही हैं. बल्कि चार क़दम और आगे बढ़कर लागू कर रही हैं. इनमें काम के घंटों से संबंधित बदलाव भी शामिल हैं.
नए क़ानूनों के ज़रिए मोदी सरकार ने काम के घंटों से संबंधित नियमों में बड़े बदलाव किए हैं. वैसे तो, 8 घंटे से ज़्यादा काम को ओवरटाइम ही माना जाएगा, लेकिन ओवरटाइम काम के घंटों के बारे में मोदी सरकार ने क़ानून में बदलाव कर दिया है.
पहले के क़ानूनों में यह स्पष्ट लिखा था कि किसी भी हालत में ओवरटाइम के घंटे मिलाकर काम के घंटे 10 से ज़्यादा नहीं होंगे. आराम, भोजन वग़ैरह का ज़्यादा-से-ज़्यादा समय 2 घंटे जोड़ा जा सकता था. एक हफ़्ते में ओवरटाइम के घंटे मिलाकर कुल काम के घंटे 60 से ज़्यादा नहीं हो सकते हैं. तीन महीनों में ओवरटाइम के ज़्यादा-से-ज़्यादा घंटे 50 तय किए गए हैं.
पर नए क़ानून में ये बातें शामिल नहीं की गईं. रोज़ाना, साप्ताहिक या अन्य अवधि में ओवरटाइम के घंटों की सीमा तय करने, इसमें कभी भी बदलाव करने का अधिकार सरकारों को दे दिया गया है. इसके लिए आगे से क़ानून में बदलाव की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, सरकार सिर्फ़ नोटिफि़केशन जारी करके ही बदलाव कर सकेगी.
अप्रैल 2023 में तमिलनाडु की डीएमके सरकार कारख़ाना तमिलनाडु संशोधन बिल-2023 लाई थी. इसमें लचीले काम के घंटे की धारा शामिल की गई थी. इस बिल के तहत चाहे हफ़्ते में एक छुट्टी लागू रहेगी और बाक़ी 6 दिन के कुल घंटे 48 ही रहेंगे लेकिन एक दिन में काम के घंटे 12 तक हो सकते हैं.
इस तरह एक दिन में 12 घंटे कार्य दिवस को क़ानूनी बनाने की कोशिश की गई. लेकिन ज़ोरदार विरोध के बाद तमिलनाडु सरकार को यह बिल वापस लेना पड़ा. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह वापसी अस्थाई ही कही जानी चाहिए.
हर पार्टी की सरकार ऐसे ही मज़दूर विरोधी क़ानून लागू करना चाहती है. लेकिन उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की फ़ासीवादी भाजपा की सरकार तो कुछ ज़्यादा ही जल्दी में है.
मौजूदा समय में मज़दूरों को पूंजीपतियों द्वारा बहुत कम तनख़्वाह दी जाती है. पहले तो सरकारों द्वारा ही न्यूनतम वेतन ज़रूरत से बहुत कम तय की जाती है और यह भी ज़्यादातर मज़दूरों को नहीं मिलती, जिसके कारण उनका गुज़ारा संभव नहीं होता. अच्छा भोजन, इलाज, आवास, शिक्षा, यातायात जैसी मूलभूत सुविधाओं की भी पूर्ति नहीं हो पाती.
महंगाई लगातार तेज़ी से बढ़ रही है. सरकारों द्वारा ग़रीब लोगों को मिलने वाली मुफ़्त या सस्ती सुविधाएं लगातार छीनी जा रही हैं. सरकारें निजीकरण की नीति लागू करते हुए मेहनतकश अवाम को मुनाफ़े के भूखे भेड़ियों के सामने परोस रही हैं, ऐसी हालात में मज़दूरों को मजबूरन ज़्यादा-से-ज़्यादा ओवरटाइम करके गुज़ारा चलाना पड़ रहा है.
पूंजीपति मज़दूरों की मजबूरी का पूरा फ़ायदा उठा रहे हैं. लंबा कार्य दिवस, बेहद कठिन मेहनत के कारण मज़दूरों की सेहत और जि़ंदगी पर बुरे असर पड़ रहे हैं. मज़दूरों का यह बड़ा मुद्दा रहा है कि सरकारें महंगाई के मुताबिक़ आठ घंटे का न्यूनतम वेतन तय करें, ताकि ओवरटाइम करना ही ना पड़े.
आज के हिसाब से एक अकुशल मज़दूर को 8 घंटे के हिसाब से, साप्ताहिक, त्योहारों, बीमारियों और ग़ैर औपचारिक छुट्टियां देते हुए, मासिक तनख़्वाह कम-से-कम 26 हज़ार मिलनी चाहिए. मज़दूर आंदोलन की मांग की अनदेखी करते हुए क़ानून में बदलाव करके भारत सरकार और राज्य सरकारें मज़दूरों से नगण्य वेतन पर और ज़्यादा कठिन मेहनत करवाने और पूंजीपतियों के सामने दौलत के और बड़े अंबार लगाने का प्रबंध कर रही हैं.
इतिहास में मज़दूर वर्ग ने ‘आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन, आठ घंटे आराम’ के नारे के तहत ऐतिहासिक संघर्ष द्वारा आठ घंटे कार्य दिवस का क़ानूनी अधिकार प्राप्त किया था. भारत के मज़दूर वर्ग को भी यह अधिकार भारत और विश्व के मज़दूरों द्वारा लड़े गए संघर्षों की बदौलत ही मिला था.
पूंजीपति वर्ग ने भारत के मज़दूर वर्ग से यह अधिकार छीनने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया है. मोदी सरकार द्वारा कार्य के कुल घंटों से संबंधित श्रम क़ानूनों में किए गए संशोधन काम के घंटों से संबंधित मज़दूर वर्ग की ऐतिहासिक प्राप्ति पर हमला है.
यह हमला अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन जैसी साम्राज्यवादियों की कठपुतली संस्थाओं को नहीं रोकना है. यह जि़म्मेदारी मज़दूर वर्ग के अपने कंधों पर है. आठ घंटे कार्य दिवस का अधिकार जिस तरह मज़दूरों को पूंजीपतियों ने तोहफे़ में नहीं दिया था, बल्कि मज़दूर वर्ग ने ख़ुद संघर्ष करके यह अधिकार लिया था, आज भी वही रास्ता मज़दूर वर्ग को अपनाना होगा.
लखविंदर की बातें यहां खत्म हो जाती है. हमें यह समझना होगा कि अधिकार हासिल करने से पहले उन अधिकारों को जानना होगा और जानने के लिए अध्ययन प्राथमिक जरूरत है. क्रांतिकारी आंदोलन को आगे बढ़ा रही ताकतों को मजदूरों के बीच लगातार स्टडी सर्किल चलाने की जरूरत है. वरना, मजदूरों की लड़ाई में मजदूर ही विरोध में खड़े हो जाये.
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