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स्त्री मुक्ति किसे कहते हैं ?

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स्त्री मुक्ति किसे कहते हैं ?
स्त्री मुक्ति किसे कहते हैं ?
जगदीश्वर चतुर्वेदी

स्त्री मुक्ति किसे कहते हैं ? यह बेहद जटिल सवाल है. इस सवाल का हरेक औरत के पास अपना एक सुनिश्चित तर्क है. मुक्ति का सवाल मोक्ष का सवाल नहीं है बल्कि अस्मिता को जानने, समझने और बदलने के सवालों और प्रक्रियाओं से जुड़ा है. स्त्री अपने को जितना जानेगी, उतना ही बदलने की कोशिश करेगी. जानना सचेत क्रिया है. इसे स्वतःस्फूर्त या बायोलॉजिकल क्रिया मात्र न समझें. मसलन्, औरत है तो जरुरी नहीं है कि उसके पास औरत का सचेत स्त्री बोध भी हो. सचेत स्त्री बोध अर्जित करना पड़ता है. यह व्यक्तिगत और सामाजिक संघर्ष से उपजी चेतना है. स्त्री अपनी अस्मिता को अर्जित करने के लिए कितना सचेत प्रयास करती है, उससे स्त्री मुक्ति का स्वरुप तय होगा.

स्त्री अपनी पहचान अर्जित करे, इसके लिए जरूरी है कि झूठी भावनाओं और लालसाओं से मुक्त होकर स्वयं को देखे. विभ्रमों से दूर रहे. स्त्री की मुक्ति का अर्थ है- स्त्रियों के आत्म-निर्णय का अधिकार होना. स्त्री आत्म-निर्णय के अधिकार से जितनी लैस होगी, उसकी मुक्ति की संभावनाएं उतनी प्रबल होंगी. आत्म-निर्णय के अधिकार में अज्ञानी बने रहने के आत्म-निर्णय के अधिकार को शामिल नहीं कर सकते. अनेक औरतें हैं जो आत्म-निर्णय के अधिकार की आड़ में जैसी हैं वैसी ही बनी रहना चाहती हैं.

मुक्ति का मतलब यह नहीं है कि स्त्री जैसी है वैसी ही बनी रहे. मुक्ति का मतलब है औरत पहले यह माने कि उसे बदलना चाहिए. मुक्ति का मार्ग परिवर्तन की चाहत से शुरु होता है. जिस औरत में परिवर्तन की चाहत नहीं है, उसे स्त्री मुक्ति की दरकार नहीं है. स्त्री मुक्ति उनके लिए जरुरी है जो बदलना चाहती हैं. बदलने के लिए सबसे पहले स्त्री को, स्वयं को जानना जरुरी है. स्त्री की स्वायत्तता, स्त्री मन और स्त्री तन को जानना जरुरी है. स्त्री को जाने बिना उसे बदल नहीं सकते.

हमारे यहां इस तरह की औरतें हैं जो स्त्री को जानना नहीं चाहतीं लेकिन स्त्री मुक्ति चाहती हैं. ऐसी औरतें बुनियादी तौर पर धर्म –भगवान के प्रति समर्पण में ही स्त्री मुक्ति खोजने लगती हैं. भगवान की पूजा-अर्चना, भक्ति, इच्छाओं के दमन को स्त्री मुक्ति मानती हैं. निजी इच्छा-आकांक्षाओं का दमन, स्त्री शरीर की जरुरतों के दमन को ही परंपरावादी स्त्री मुक्ति का उपाय मानती हैं जबकि हकीकत एकदम विपरीत है. स्त्री अपने निजी भावों, विचारों, इच्छाओं आदि को जितना व्यक्त करेगी, संतुष्ट करेगी, उसमें परिवर्तन की इच्छा का विकास होगा.

परंपरावादी स्त्री मुक्ति का मार्ग बुनियादी तौर पर स्त्री को यथावत बनाए रखता है. स्त्री को ‘वह जैसी है वैसी बनाए रखना’ मुक्ति नहीं है. दूसरी बात यह कि धर्म के पास स्त्री परिवर्तन का कोई उपाय नहीं है इसलिए धर्म से स्त्री मुक्ति की उम्मीद करना बेमानी है. धर्म तो स्त्री के अंदर विभ्रमों की सृष्टि करता है. स्त्री को परिवर्तन से रोकता है. इसका प्रधान कारण है धर्म को समर्पण के बिना पा नहीं सकते. स्त्री को समर्पण की नहीं परिवर्तन की जरुरत है और परिवर्तन को हासिल करने के लिए समर्पण के भाव का अतिक्रमण करना अनिवार्य शर्त है. समर्पण भाव बुनियादी तौर पर अस्मिता की पहचान को अर्जित ही नहीं करने देता.

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि स्त्री मुक्ति के लिए स्त्री की स्वायत्तता और स्वतंत्रता को स्वीकृति दी जाय. स्त्री को स्वायत्त मानने के लिए स्त्री को स्त्री के संदर्भ में देखें. स्त्री को अब तक पुरुष संदर्भ से व्याख्यायित करते रहे हैं. पुरुष संदर्भ की बजाय स्त्री संदर्भ में देखने की आदत सचेत ढ़ंग से ही विकसित की जा सकती है. क्योंकि हजारों साल के अभ्यास ने पुरुष संदर्भ में देखने की आदत को नेचुरल बना दिया है, सर्व-स्वीकृत बना दिया है. स्त्री संदर्भ में देखेंगे तो स्त्री को पुरुष के सांचे, इच्छाओं और लक्ष्यों में ढ़ालने की आदत से मुक्ति पाने की जरुरत महसूस होगी. अपने को पुरुष के अनुकूल ढालना बंद करें. स्त्री को अनुकूल ढालने का अर्थ है उसे मातहत बनाना.

स्त्री मुक्ति की शर्त्त है कि उसके जीवन में हस्तक्षेप बंद हो. हर स्तर पर स्त्री पर समाज और परिवार का हस्तक्षेप सबसे बड़ी बाधा है. हमें स्त्री पर विश्वास करना चाहिए. उस पर संदेह करना छोडें. स्त्री को निषेध और हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है.

स्त्री मुक्ति के लिए जरुरी है कि स्त्री के बारे में जन प्रचलित रुढ़िबद्ध विचारों और संस्कारों से बाहर निकलकर स्त्री पर विचार करें. स्त्री के बारे में रुढ़िबद्ध रुप जीवन में, खासतौर पर स्त्री के मन में गहरी जड़ें जमाए हुए हैं. इन रुढ़िबद्ध रुपों, विचारों को आम तौर पर लोग सहज और स्वाभाविक मानते हैं. आए दिन उनकी ही हिमायत करते रहते हैं. इसमें सबसे जनप्रिय है गृहिणी, रमणी, काली औरत, गोरी औरत, सुंदरी आदि.

भारतीय मध्यकालीनबोध का आदर्श रूप है बातूनीपन. भारतीय लोग बात करने के लिए प्रसिद्ध हैं. वे खूब बोलते हैं. तर्क करते हैं लेकिन अधिकांश बातों को ठंड़े बस्ते में बंद कर देते हैं. हमें बातूनी भारतीय की जगह कर्मशील भारतीय की जरूरत है, जो बात कहें उसका पालन करें.

ग्राम्य संस्कृति में अनेक स्त्रीविरोधी बातें हैं जो हमें संस्कारों में मिली हैं, उनमें से एक है कुलच्छनी लड़की की धारणा. उसे तरह-तरह के तर्कों से, शुचिता से जोड़ा गया. साथ ही अनेक किस्म की नैतिकता संबंधी मान्यताएं इस कुलच्छनी लड़की की धारणा में आरोपित करके लड़की के ऊपर थोप दी गयी. लड़की कुलच्छनी नहीं होती.

ग्राम्य संस्कृति की वल्गर कल्चर का आदर्श रूप है हलकट जवानी, जलेबीबाई, चिकनी चमेली आदि के रूप में प्रचलित आइटम फिल्मी गाने. भोजपुरी आदि के लोकगीतों में कालांतर में आई वल्गर कल्चर को हिन्दी और भोजपुरी सिनेमा ने खूब भुनाया है. ये सारे हमारे ग्राम्य जीवन के पतन के सांस्कृतिक साक्ष्य हैं. इस तरह की प्रस्तुतियों ने स्त्री के भोग्यारूप को प्रतिष्ठा दिलायी है. स्त्री की वल्गर कल्चर का उपभोग अंततः मर्दानगी का नया पाठ रच रहा है.

ग्राम्य मानसिकता है अपराध करो और भूल जाओ. मर्द अपराध करता है, समाज और परिवार लड़की से कहता है चुप रह, किसी से मत कह, छोड़, जाने दे, भूल जा. दूसरी ओर अपराधी हाथ-पैर जोड़ने लगता है, रोने-बिसूरने लगता है. माफी चाहता है और कहता है भूल जाओ-माफ करो. इस मानसिकता ने अपराध की मानसिकता को सामाजिक समर्थन दिलाया है. अपराध की अनदेखी करने की आदत पैदा की है. अपराध की अनदेखी अंततः अपराधी को अपराधी मनोदशा में बांधे रखती है, वह अपराध करना नहीं छोड़ता.

स्त्री-संबंधी अपराधों को इसी कारण हल्के ढ़ंग से लिया जाता है. स्त्री के खिलाफ किए गए अपराधों के बारे में सचेतनता बेहद जरुरी है. यह स्त्री मुक्ति के प्रकल्प का अभिन्न अंग है. आधुनिक काल आने के बाद स्त्री ने ज्योंही निर्ममता से पेश आना आरंभ किया और प्रतिवाद किया तो स्त्री रक्षा के विभिन्न कानूनों का जन्म हुआ. लेकिन स्त्री सचेतनता का विकास जिस गति से होना चाहिए वैसा नहीं हुआ. पुराने जमाने में स्त्री हिंसकों को दण्डित नहीं किया गया. बल्कि स्त्री अपहरण को वीरता से विभूषित किया गया, जबकि अपहरण तो अपराध है.

नए मध्यवर्ग में मर्द की अनेक सामंती कुप्रथाएं चली आई हैं, उनमें से एक है अपराध करो और भूल जाओ. औरत से कहा जाता है सहन करो और भूल जाओ. यदि किसी लड़की के साथ किसी परिवारीजन के द्वारा बदतमीजी की हरकत की जाती है तो लड़की अपनी मां से कहती है, पिता से नहीं. मां कहती है तू चुप रह, वेवजह कलह होगी. सिर फूटेंगे, गोली चलेंगी, तेरी शादी-ब्याह का मसला भी उलझन में फंस जाएगा. यानी औरत को हमेशा अन्य की इज्जत की रक्षा की दुहाई देकर अपनी इज्जत लुटने देने के लिए कहा जाता है. स्त्री के प्रति समाज का ग्राम्यबोध ही है जो औरत की इज्जत को इज्जत नहीं मानता, मर्दों की इज्जत को इज्जत मानता है. परिवार, पंचायत, जाति, धर्म आदि सबकी इज्जत की रक्षा करने के नाम पर स्त्री की इज्जत को लूटा गया.

स्त्री की इज्जत के सवाल हमें इसीलिए कभी उद्वेलित नहीं करते. हम उनको बड़े बारीक-बारीक बहानों के जरिए टालते रहे हैं. स्त्री की इज्जत समाज की इज्जत है. समाज की इज्जत, स्त्री की इज्जत नहीं है. हमें ऐसे समाज से घिन आती है जो बहानों के जरिए स्त्री की इज्जत को हाशिए पर डालता है. स्त्री की पूजा करने से हम बाज आएं, उसकी इज्जत करना सीखें. स्त्री के प्रति पूजा भाव ग्राम्य बोध की देन है. स्त्री को इज्जत देना आधुनिक भाव बोध से जुड़ा है. हम चाहते हैं स्त्री के प्रति चले आ रहे ग्राम्य भाव बोध का अंत हो.

स्त्री मुक्ति के प्रकल्प के रुप में स्त्री आत्म-निर्भरता को देखा गया. लेकिन सिर्फ आत्म-निर्भरता से स्त्री मुक्ति नहीं मिलती. आमतौर पर देखा गया है आत्मनिर्भर औरतें अधिक मर्दवादी होती हैं. पुंसवाद की मानसिकता में कैद होती हैं. आत्मनिर्भरता तब ही स्त्री मुक्ति का प्रकल्प बनती है जब वह पुंसवादी मूल्यों और संस्कारों की बजाय स्त्री चेतना और स्त्री अस्मिता के क्षेत्र में सचेतनता हासिल करे.

भारत में स्त्रियों पर बढ़ते हुए हमलों का एक वैचारिक पहलू धर्मनिरपेक्षता (कांग्रेस मार्का) और छद्म धर्मनिरपेक्षता (संघ परिवार-भाजपा मार्का) दो छोरों में बंधा हुआ है. धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हमने देश में कभी भी पितृसत्ता के बारे में सवाल खड़े नहीं किए. आज भी हम पुलिस, कानून, सरकार आदि की बातें कर रहे हैं, पितृसत्ता की परतों को खोलने के लिए तैयार नहीं हैं.

धर्मनिरपेक्षता के बारे में राजा राममोहन राय की धारणा असल में पितृसत्ता को बरकरार रखती है. उससे मुक्ति के बारे में हमने कभी सोचा ही नहीं। कम से कम स्त्री के नजरिए से हमने धर्मनिरपेक्षता पर कभी पुनर्विचार नहीं किया. यहां तक कि कम्युनिस्ट चिंतकों ने भी इस पहलू की उपेक्षा की है क्योंकि मार्क्सवाद की आड़ में भी पितृसत्ता बनी रहती है. यही हाल संघ परिवार की विचारधारा का है. वे तो पितृसत्ता के घृणिततम रूपों की हिमायत करते हैं. स्त्री पर हमले न हों इसके लिए जरूरी है पितृसत्ता का क्षय हो।उसके सभी रूपों के खिलाफ समझौताहीन दीर्घकालिक संघर्ष चलाया जाय.

स्त्रियों पर हमले की घटनाएं आम बात है. हम इनको रुटीन हमले की तरह देखने लगे हैं, इसके कारण स्त्री सचेतनता में बाधाएं खड़ी हुई हैं. गांवों, झुग्गी बस्तियों, मध्यवर्गीय परिवारों और कामकाज के स्थानों पर स्त्रियों पर शारीरिक हमले आम हो गए हैं. इससे स्त्री के मन में परिवर्तन के खिलाफ भावनाएं पुख्ता हुई हैं. वह परिवर्तन से डरने लगी है. स्त्री पर शारीरिक हमलों का बुनियादी लक्ष्य है स्त्री को परिवर्तन के मार्ग से विमुख करना. उसे जैसी है वैसी बने रहने पर मजबूर करना.

इसके अलावा शहरी मध्यवर्ग में स्त्री को संपत्ति मानकर संबंध बनाए हैं, इससे भी स्त्री उत्पीड़न बढ़ा है. स्त्री स्वस्थ और सुखी रहे इसके लिए जरूरी है स्त्री को संपदा न समझा जाय और शादी-ब्याह में संपदा की मांग न की जाय. सामंती भावबोध स्त्रियों को कभी मनुष्य के रुप में नहीं देखता, वह भोग्या और पुरुष के पूरक के रुप में देखता है. स्त्री मुक्ति का यह सबसे जटिल और महत्वपूर्ण क्षेत्र है. स्त्री अपने को मनुष्य के रुप में देखे, व्यक्ति के रुप में देखे और अन्य को इसी रुप में देखने को मजबूर करे.

आज औरतों के पास जितने अधिकार हैं उन्हें दिलाने में स्त्रीवादी महिलाओं के लेखन और महिला आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है लेकिन अधिकतर औरतें और आलोचक ,फेमिनिज्म के इस कर्ज के प्रति कृतज्ञता से पेश नहीं आते. वे स्त्री की उन परिस्थितियों को अस्वीकार नहीं करते, जिनमें औरतें कष्ट और अपमान में रह रही हैं, और अपनी वास्तव स्त्रीचेतना से वंचित है. इस क्रम में औरतें समाज में हाशिए पर चली गयी हैं.

अधिकतर औरतें अदृश्य रहना चाहती हैं. वे परिवार के निर्माण में अपनी भूमिका निभाना चाहती हैं लेकिन सामाजिक वातावरण में अपनी भूमिका नहीं निभाना चाहती. उनके व्यक्तित्व से नागरिक आयाम एकसिरे से गायब है. यह भी कह सकते हैं औरत की घरेलू अस्मिता ने उसकी नागरिक अस्मिता का अपहरण कर लिया है. यह स्त्री मुक्ति के मार्ग की सबसे बड़ी चुनौती है. इसके लिए स्त्री नजरिए की जरुरत है. स्त्री नजरिए के बिना स्त्री मुक्ति संभव नहीं है, स्त्री में नागरिक चेतना संभव नहीं है. स्त्री नजरिए के लिए स्त्री विचारधारा चाहिए, इसके बिना स्त्री मुक्ति संभव नहीं है.

हमारे देश में लोकतंत्र है, संविधान में हक भी मिले हैं लेकिन स्त्री-पुरूष एक-दूसरे का सम्मान नहीं करते. नागरिकता का उदय तब होता है, जब हम सम्मान करते हैं, भिन्नता को स्वीकार करते हैं. लेकिन भिन्न किस्म की धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक भावनाओं को स्वीकार नहीं करते. नागरिक भाव बोध पैदा करने लिए हमें स्त्री-पुरूष के प्राकृतिक अंतर और भिन्नता और स्वायत्तता को भी मानना पड़ेगा.

लोकतंत्र में हक मिलते नहीं हैं, उनको हासिल करना पड़ता है. यह स्त्रीविवेक पर निर्भर करता है कि वह अपने अधिकारों के प्रति कितनी सजग है. स्त्री की सजगता के आधार पर यह भी देख सकते हैं कि वह अपने को दासता से किस हद तक मुक्त करना चाहती है. इसके लिए स्त्री को लिंग के दायरे से बाहर निकलकर नागरिक के दायरे में आना होगा. लिंगबोध का नागरिकबोध में रूपान्तरण करना होगा. लिंगबोध, स्त्री दासता बनाए रखता है जबकि नागरिकता का दायरा स्त्री मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है. इससे स्त्री को अपनी प्राकृतिक पहचान को नागरिक अस्मिता में रूपान्तरित करने में मदद मिलती है.

स्त्री जब तक स्त्री की इमेज में बंधी रहेगी उसे नागरिक समाज और नागरिक अधिकारों के साथ सामंजस्य बिठाने में असुविधा होगी. यह भी संभव है स्त्री अपनी प्राकृतिक जिंदगी को पूरी तरह त्यागे बिना नागरिक जिंदगी में प्रवेश करे. जिस तरह स्त्री के लिए वस्त्र जरूरी हैं वैसे ही नागरिक अधिकार भी जरूरी हैं. इसके लिए जरूरी है कि स्त्री-पुरूष में प्रेम हो. प्रेम के बिना सब बेकार है. यहां तक कि नागरिक अधिकार भी अर्थहीन हैं. परंपरा और धर्म भी अर्थहीन है. स्त्री की स्वायत्तता बचे इसके लिए स्त्री-पुरूष में प्रेम जरूरी है. स्त्रियों में आपसी प्रेम जरूरी है, स्त्री का स्वयं से प्रेम करना भी जरुरी है.

स्त्री के प्रति रवैय्या बदले इसके लिए जरूरी है कि हम उसे देखने का तरीका बदलें. स्त्रीचेतना का सामाजिक स्रोत हैं संस्थान. स्त्री के बारे में जब भी किसी विषय पर बात की जाए उसे संस्थान के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए. स्त्रीचेतना का निर्धारण स्त्री कम और सामाजिक संस्थान ज्यादा करते हैं. मसलन, मध्यकाल में स्त्री पर विचार करना है तो मध्यकालीन संस्थानों से जोड़कर देखें. आधुनिक औरत पर बात करनी है तो आधुनिक संस्थानों की भूमिका के संदर्भ में विश्लेषित करें. संस्थान के चरित्र उदघाटन के बिना स्त्री अस्मिता का रहस्योदघाटन संभव नहीं है.

सवाल उठता है संस्थान किसे कहते हैं ? उनका काम क्या है ?संस्थान की केन्द्रीय भूमिका है शिरकत पैदा करने की. जैसे न्यायालय, संसद, विधानसभा आदि ये संस्थान हैं. इनमें कोई भी शिरकत कर सकता है. स्त्री साहित्य को संस्थान की शिरकत वाली भूमिका में देखने की जरूरत है. उसे सामान्यतौर पर स्त्री पर बात करते समय, उसके लिखे पर बात करते समय हम स्त्री को लिंग की तरह नहीं देखते, उसकी राय को लिंग की राय के रूप में ग्रहण नहीं करते बल्कि व्यक्तिगत राय के रूप में देखते हैं. इस तरह देखने का दुष्परिणाम यह निकला है कि स्त्री को, उसके विचारों को हाशिए पर डाल देते हैं. उसके स्वायत्त अस्तित्व और उसकी उपलब्धियों या सामाजिक भूमिका को सीमित करके पुंस वर्चस्व के अधीन बना देते हैं.

उल्लेखनीय है लिंगरहित पहचान की जितनी भी धारणाएं या संबंध हमारे समाज में प्रचलन में हैं, उनके आधार पर स्त्री की सही समझ नहीं बनती. मसलन, स्त्री को बीबी, बहू, बेटी, बहन आदि के आधार पर नहीं समझा जा सकता. इस तरह के सारे पदबंध स्त्री की लिंग की पहचान को छिपाते हैं, या उसकी उपेक्षा करते हैं. स्त्री को न्यूनतम स्पेस देते हैं. साथ ही इनमें किसी न किसी रूप में पुंसवादी संदर्भ निहित है और वह निर्णायक भूमिका अदा करता है. ये सभी पदबंध पुरूषसंहिता से निर्मित हैं. कायदे से हमें मर्द के सांचे में ढ़लकर आई अवधारणाओं और स्त्री के सांचे में ढलकर आई अवधारणाओं में अंतर करना चाहिए.

स्त्री को आज विचारहीन बनाने की कोशिशें हो रही हैं. विचारहीन औरतें ही आज फासिज्म या साम्प्रदायिकता या पुंसवादी उत्पीड़न का घरों में और समाज में सबसे प्रभावशाली औजार बनी हुई है. स्त्री मुक्ति के मार्ग में यह सबसे बड़ी बाधा है. स्त्री रक्षा के लिए स्त्री के पास उसकी विचारधारा होनी चाहिए. स्त्री के आधुनिक विचारों से उसे लैस होना चाहिए. पुराने स्त्री मिथकीय रुप विचारधाराहीन स्त्री बनाते हैं, अतः उनसे बचना चाहिए.

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