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‘सब कुछ मुनाफा की संस्कृति के हवाले’ का फलसफा 2024 में भाजपा को जीत दिलायेगी ?

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'सब कुछ मुनाफा की संस्कृति के हवाले' का फलसफा 2024 में भाजपा को जीत दिलायेगी ?
‘सब कुछ मुनाफा की संस्कृति के हवाले’ का फलसफा 2024 में भाजपा को जीत दिलायेगी ?
हेमन्त कुमार झा,एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

बहुत चर्चा है ‘ऑर्गेनाइजर’ में छपे उस लेख की, जिसमें कहा गया है कि सिर्फ मोदी और हिंदुत्व के नाम पर इस बार चुनाव जीतना आसान नहीं है. हालांकि, ऑर्गेनाइजर जो अब कह रहा है, बहुत सारे विश्लेषक यह बात पहले से कहते आ रहे हैं. जाहिर है, मोदी नाम की छाया में एक खास तरह के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के घालमेल से सत्ता में बने रहने की भाजपा की कोशिशें इस बार भी कामयाब होंगी, इसमें गहरे संदेह हैं.

सवाल यह है कि मोदी और हिंदुत्व अगर भाजपा को चुनावी वैतरणी पार नहीं करवा सके तो और रास्ता क्या है ? भाजपा के पास राष्ट्रवाद की शोशेबाजी, हिंदुत्व की जुगाली और योजनाबद्ध तरीके से गढ़ी गई नरेंद्र मोदी की छवि के अलावा और ऐसा है क्या जिसे उल्लेखनीय कहा जा सके ?

भाजपा का अपना कोई मौलिक आर्थिक चिंतन नहीं है और बीते 9 वर्षों में उसने नवउदारवादी आर्थिकी के जनविरोधी षड्यंत्रों को सांस्थानिक आधार देने के अलावा और कुछ नहीं किया है. जिन शक्तियों ने मोदी में ‘मेटेरियल’ देखा और उनकी छवि को गढ़ कर जनता के सामने रखा, उनके आर्थिक हितों के संपोषण के अलावा मोदी राज के बीते 9 वर्षों में इस देश की आम जनता के कौन से आर्थिक हित साधे गए, इनका कोई माकूल उदाहरण नहीं मिलता.

बावजूद इसके कि मध्य वर्ग मोदी का जयकारा लगाता रहा, वह इन वर्षों में आर्थिक रूप से खोखला होता गया जबकि विपन्न जमातों को मुफ्त के अनाज के सिवा और क्या मिला, यह अनुसंधान का विषय है. कहा जा रहा है कि मोदी सरकार के ‘वेलफेयरिज्म’ ने जिस लाभार्थी वर्ग को तैयार किया वह भाजपा के लिए एक मजबूत वोट बैंक बन सकता हैं. लेकिन, कर्नाटक ने दिखा दिया कि लाभार्थी वर्ग किसी एक पार्टी के प्रति अधिक वफादार नहीं, जिसने कुछ अधिक का लालच दिया, इस वर्ग के अधिकतर लोग उधर ही मुड़ गए.

‘वेलफेयरिज्म’ एक किस्म का फरेब है, जो नव उदारवादी सरकारें विपन्न वर्गों के साथ करती हैं. बजाय इसके कि इस जमात की आमदनी को बढ़ाने के उपाय किए जाएं, उनके साथ आर्थिक न्याय किया जाए, उन्हें मुफ्त में कुछ किलो अनाज और साथ में और कुछ दे कर उनका चुनावी समर्थन पाने की कोशिशें की जाती हैं.

जरा कल्पना करें, भारत सरकार लगभग 81 करोड़ की आबादी को कब तक मुफ्त अनाज दे सकती है ? और, कब तक देश की कुल आबादी का यह विशाल तबका इस तरह के अनुग्रहों के सहारे जी सकता है ? मध्य वर्ग पर टैक्स का भारी बोझ लाद लाद कर 81 करोड़ लोगों के साथ तथाकथित वेलफेयरिज्म का फरेब अधिक दिनों तक नहीं चल सकता.

बात अगर टैक्स की ही करें तो यह निर्धन वर्ग भी कम टैक्स नहीं देता. वह कुछ भी खरीदता है तो टैक्स देता है, कुछ भी करता है, कहीं भी जाता है तो टैक्स देता है. अपनी औकात से अधिक टैक्स तो वह देता ही है. जब तक उन 81 करोड़ लोगों को आर्थिक प्रक्रिया की मुख्य धारा में नहीं लाया जाता, जब तक उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के सार्थक कदम नहीं उठाए जाते, तब तक यह सब सिवाय चुनावी फरेब के और कुछ नहीं है. ऐसा फरेब, जिसका देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव तो पड़ता ही है, लाभार्थियों और उनके बच्चों का आर्थिक भविष्य भी धूमिल होता है.

भाजपा से यह सीख विपक्ष की पार्टियों ने भी ली है और अब तो हर चुनाव में हर पार्टी मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की घोषणाएं करती हैं. आम आदमी पार्टी से ले कर कांग्रेस तक इसमें पीछे नहीं रह रही. इसे ही कहते हैं नवउदारवाद का शिकंजा, जो राजनीतिक दलों को वैचारिक रूप से और निर्धन जमातों को आर्थिक रूप से कमजोर करता है.

आम आदमी पार्टी इसका एक जरूरी उदाहरण है जो बिना किसी स्पष्ट वैचारिक आधार के एक राजनीतिक दल के रूप में अस्तित्व में आया और दो दो राज्यों में सरकारें तक बन गईं उसकी. वेलफेयरिज्म और भ्रष्टाचार विरोध के नैरेटिव के अलावा उसके पास और क्या है, यह बताना आसान नहीं. निर्धनों की शिक्षा पर बड़े पैमाने का निवेश, श्रम कानूनों को मानवीय स्वरूप देना, कंपनियों की मनमानियों पर अंकुश लगाना, न्यूनतम पारिश्रमिक को बाजार मूल्यों के अनुरूप निर्धारित करना आदि जैसे उपाय ही विपन्न लोगों को बेहतरी के रास्ते पर ला सकते हैं.

भाजपा ने अपने 9 वर्षों के राज में यह साबित कर दिया है कि उसके पास कोई ऐसा आर्थिक चिंतन है ही नहीं जो विशाल वंचित आबादी के आर्थिक सरोकारों से तार्किक रूप से निबट सके. बस, मध्य वर्ग पर टैक्स बढ़ाते जाओ, विपन्न जमातों से भी किसी न किसी रास्ते टैक्स की अधिकतम वसूली करते जाओ और कुछ किलो अनाज या इसी तरह की कुछ अन्य सुविधाएं दे कर उनका चुनावी समर्थन पाने की उम्मीदें लगाए रखो.

कांग्रेस सहित विपक्ष की कुछ अन्य पार्टियों ने भी इस रास्ते अपने कदम बढ़ा दिए हैं. चुनावी लाभ पाने का शॉर्ट कट जब भाजपा के लिए लाभ प्रद हो सकता है तो किसी के लिए भी हो सकता है. भाजपा के रणनीतिकार चिन्ता में हैं कि ‘मोदी नाम केवलम’ जपते हुए हिंदुत्व के सहारे उसकी चुनावी नैया शायद ही पार लग सके. लेकिन, उनके पास और है क्या ?

अटल बिहारी वाजपेयी के समय में अटल जी का नाम था तो राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को लेकर कुछ सपने भी थे. वह भाजपा का उत्कर्ष काल था जो नरेंद्र मोदी के दौर में चरम पर पहुंचा. अब लोग देख चुके हैं कि भाजपा ब्रांड राष्ट्रवाद क्या है, हिंदुत्व क्या है और यह सब उनके या उनके बाल बच्चों के जीवन को क्या दे सकता है.

बेरोजगारी से त्रस्त करोड़ों युवा भी इन वर्षों में देख चुके हैं कि नीतिगत स्तरों पर रोजगार सृजन में मोदी सरकार किस तरह असफल रही. उल्टे, लाखों सरकारी पदों को या तो खत्म कर दिया गया या बिना नियुक्ति के उन्हें शीत गृह में डाल दिया गया. लोग समझ चुके हैं कि रोजगार के सपनों का मोदी से कोई अधिक मेल नहीं है. बेरोजगारों की उम्मीदों का टूटना मोदी की छवि पर सबसे बड़ा आघात साबित हुआ. निर्धनों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. तभी तो…कर्नाटक में ग्रामीण इलाकों में भाजपा बुरी तरह हारी है क्योंकि ग्रामीण निर्धनों ने उसे इस बार पूरी तरह नकार दिया.

एक बड़ा और संपन्न तबका अभी भी भाजपा के व्यामोह में है. इसके अपने समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक कारण हैं, लेकिन निर्धन तबकों में भाजपा के प्रति आकर्षण कम हो रहा है. इतनी लंबी अवधि तक सत्ता में रह कर मोदी ब्रांड भाजपा बता चुकी है कि उसकी नीतियों में, उसकी सोच में और उसकी नीयत में इस देश की विशाल निर्धन आबादी कहां है !

पिछली बार तो पुलवामा और बालाकोट ने माहौल बदलने में भाजपा की बहुत मदद की थी. अपनी राजनीतिक चतुराई से मोदी जी ने जीत की नई इबारत लिख दी थी लेकिन, इस बार…न खास तरह का राष्ट्रवाद काम आने वाला है, न हिंदुत्व का कोई बड़ा असर होने वाला है. भाजपा के पास और है क्या ?

भारत के गरीब ही भाजपा को सत्ता से बेदखल करेंगे क्योंकि धीरे धीरे उनकी समझ में आने लगा है कि उनके जीवन और उनकी आकांक्षाओं के साथ भाजपा की वैचारिकता का कोई सार्थक मेल नहीं है. अगर उन्हें आगे जाना है तो मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स उनका सहयात्री नहीं बन सकता.

नई शिक्षा नीति की चर्चा कोई इधर की बात नहीं है. मोदी सरकार कई वर्षों से इसकी तैयारी कर रही थी. हालांकि, अब जब यह नई नीति लागू की जा रही है तब लोगों को लग रहा है कि इस राह चलने पर तो शिक्षा काफी महंगी हो जाएगी. महंगी हो नहीं जाएगी, महंगी हो चुकी है. इससे भी बदतर यह कि महंगी होती ही जाएगी, क्योंकि सरकार ही ऐसा चाहती है. जब बिहार के अखबारों में खबरें छपने लगी कि स्नातक कक्षाओं में शिक्षा की नई प्रणाली शुरू होने पर यह एकबारगी पांच से सात गुना महंगी हो जाएगी तो लोगों की चिंता बढ़ने लगी.

पर, अब मामला आम लोगों की इन चिंताओं से आगे जा चुका है. जो होना है वह हो रहा है और यह संभव नहीं कि धारा की दिशा को बदला जा सके. इन नई नीतियों के आलोक में शिक्षा के भावी परिदृश्य की कल्पना करें तो पहली बात तो यह कि आने वाले समय में उच्च शिक्षा इतनी महंगी हो जाने वाली है कि कम आय वर्ग की बड़ी आबादी के बहुत सारे बच्चे इस ओर झांकेंगे ही नहीं. उनके लिए सरकार ने कौशल विकास की कई योजनाएं बनाई हैं जिनके अंतर्गत उन्हें विभिन्न छोटे मोटे रोजगारों में लगाया जाएगा. हालांकि, कौशल विकास की ये योजनाएं अधिकतर मामलों में क्रियान्वयन के स्तर पर अब तक सफेद हाथी ही साबित हुई हैं. यानी, कम आय वर्ग के ये नौजवान इस तरह विकल्पहीन बना दिए जाएंगे कि वे कंपनियों की अमानवीय शर्तों पर श्रमिक बनने के अलावा कुछ और नहीं कर पाएंगे.

दरअसल, नरेंद्र मोदी आधुनिक भारत के इतिहास में नेहरू से बड़ी लकीर खींचना चाहते हैं और उनके समर्थकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि भविष्य में जब भारत का इतिहास लिखा जाए तो इसके अध्यायों का विभाजन ‘भारत मोदी के पहले और भारत मोदी के बाद’ के नामों से हो. मोदी ने नई टैक्स प्रणाली की शुरुआत की और इसे नए भारत की मांग बताया. वे नई शिक्षा प्रणाली ला रहे हैं और इसे भी बदलते भारत की मांग बता रहे हैं. बात होनी चाहिए कि यह किस बदलते भारत की मांग है कि उच्च शिक्षा अचानक से पांच सात गुने महंगी हो जाए ?

डिबेट होना चाहिए कि सरकारी कालेजों को स्वायत्त संस्थानों में बदल कर उन्हें मनमानी फीस निर्धारण की छूट देना किस तरह बदलते भारत की मांग है ? दौर बदलते हैं तो उनके अनुरूप सिलेबस और शिक्षण प्रणाली में बदलावों की बात तो समझ में आती है, लेकिन फीस स्ट्रक्चर में ऐसे बदलावों की बात का क्या औचित्य है जिसमें बड़ी आबादी के लिए उच्च शिक्षा दुर्लभ हो जाए !

उदाहरण बताते हैं कि जिन सरकारी संस्थानों को नई नीतियों के तहत स्वायत्त बनाया गया है उनकी फीस कई तरह के कोर्सेज में अकल्पनीय तरीके से बढ़ी है. त्रासदी यह कि इन स्वायत्त संस्थानों में शिक्षकों के अधिकारों और उनकी गरिमा के साथ भी समझौता किया जा रहा है. अभी पिछले वर्ष पटना के एक बहुचर्चित और प्रतिष्ठित कॉलेज, जिसे स्वायत्त का दर्जा दे दिया गया, ने कुछ विषयों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी किया तो उसमें योग्यता तो वही रखी गई जो यूजीसी के मानदंडों के अनुरूप हैं, लेकिन उनका वेतन सीधे आधा कर दिया गया.

स्वायत्तता के नाम पर शिक्षा के कारपोरेटीकरण का यही निष्कर्ष निकलना भी था, जो निकल रहा है. यानी, जिन कोर्सेज में बच्चों की भीड़ जुटती है उसकी फीस पंद्रह गुना, बीस गुना तक बढ़ा देना और स्थायी शिक्षकों की जगह उनकी अंशकालिक नियुक्ति कर उन्हें वाजिब से आधा से भी कम वेतन देना. बनिया पहला ध्यान मुनाफा पर ही देगा और अगर शिक्षा को बनियागिरी के हवाले कर दिया जाए तो यही सब होगा जो होने लगा है.

तो, बदलते भारत की यह सबसे प्रमुख प्रवृत्ति है कि अधिकतम क्षेत्र कारपोरेट के हवाले कर दिए जाएं और वे मुनाफा के तर्क से प्रेरित हो कर इन क्षेत्रों का संचालन करें…और…खूब सारा माल़ कूटें. बदलता भारत खूब सारा माल़ कूटने की हवस पाले कारपोरेट प्रभुओं की अंतहीन लिप्साओं का खुला मैदान बन रहा है और हमें बताया जा रहा है कि भारत बदल रहा है, बढ़ रहा है, दुनिया की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हो रहा है और सबसे गर्व की बात यह कि भारत ‘फिर से’ विश्व गुरु बनने की ओर तेजी से अग्रसर है.

अभी कल खबरों में नजर आया कि अडानी की कंपनी रेलगाड़ियों के टिकटों की ऑन लाइन बुकिंग करने का अधिकार हासिल करने वाली है. सोचिए जरा, इस सुरक्षित क्षेत्र में अदानी महाशय बिना रिस्क लिए कितना मुनाफा कूटने वाले हैं ! ऑनलाइन टिकट बिक्री की दरें बढ़ जाएंगी इसमें तो कोई संदेह ही नहीं.

भारत के शैक्षिक परिदृश्य में आज भी प्राइवेट विश्वविद्यालयों का योगदान कतई उल्लेखनीय नहीं है. लेकिन वे कितना मुनाफा कमा रहे हैं और छात्रों-शिक्षकों का कितना शोषण कर रहे हैं, इस पर अधिक चर्चा नहीं होती. कुल मिला कर बदलते भारत का यही फलसफा है कि सब कुछ मुनाफा की संस्कृति के हवाले.

इस दारुण परिदृश्य में पूंजी और श्रम का द्वंद्व एक नए धरातल पर पहुंच गया है लेकिन इस ओर किसी विशेष अध्ययन को प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा. भारत में सर्विस सेक्टर का विस्तार तेजी से हो रहा है और शिक्षा को सर्विस बना कर शिक्षार्थियों को उपभोक्ता बना दिया जा रहा है. ऐसा उपभोक्ता, जिसके अधिकार बेहद सीमित हों, जिसके विकल्प बेहद सीमित हों और जो शोषित होने के लिए, लूट लिए जाने के लिए ही अभिशप्त हो. लूट की यह संस्कृति स्कूली शिक्षा में तो हावी हो ही चुकी है, अब विश्वविद्यालय शिक्षा में भी इसी संस्कृति का वर्चस्व होगा. ऐसा बदलता भारत डराता है.

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