मनीष आजाद
‘संवेदना एक दुधारी तलवार है, जो इसका इस्तेमाल करना नहीं जानता, उसे इससे बचकर रहना चाहिए. इसी में उसकी भलाई है. किसी अफीम की तरह संवेदना शुरू में पीड़ित को सांत्वना देती है, किन्तु इसे देने वाले को यदि इसकी सही मात्रा और अवसर का ज्ञान न हो तो यह जहर बन जाती है.’ [पेज 173]
‘स्टीफन स्वाइग’ का मशहूर उपन्यास ‘Beware of Pity’ (हिंदी में ‘कायर’ अनुवाद-अनुराधा महेंद्र, प्रकाशक-आधार प्रकाशन) दरअसल संवेदना-करुणा-दया-सहानुभूति-प्रेम के उस निरंतर चलने वाले आलोड़न पर है, जिसके कमोबेश हम सब कैदी हैं. इसलिए यह अपने गहन अर्थ में इंसान के मनोविज्ञान का उपन्यास है.
यह अकारण नहीं था कि यह उपन्यास लिखते हुए स्टीफन स्वाइग हर हफ्ते एक बार फ्रायड से जरूर मिलते थे. और दोनों मिलकर मनुष्य के अवचेतन के अंधेरे कुएं की पड़ताल करते थे.
कहानी बताने की वैसे तो कोई जरूरत नहीं हैं क्योंकि यह कहानियों के बीच के उस ‘खाली’ स्थान की कहानी है, जहां भावनाओं-संवेदनाओं का ज्वार-भाटा अपने आदि रूप में हाहाकार करता है, लेकिन हमारे जीवन में इसकी अभिव्यक्ति समय-काल, परंपरा, आग्रह-पूर्वाग्रह के संकरे रास्तों में गुजरते हुए बेहद अनुशासित होकर बाहर आता है. और जब इस अनुशासन का बांध टूटता है तो वह घटता है, जिसकी हममें से किसी ने कल्पना नहीं की होती है.
उपन्यास प्रथम विश्वयुद्ध के ठीक पहले शुरू होता है. ऑस्ट्रो-हंगेरियन आर्मी का ‘लेफ्टिनेंट हाफमिलर’ शहर के एक बड़े रईस ‘केकेसफलवा’ के घर आयोजित पार्टी में मेहमान हैं. पार्टी अपने शबाब पर है. तभी हाफमिलर कुर्सी पर बैठी केकेसफलवा की खूबसूरत बेटी एडिथ को शिष्टाचारवश अपने साथ डांस के लिए आमंत्रित करता है. यह महज संयोग ही था. हो सकता है, वह किसी और के साथ डांस कर रही होती या फिर किसी दूसरी कुर्सी पर बैठी होती और हाफमिलर इतनी भीड़ में उसे देख ही नहीं पता.
लेकिन इसी ‘संयोग’ से कहानी का विस्फोट होता है और कहानी विस्तार पाती जाती है, जैसे बिग बैंग के विस्फोट से हमारा यूनिवर्स विस्तार पा रहा है.
हाफमिलर के प्रस्ताव पर उठ कर उसकी बांहों में आने की बजाय एडिथ कांपने लगती है और बेहद हिंस्र तरीके से रोने लगती है. पार्टी वैसे ही अचानक रुक जाती है, जैसे बिजली जाने पर टेपरिकार्डिंग में बजता गाना रुक जाता है. एडिथ विकलांग थी और नए मेहमान हाफमिलर को यह बात नहीं पता थी.
इसके बाद की कहानी किसी सस्पेंस थ्रिलर की तरह चलती है. लेकिन इस थ्रिलर में षडयंत्र-हत्या और सुराग तलाशते जासूस या पुलिस नहीं है, बल्कि भावनाओं के भंवर में डूबते-उतराते पात्रों के वे निर्णय हैं, जिनके बारे में यह कहना मुश्किल है कि वे उनके ही निर्णय हैं. और यही चीज पाठक को उपन्यास के अंत तक बांधे रखती है.
एक बानगी देखिये- ‘अचानक उसका कंपन रुक गया. वह थोड़ी तन गयी पर हिली नहीं. शायद वह मेरे स्पर्श के पीछे छिपी भावना को पहचानने की कोशिश कर रही थी- यह स्नेह का प्रदर्शन था या प्रेम का मादक स्पर्श या केवल दया की अभिव्यक्ति’
कभी-कभी उपन्यास का ‘उप-विषय’ मुख्य विषय पर भारी पड़ जाता है. जिस समय [1938] यह उपन्यास लिखा जा रहा था, उस समय यूरोप में विशेषकर जर्मनी में फासीवाद राजनीति के केंद्र में स्थापित हो चुका था. ‘वाल्टर बेंजामिन’ ने कहीं लिखा है कि फासीवाद राजनीति का सौंदर्यीकरण है. [अपने देश में भी हम इसे देख सकते हैं] और यह सौंदर्यीकरण उन दिनों यूरोप में चरम पर था. जाहिर है इस सौंदर्यीकरण का प्रमुख टारगेट सेना थी. सेना का अनुशासन, उसकी वीरता, उसका गौरव.
स्टीफन स्वाइग ने लेफ्टिनेंट हाफमिलर के जरिये इस सौंदर्यीकरण की धज्जियाँ उड़ा दी हैं. हाफमिलर खुद कहता है- ‘मैं युद्ध में इसलिए नहीं गया कि मेरे भीतर देश के लिए मर-मिटने का ज़ज्बा था, बल्कि मेरे लिए जीवन से पलायन का यहीं एक रास्ता था.’ [पेज-325]
यह हिस्सा पढ़कर ‘पीटर वाटकिंग’ की मशहूर फिल्म ‘The Diary of an Unknown Soldier’ याद आ जाती है. जिसमे एक ब्रिटिश सैनिक अपने भय, युद्ध की निरर्थकता और मोहभंग की कहानी बयां करता है.
भले ही यह उपन्यास संवेदना-दया-प्रेम-करुणा जैसे भावों की निर्मम टकराहटों की कहानी हो, लेकिन इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि यहाँ महज ‘रस का विरेचन’ ही होगा. बल्कि इस विरेचन पर निर्मम और प्रबुद्ध बातचीत ही इस उपन्यास को बड़ा बना देती है. उपन्यास के दूसरे प्रमुख पात्र एक आदर्शवादी डॉक्टर कोंडोर हैं जो दिन रात मरीजों की सेवा में ही लगे रहते है. प्रायः उन्हीं के जरिये भावना और मनुष्य के रिश्तों पर गहन बातचीत की गयी है.
एक जगह डॉ. कोंडोर कहते हैं- ‘… दया दो तरह की होती है. एक कमजोर वाली दया होती है, महज भावुक किस्म की, जो दूसरों के दुःख से दुःखी होकर उसका ह्रदय इतना अधीर हो जाता है कि वह जल्दी से जल्दी इससे छुटकारा पाना चाहता है. यह सच्ची सहानुभूति नहीं है बल्कि दूसरे के दुःख से अपनी रक्षा करने जैसा है. दूसरे प्रकार की दया भावुक नहीं बल्कि रचनात्मक होती है.
यह अपने तर्क के साथ दुःखी व्यक्ति के साथ दृढ निश्चय के साथ खड़ी होती है, अपनी पूरी ताकत के साथ और उससे परे भी. और इस प्रक्रिया में उसी तरह दुःख भी उठाती है. जब आप उसके साथ अंत तक यात्रा करते हैं, एक कष्टप्रद अंत तक, तभी और सिर्फ तभी जब आपके अंदर यह धैर्य आ जाता है, तभी आप सही माने में किसी की सच्ची मदद कर सकते हैं. यानि जब आप बलिदान के लिए तैयार हैं, तभी यह काम संभव हो सकता है.’ [पेज -240 ]
हम सभी कभी न कभी भावना के वशीभूत होकर कोई अपराध या ‘पाप’ कर बैठते हैं, फिर पछताते हैं और उन्हें भुला देना चाहते हैं. लेकिन लेखक उपन्यास की अंतिम पंक्तियों में हमे चेतावनी देते हुए कहता है- ‘किसी भी अपराध या पाप को तब तक नहीं भुलाया जा सकता, जब तक आपका ज़मीर जिंदा है.’
‘Beware of Pity’ के हिंदी अनुवाद का शीर्षक ‘कायर’ ठीक नहीं है. यह सही है कि उपन्यास में कई जगह ‘लेफ्टिनेंट हाफमिलर’ अपने को कायर कहता है, लेकिन वह उस अर्थ में कायर नहीं है, जिस अर्थ में इस शब्द का इस्तेमाल किया जाता है. तीव्र भावनात्मक द्वंद में सही ‘पोजीशन’ न ले पाने के कारण वह अपने को कायर कहता है.
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