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कश्मीर दुनिया की सबसे खूबसूरत जेल है

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कश्मीर दुनिया की सबसे खूबसूरत जेल है
कश्मीर दुनिया की सबसे खूबसूरत जेल है

क्या लोकतंत्र को नागरिक शहरों, कस्बों और गांवों पर दशकों तक दैनिक आधार पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए गैरीसन और सेना के ब्रिगेड की आवश्यकता होती है ? स्वाभाविक है जवाब नहीं में होगा, जैसा कि यूरोपीय संसद के कश्मीर में तदर्थ प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख, जॉन वॉल्स कुशनाहन द्वारा बहुत सही कहा गया है, कश्मीर ‘दुनिया की सबसे खूबसूरत जेल’ है.

बचपन से जिस कश्मीर को हम दुनियां का स्वर्ग सुनते आये हैं, उसे दुनियां के लोग, ‘दुनिया की सबसे खूबसूरत जेल’ है, कह रहे हैं ? इसको समझने के लिये हमको इतिहास के पन्नों के बीच से गुजरना होगा.

कश्मीर समस्या और मोदी सरकार का देश को गुमराह करना

कश्‍मीर समस्‍या को लेकर जितने भ्रम की स्थितियां निर्मित हैं, उनमें एक व्‍यक्ति का केन्द्रीय योगदान था और वे थे, ‘शेरे-कश्‍मीर’ कहलाने वाले शेख अब्‍दुल्‍ला, जो कि नेशनल कांफ्रेंस के संस्‍थापक थे और तीन बार जम्‍मू-कश्‍मीर के मुख्‍यमंत्री (पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री, जब राज्‍य के सत्ता प्रमुख को वजीरे-आजम और संवैधानिक प्रमुख को सद्रे-रियासत कहा जाता है) रहे थे. उनके बाद उनके बेटे फारूख अब्‍दुल्‍ला भी तीन बार और उनके पोते उमर अब्‍दुल्‍ला एक बार जम्‍मू-कश्‍मीर के मुख्‍यमंत्री रहे. कह सकते हैं कि अब्‍दुल्‍ला परिवार जम्‍मू-कश्‍मीर की सियासत में फर्स्‍ट फैमिली की हैसियत रखता है और शेख अब्‍दुल्‍ला उसके प्रथम पुरुष थे.

सन् 1947 में जम्‍मू-कश्‍मीर को लेकर चार तरह की थ्‍योरी चलन में थीं. यह थ्‍योरी तो खैर तब भी पूरी तरह से ‘आउट ऑफ कंसिडरेशन’ थी कि जम्‍मू-कश्‍मीर पाकिस्‍तान में जाएगा. पहले महाराजा हरि सिंह और उसके बाद शेख अब्‍दुल्‍ला दोनों ही इस पर एकमत थे कि जम्‍मू-कश्‍मीर पाकिस्‍तान के साथ नहीं जाएगा. हरि सिंह एक डोगरा हिंदू होने के नाते ऐसा मानते थे और शेख अब्‍दुल्‍ला पाकिस्‍तान को कठमुल्‍लों का देश समझते थे. लिहाजा, शेख अब्‍दुल्‍ला प्रो-पाकिस्‍तान नहीं थे, यह तो साफ है, लेकिन क्‍या वे प्रो-इंडिया भी थे ? इसको लेकर इतिहासकारों के बीच पर्याप्‍त मतभेद रहे हैं.

जो चार कश्‍मीर थ्‍योरी सन् 1947 में चलन में थीं, वे थीं :

  1. राज्‍य में जनमत-संग्रह हो और उसके बाद वहां के लोग ही यह तय करें कि उन्‍हें किसके साथ जाना है. जूनागढ़ में इससे पहले यह प्रयोग हो चुका था और वहां के लोगों ने भारत के पक्ष में वोट दिया था. कश्‍मीर में इससे पीछे हटने की कोई वजह भारत के पास नहीं थी और नेहरू भी इसके लिए तत्‍पर थे.
  2. कश्‍मीर एक संप्रभु स्‍वतंत्र राष्‍ट्र बने और भारत और पाकिस्‍तान दोनों ही उसकी सुरक्षा की गारंटी लें.
  3. राज्‍य का बंटवारा हो, जम्‍मू भारत को मिले और शेष घाटी पाकिस्‍तान के पास चली जाए, और
  4. जम्‍मू और कश्‍मीर भारत के पास ही रहें, केवल प्रो-पाकिस्‍तानी पुंछ पाकिस्‍तान के पास चला जाए.

इनमें शेख अब्‍दुल्‍ला का स्‍टैंड क्‍या था ? शेख अब्‍दुल्‍ला अलीगढ़ में शिक्षित लिबरल, सेकुलर, प्रोग्रेसिव व्‍यक्ति थे. उनके दादा एक हिंदू थे और उनका नाम राघौराम कौल था. शेख के जन्‍म के महज 15 साल पूर्व ही यानी 1890 में उन्‍होंने इस्‍लाम स्‍वीकार किया था. (शेख की जीवनी ‘आतिश-ए-चिनार’ में इसका उल्‍लेख किया गया है) नेहरू से शेख की गहरी मित्रता थी. सन् 1946 में जब महाराजा हरि सिंह ने शेख को जेल में डाल दिया था तो नेहरू इससे इतने आंदोलित हो गए थे कि अपने दोस्‍त का पक्ष रखने कश्‍मीर पहुंच गए थे.

1949 में कश्‍मीर में दो ‘प्रधानमंत्रियों’ का मिलन हुआ था, जब ‘भारत के प्रधानमंत्री’ नेहरू ‘जम्‍मू-कश्‍मीर के प्रधानमंत्री’ शेख के यहां छुट्टियां मनाने पहुंचे और दोनों ने झेलम में घंटों तक साथ-साथ नौका विहार किया था. हर लिहाज से शेख को प्रो-इंडिया माना जा सकता था. वे भारत के संविधान में दर्ज धारा 370 के प्रावधानों में गहरी आस्‍था रखते थे, कश्‍मीर के विशेष दर्जे के पक्षधर थे और पाकिस्‍तान से घृणा करते थे. लेकिन क्‍या शेख के भीतर अलगाववादी स्‍वर भी दबे-छुपे थे ?

कश्‍मीर समस्‍या की नियति गहरे अर्थों में शेख अब्‍दुल्‍ला के व्‍यक्तित्‍व के साथ जुड़ी हुई है. 40 के दशक में शेख कश्‍मीर के सबसे कद्दावर नेता थे और उस सूबे की पूरी अवाम उनके पीछे खड़ी हुई थी. उनकी नेशनल कांफ्रेंस का एजेंडा सेकुलर था, यानी केवल मुस्लिम ही नहीं, बल्कि जम्‍मू-कश्‍मीर में रहने वाले हर समुदाय के व्‍यक्ति के अधिकारों और हितों का संरक्षण. ऐसे में शेख के निर्णयों को कश्‍मीर के अवाम का निर्णय मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए. और यह शेख का निर्णय था कि कश्‍मीर भारत का अभिन्‍न अंग बना रहेगा. फिर दिक्कतें कहां थीं ?

नेहरू और गांधी दोनों ने ही शेख को कश्‍मीर का वजीरे-आजम बनाने के लिए पूरा जोर लगा दिया था और महाराजा हरि सिंह को चुपचाप हाशिये पर कर दिया गया था, फिर आखिर क्‍या कारण था कि ये ही शेख 1950 का साल आते-आते खुलेआम अलगाववादी तेवर दिखाने लगे थे ? और क्‍या कारण था कि अगस्‍त 1953 में शेख के जिगरी दोस्‍त नेहरू ने ही उन्‍हें गिरफ्तार करवाकर उनके स्‍थान पर बख्‍शी गुलाम मोहम्‍मद को नया प्रधानमंत्री बनवा दिया था ?

वल्लभ भाई पटेल और कश्मीर

अक्सर कहा जाता है कि अगर वल्लभ भाई पटेल को उनकी शैली में कश्मीर समस्या को हल करने दिया जाता तो समस्या पैदा नहीं होती. दरअसल ये नेहरू की नीति पर निशाना साधने का संघी तीर है. इसका तथ्यों से दूर तक लेना-देना नहीं.

इतिहास की कई घटनाओं से मालूम चलता है कि पटेल हैदराबाद के बदले पाकिस्तान को कश्मीर देने के लिए तैयार थे. पाकिस्तान ने उनकी बात नहीं मानी क्योंकि वो कश्मीर और हैदराबाद दोनों ही पर दावा जताता था. कम से कम हैदराबाद तो वो छोड़ने को राजी था ही नहीं. हैदराबाद में हिंदू जनता पर मुसलमान शासक बैठा था और कश्मीर में मुसलमानों पर हिंदू शासक.

कांग्रेस के नेता अंग्रेज़ों के सामने हमेशा जनता का नाम लेकर अपनी बात कहते थे, शासकों को लेकर उन्हें कोई खास हमदर्दी नहीं थी. जब हैदराबाद और कश्मीर का मामला फंसा तो पटेल ने सेना के इस्तेमाल से पहले लेन-देन की नीति अपनाने की कोशिश की.

उन्होंने माउंटबेटन के ज़रिए पाकिस्तानी पीएम लियाकत अली खान को पेशकश भेजी कि पाकिस्तान कश्मीर रख ले लेकिन हैदराबाद पर विवाद खड़ा करना बंद करे. उस वक्त लियाकत बेहद गुस्से में आ गए और बोले- हम पंजाब से भी बडे़ प्रांत (हैदराबाद) के बदले में थोड़ी-सी पहाड़ी चट्टानें (कश्मीर) मंज़ूर कर लें !

मतलब साफ था कि जब तक भारत ने हैदराबाद को सेना के ज़रिए कब्ज़े में नहीं लिया तब तक कश्मीर ना पाकिस्तान के गले की नस (पाकिस्तान में अक्सर कश्मीर को गले की नस कहा जाता है) था और ना भारत के लिए ‘अभिन्न हिस्सा’. इसके उलट नेहरू की जड़ें कश्मीर में ही थीं और वो दिमाग की जगह उसे दिल से हल कर रहे थे.

सेना भेजने के फैसले में भी उनकी (नेहरू) ही भूमिका प्रमुख थी. यूएनओ जाना उनका ही फैसला था और ज़ाहिर है कि बतौर प्रधानमंत्री उनका ही होना भी था. उन्हें भरोसा था कि पाकिस्तान लगातार कश्मीर में हरकतें करता रहेगा, इसका हल यही होगा कि दुनिया की सबसे बड़ी पंचायत में अंतिम फैसला करा ही लिया जाए.

दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1945 में बने संयुक्त राष्ट्र संघ पर उनका विश्वास करना कहीं से गलत नहीं लगता. पाकिस्तान से युद्ध में उलझकर संसाधन बर्बाद करते रहना और युद्ध में झोंकने के लिए हथियारों की अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत से खरीद करते रहना सर्वोत्तम दृष्टिकोण तो नहीं ही कहा जा सकता था. नेहरू का फोकस पाकिस्तान को बर्बाद करने पर कम, भारत को आबाद करने पर ज़्यादा था. युद्ध से परेशान दुनिया की शाम में वो पाकिस्तान हो या चीन सबसे दोस्ती का हाथ ही बढ़ा रहे थे. (घटना का संदर्भ- पाकिस्तान: द इंडिया फैक्टर, पेज 217-218 और 432)

  • डरबन सिंह

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