मनीष आजाद
आज अगर हमारे बेरोजगार नौजवान सरकार से रोजगार मांगने के लिए सड़कों पर उतरते हैं तो उन्हें पुलिस के लाठी-डंडों का सामना करना पड़ता है और जेल जाना पड़ता है. लेकिन आज से महज सात दशक पहले ऐसे भी देश थे, जहां इसका ठीक उल्टा नियम था. यानी अगर आप काम यानी नौकरी नहीं करना चाहते तो आपको गिरफ्तार करके ‘लेबर कैम्प’ में श्रम करने भेज दिया जायेगा और यह माना जायेगा कि आप काम इसीलिए नहीं करना चाहते क्योंकि आप परजीवी वर्ग से हैं. इन देशों में 18 वर्ष से उपर के सभी स्त्री-पुरुषों के लिए रोजगार की गारंटी थी. इन देशों को समाजवादी देश कहते थे, जो उन देशों में जन-क्रांति के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये थे. एक समय विश्व की करीब 40 प्रतिशत जनता समाजवादी देशों की निवासी थी.
महामंदी के दौर में जब पूरी दुनिया मंदी में गोते लगा रही थी और पूंजीवादी देशों की अधिकांश जनता सड़कों पर आ चुकी थी, तो उस वक़्त समाजवादी सोवियत संघ में ‘0’ प्रतिशत बेरोजगारी थी. और यही नहीं सोवियत रूस की GDP ’10’ प्रतिशत की दर से आगे बढ़ रही थी. इन समाजवादी देशों से वेश्यावृत्ति, शराबखोरी, महंगाई, गरीबी, अशिक्षा, पूरी तरह मिट चुकी थी. इसे आप डाइसन कार्टर की बहुचर्चित किताब ‘पाप और विज्ञान’ में पढ़ सकते हैं. इस बात की तस्दीक रवीद्रनाथ टैगोर, रामवृक्ष बेनीपुरी जैसे भारतीय लेखकों ने सोवियत रूस की यात्रा करने के बाद की भी है.
लेकिन आज बहुत ही सुनियोजित तरीके से इन महान उपलब्धियों पर हमला किया जा रहा है. यहां एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा. 2011 में Frank Dikötter की एक किताब छप कर आयी- ‘Mao’s Great Famine.’ इसमें उन्होंने बताया कि ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ के दौरान चीन में भूख से 4 करोड़ लोग मारे गये थे. पुस्तक के कवर पर जो भूख से तड़पते बच्चे का फोटो था, (बाद के संस्करण में इस फोटो को हटा लिया गया) वह 1946 का था. जबकि चीनी क्रांति 1949 में हुई थी.
यह सवाल उठने पर कि आप चीन में 1959-60 के अकाल के बारे में लिख रहे हैं, और कवर पर फोटो 1946 का दे रहे हैं, लेखक का जवाब था कि मुझे उस दौरान का कोई फोटो नहीं मिला. किताब में एक जगह Dikötter ने माओ को उद्धृत करते हुए लिखा है कि ‘माओ ने कहा था कि आधी जनता को मार दो, ताकि शेष आधी आबादी को हम ठीक से खिला-पिला ले.’ एक चीनी स्कालर ने जब उन्हें चुनौती दी कि माओ ने ऐसा कहां लिखा है, तो उन्होंने हांगकांग की एक आर्काइव में रखे माओ के दस्तावेजों का हवाला दिया.
दस्तावेज की पड़ताल करने पर पता चला कि माओ ने किसी सन्दर्भ में यह कहा था कि ‘हमें आधी परियोजनाएं बंद कर देनी चाहिए ताकि हम शेष आधी परियोजनाओं को आसानी से फंड उपलब्ध करा सकें.’ डच स्कालर Dikötter ने नया-नया चीनी भाषा सीखी थी. लेकिन माओ व समाजवाद के प्रति अपने पूर्वाग्रह के कारण उन्होंने अर्थ का अनर्थ कर दिया. फिर भी उन्होंने माफ़ी नहीं मांगी और किताब में संशोधन भी नहीं किया. समाजवाद और माओ के बारे में जहर उगलने के कारण ही उन्हें ‘प्रतिष्ठित’ सम्युअल जानसन पुरस्कार भी मिल गया.
इस एक घटना से हम समझ सकते हैं कि समाजवाद की शानदार उपलब्धियों के प्रति कितना कूड़ा और कुत्सा प्रचार फैलाया गया है.
अगर हम समाजवादी देशों में शिक्षा की बात करें तो यहां भी उपलब्धियां बेमिशाल थी. लेकिन उन उपलब्धियों पर आने से पहले हम यह समझ लें कि पूंजीवादी देशों में जो शिक्षा दी जाती है, वह कैसी है ? डॉ. ‘हैम गिनोत’ अपनी मशहूर पुस्तक ‘टीचर ऐंड चाइल्ड’ में लिखते है- ‘मैं यातना कैम्प का भुक्तभोगी हूं. मेरी आंखों ने वह देखा है जो शायद किसी को नहीं देखना चाहिए. गैस चैम्बर का निर्माण प्रशिक्षित इंजीनियरों ने किया है. बच्चों को ज़हर शिक्षित डॉक्टरों द्वारा दिया गया. नवजात बच्चों को प्रशिक्षित नर्सों ने मारा. बच्चों, महिलाओं को हाईस्कूल व विश्वविद्यालय में पढ़े लोगों ने गोली मारी. ये कैसी शिक्षा है ?’
इसके बरक्स समाजवादी शिक्षा का एक उदाहरण देखिये. सोवियत शिक्षा शास्त्री सुखोम्लिंसकी ने अपनी मशहूर पुस्तक ‘बाल ह्रदय की गहराइयों’ में एक स्कूल का उदाहरण देते हैं. स्कूल में लंच के समय बच्चों से शिक्षक पूछता है कि आप जो यह रोटी खा रहे हैं, उसमें किन किन लोगों का योगदान है ? उत्तर का सिलसिला शुरू हो जाता है- ‘माता-पिता का, किसान का, जिसने खेती के उपकरण बनाये उसका, उस ट्रक ड्राईवर का, जिसने अनाज खेतों के बाहर पहुंचाया, जिन्होंने अनाज को ट्रक पर लादा, जिन्होंने ट्रक बनाया, जिन्होंने तेल कुंओं से पेट्रोल-डीजल निकाला आदि आदि…एक नन्हा बच्चा चुप था. जब शिक्षक उसकी ओर मुखातिब हुआ तो उसने धीमे से शरमाते हुए कहा- ‘जिसने आग की खोज की, उनका भी योगदान है इस रोटी में.’
एक और उदाहरण से इसे और अच्छी तरह समझा जा सकता है. समाजवादी चीन में एक फिल्म बनी थी- ‘Breaking with the old Ideas.’ इसमें दिखाया गया था कि एक स्कूल में परीक्षा चल रही है. प्रश्नपत्र में सवाल है कि टिड्डीदल से खेतों को कैसे बचाया जाता है ? परीक्षा के दौरान ही सचमुच टिड्डीदल का हमला हो जाता है. ज्यादातर छात्र अपनी परीक्षा छोड़कर खेतों को टिड्डीदल से बचाने निकल पड़ते हैं. लेकिन कुछ छात्र परीक्षा देने लगते हैं. अगले दिन पूरे स्कूल और गांव में यह बहस शुरू हो जाती है कि कौन पास हुआ और कौन फेल. जाहिर है वे बच्चे पास हुए जिन्होंने अपनी शिक्षा को व्यहार में उतारा और खेतों को सच में टिड्डीदल से बचाया.
इन दो उदाहरणों से आप समाजवादी समाज में शिक्षा की गुणवत्ता का अंदाजा लगा सकते हैं.
समाजवादी देशों की सफलता को आंकड़ों में परखना है तो एक ही आंकड़ा पर्याप्त होगा. क्रांति से पहले रूस में महिलाओं में साक्षरता दर 13 प्रतिशत थी और क्रांति के महज 10 सालों के अंदर शत-प्रतिशत साक्षरता हासिल कर ली गयी थी. क्यूबा में तो शिक्षा-ब्रिगेड बनाकर युद्ध स्तर पर देश को साक्षर बनाने का कार्यभार हाथ में लिया गया था और साक्षरता महज अक्षर-ज्ञान नहीं था बल्कि चेतना-संपन्न साक्षरता थी. और यहां यह बताना भी जरूरी है कि शिक्षा शुरू से विश्वविद्यालय तक निःशुल्क थी.
जैसा कि शुरू में बताया गया है कि समाजवादी देशों में रोजगार की गारंटी थी. लेकिन इस रोजगार की गुणवत्ता पूंजीवादी देशों में रोजगार से गुणात्मक तौर पर भिन्न थी. यहां आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम और आठ घंटे मनोरंजन के सिद्धांत को लागू किया जाता था. यहां मजदूर ‘वेज लेबर’ नहीं था, बल्कि खुदमुख्तार था. मजदूरों की कमेटियां ही यह तय करती थी कि फैक्ट्री कैसे चलेगी और क्या उत्पादन होगा. दरअसल देश की बागडोर ही मजदूरों के हाथ में थी.
इसी समाजवादी शिक्षा और समाजवादी उपलब्धियों की वजह से सोवियत संघ दुनिया को निगलने पर आमादा हिटलर के फासीवाद को शिकस्त देने में कामयाब हो सका था. हालांकि इसकी उसे काफी कीमत चुकानी पड़ी. इसे आप एक आंकडे से आसानी से समझ सकते हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध में कुल 5 करोड़ लोग मारे गये थे. इसमें 2.5 करोड़ लोग अकेले सोवियत रूस के मारे गये थे. उस वक़्त गांव के गांव पुरुष विहीन हो गये थे.
जाहिर है समाजवादी शिक्षा के कारण ही सोवियत नागरिकों में शहादत का वह ज़ज्बा पैदा हो पाया. भाड़े की सेना के बस की बात यह नहीं थी. आज हम जितनी समस्याओं से घिरे हुए हैं, उन सबका समाधान समाजवाद में मौजूद है. समाजवाद के केंद्र में मुनाफा नहीं वरन मनुष्य होता है.
आज जरूरत इस बात की है कि समाजवादी उपलब्धियों पर पड़ी धूल को झाड़कर उस शानदार अतीत को दुनिया के सामने लाया जाय. और फिर एक समाजवाद के नये संस्करण की तैयारी की जाय. इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है. रोज़ा लक्समबर्ग की चेतावनी 100 सालों बाद कहीं अधिक प्रासंगिक है- ‘समाजवाद या बर्बरता.’
- छात्र-छात्राओं और नौजवानों की आवाज ‘मशाल’ के मई-जून अंक में प्रकाशित लेख.
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‘Stalin Waiting For … The Truth’
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