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मरी चिरैया

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एक मरी हुई चिरैया
मेरे पांव के सामने पड़ी है
अगला कदम उठाने के पहले
हज़ार बार सोचना है

हर बार ऐसा नहीं होता कि
अतिथि
तुम्हारे दरवाज़े पर आ कर
दम तोड़ दे
और तुम्हारे हिस्से रह जाए
उसके आने के कारण पर
उधेड़ बुन करते हुए
दिन काट लेना

जैसे कोई अकारण
बिन बुलाए आ जाता है
और कहता है
बहुत दिनों से उसे तुमसे मिलने का मन था
बस यूं ही
उसी तरह कोई अकारण चला भी जाता है
यहां से

फ़िलहाल
मैं सोच रहा हूं कि
मेरे सामने पड़ी
मरी हुई चिरैया के उपर
अपने शरीर का सारा बोझ
डाल दूं या नहीं

क्या फ़र्क़ पड़ेगा अगर
उसके चमकते हुए, लेकिन
मरी हुई डैनों को
रौंद जाऊं मैं

क्या फ़र्क़ पड़ेगा अगर
आसमान की तरफ़ उठी
उसकी खुली लेकिन निर्जीव आंखें
और खुले हुए चोंच
मेरे शरीर के बोझ तले दब कर
कुछ और विस्फारित हो जाए
जैसे, छर्रे की मार से माथे से
छिटक कर
धरती पर बिखर जाता है भेजा

आख़िर मरी हुई चिरैया ही तो है
क्या फ़र्क़ पड़ता है कि कभी
यही चिरैया गाती थी
और बीट करती थी
मंदिर के माथे पर
और राज प्रासाद के घड़ियालों पर

राज पथ के किनारे उगे पेड़ों पर
फुदकती हुई चिरैया ने देखा था
कई गणतंत्र दिवस की झांकियां
जीवित रहते हुए जिसने
शक्ति का इतना प्रदर्शन देख लिया
क्या मरने के बाद
एक मेरे शरीर का बोझ नहीं संभाल पाएगी

बेशक उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा
लेकिन, मुझे पड़ेगा
मैं
मृत्यु से सौम्य, शांत हुए
एक अक्षुण्ण काया को
जला सकता हूं
दफ़ना सकता हूं
पानी में बहा सकता हूं
मीनारों पर टांग सकता हूं
लेकिन
अपने पैरों तले रौंद नहीं सकता

मैं जानता हूं कि
मरी हुई चिरैया आजीवन मेरे साथ रहेंगी
मैं जब भी घर लौटूंगा
और काग़ज़ कलम के मुख़ातिब रहूंगा
वही मरी हुई चिरैया
सामने की खिड़की के बाहर
पेड़ पर पड़ी मिलेगी
वही पेड़ जो मुझे रोज़ अंगूठा दिखाता है
अपनी जगह खड़े खड़े

और
हिल डुल नहीं पाता मैं अपनी जगह से

मरी हुई चिरैया की तरह
जमीन से उठे मेरे पैर की तरह

किसी निष्कर्ष तक पहुंचने की जल्दी
कभी नहीं रही
धनुष पर चढ़े वाण की तरह
जो कभी चला ही नहीं

सभी ज़िंदा हैं जैसे
मौत से मिली
अग्रिम ज़मानत पा कर

  • सुब्रतो चटर्जी

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