किसी भी देश की नई पीढ़ी जब अपने देश का इतिहास पढ़ती है तो उसे अपने पूर्वजों के बारे में जानकारी मिलती है। आज हम जब भारत का इतिहास पढ़ते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि भारत कई सदियों तक विदेशी आक्रमणकारियों (ईरानी, शक, कुषाण, हूण, पहलव, यवन, मुगल, पुर्तगाली, डच, अंग्रेज, फ्रांसीसी आदि) के हाथों लुटता-पिटता रहा है और गुलाम बनता रहा है. हालांकि बीच-बीच में हमारे वीर योद्धाओं का संघर्ष थोड़ा संतोष अवश्य देता है. यह सब जानकर बहुत दु:ख होता है कि यह संघर्ष भी हमें सदियों की गुलामी से नहीं बचा सका.
पराजयों की यह कहानी हमारी आने वाली हर पीढ़ी सदैव पढ़ती रहेगी. यह स्वाभाविक है कि इतिहास पढ़कर हमारा मनोबल गिर सकता है. मेरे अनुसार, हमें अपने इतिहास को पढ़कर हताश एवं निराश नहीं होना चाहिए बल्कि सबक लेना चाहिए. हमें यह विचार करना चाहिए कि हमारी हारों के कारण क्या रहे ? ताकि भविष्य में ऐसी गलतियों की पुनरावृत्ति से बचा जा सके.
इतिहास के तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों के बाद, तमाम संघर्षों के बाद आज भारत के लोग 21वीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं, बल्कि यह कहें कि इस नई सदी में भी चौथाई सदी हम जी चुके हैं. आज भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी आदि समुदायों के लगभग 140 करोड़ लोग रहते हैं. साम्राज्यवाद का युग बीत चुका है. अब हम लोकतांत्रिक युग में रहते हैं, जिसका आधार स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व है. अब हम सबको मिलकर भारत को एक समृद्धशाली और ताकतवर देश बनाना है. हमें इस बहस में नहीं पड़ना है कि कौन मूलनिवासी है और कौन विदेशी. जो आज भारत में रह रहा है और भारत से प्रेम करता है, वह भारतीय है. भारतीयता से बड़ा और कोई तमगा हमें नहीं चाहिए.
आगे हम बिल्कुल तटस्थ भाव से इतिहास में भारत की पराजयों के मुख्य कारणों को पहचानने का प्रयास करेंगे. किसी व्यक्ति, समूह, जाति, वर्ग, लिंग, क्षेत्र, सम्प्रदाय, धर्म, देश आदि को नीचा दिखाने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं है. मेरा यह लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 (क) में वर्णित नागरिकों के मौलिक कर्तव्य की पूर्ति का एक छोटा-सा प्रयास है जिसमें कहा गया है – ‘भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा विकास की भावना का विकास करे.’
इतिहास में भारत की पराजयों के मुख्य कारण
[1] वर्ण-व्यवस्था
हम जानते हैं कि हिंदू धार्मिक ग्रंथों में हिंदू समाज को चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में बांटा गया है. वर्णों को भी अनेक जातियों और उपजातियों में बांटा गया. धर्म ग्रंथों के आदेशों द्वारा सभी वर्णों और जातियों के कार्य निश्चित कर दिए गए. न सिर्फ एक वर्ण और जाति द्वारा दूसरे वर्ण और जाति के कार्य को करना प्रतिबंधित कर दिया गया बल्कि व्यवहार संबंधी अनेक अमानवीय प्रतिबंध लगा दिए गए. सर्वोच्च वर्ण ब्राह्मण का कार्य यज्ञ करना, शिक्षा देना और दान लेना, दूसरे वर्ण क्षत्रिय का कार्य युद्ध करना और राज्य की रक्षा करना, तीसरे वर्ण वैश्य का कार्य व्यापार, व्यवसाय, कृषि, पशुपालन आदि करना, चौथे और संख्या में सबसे बड़े वर्ण शूद्र का कार्य उपरोक्त तीनों वर्णों की सेवा करना नियत किया गया.
युद्ध के समय शस्त्र उठाने का कार्य केवल क्षत्रिय वर्ण का था, शेष सारी जनता केवल मूक दर्शक की भूमिका में थी. धर्म ग्रंथों के आदेश के अनुसार अन्य तीनों वर्ण (ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र) द्वारा शस्त्र उठाना अधर्म माना जाता था. संपूर्ण समाज का केवल 10% भाग (क्षत्रिय) ही युद्ध में भाग लेता था और उसमें से भी महिलाएं, बच्चे और वृद्ध युद्ध में भाग लेने की स्थिति में नहीं होते थे. इसका अर्थ हुआ कि राज्य की रक्षा का कार्य बहुत थोड़े से लोगों के हाथों में था. धर्मग्रंथों में कहीं भी यह उल्लेख नहीं मिलता कि विदेशी आक्रमण के समय अथवा राज्य की रक्षा के लिए ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रों को भी शस्त्र उठाकर लड़ना चाहिए.
ब्राह्मण और वैश्यों को शस्त्र उठाने का आदेश कुछ विशेष परिस्थितियों में मिलता है लेकिन शूद्र को शस्त्र उठाने का अधिकार कभी नहीं मिला. शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण और वैश्य जिन विशेष परिस्थितियों में शस्त्र उठा सकता था, उनका उल्लेख निम्न प्रकार है – जब धर्म को खतरा हो (अर्थात धार्मिक ग्रंथों के आदेश को खतरा हो), वर्ण व्यवस्था टूटने लगी हो (अर्थात कोई वर्ण शास्त्रों द्वारा वर्ण विशेष हेतु निर्धारित नियमावली का उल्लंघन करने लगे), जब वर्णसंकरत्व फैलने वाला हो (अर्थात अंतरजातीय विवाह होने लगें), दक्षिणा के द्रव्य, स्त्रियों, ब्राह्मणों और गौ रक्षा के लिए. (देखें, मनुस्मृति 8/348-49), (वशिष्ठ स्मृति 3/24).
किसी भी समाज में वर्ग पाए जाना एक स्वाभाविक स्थिति है. संसार के अन्य समाजों / धर्मों में भी वर्ग पाए जाते हैं. हिंदू समाज के वर्ण और अन्य समाजों के वर्ग में अंतर सिर्फ इतना है कि हिंदू समाज के वर्ण का आधार जन्म है जबकि अन्य समाजों के वर्ग का आधार कर्म है. उदाहरण के लिए, समाज में यदि वर्ण व्यवस्था की बाध्यताएं लागू न होतीं तो जो एक डॉ. अम्बेडकर हमें बीसवीं सदी में मिले, ऐसे अनेक डॉ. अम्बेडकर हमें सदियों पहले मिल गए होते.
[2] हिंदू सैनिकों का छुईमुईपन
दुनिया में सब जगह जब युद्धबंदी शत्रु के यहां से वापस आता है तो उसके देश के लोग, उसके वंश और कबीले के लोग बांहे फैलाकर उसका स्वागत करते हैं और गले लगाते हैं लेकिन हिंदू धर्म का कहना है कि जो भी विधर्मियों अर्थात मुसलमानों की कैद में रह ले, वह अपवित्र हो जाता है. न उसके हाथ से कोई खाएगा, न उससे कोई रोटी-बेटी का संबंध रखेगा. उसे जाति बहिष्कृत होकर उपेक्षित, घृणित और निंदनीय जीवन जीना होगा. इस रोमहर्षक अंधे भविष्य की कल्पना से हिंदू सैनिक के पसीने छूट जाते थे और वह या तो मैदान से भाग खड़ा होता था या स्वयं को गाजर मूली की तरह कटवाकर छुटकारा पा लेता था.
मुस्लिम सैनिक को युद्ध के दौरान संतोष होता था कि वह इस्लाम के लिए कुछ कर रहा है लेकिन हिंदू सैनिक को चिंता रहती थी कि कहीं वह बंदी बन कर हिंदू धर्म से भ्रष्ट न हो जाए. हिंदू शास्त्रों के अनुसार, विदेशी आक्रांता (म्लेच्छ) अछूत थे. जो हिंदू सैनिक आक्रमणकारियों द्वारा बंदी बना लिए जाते थे, वे उस कैद से छूटकर वापस अपने वतन आने का विचार नहीं कर सकते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि अब उन्हें धर्मभ्रष्ट माना जाएगा और उन्हें पुराना सम्मान वापस नहीं मिल पाएगा. इसलिए वे इस्लाम कबूल करना या आत्महत्या करना ही उचित समझते थे.
एक उदाहरण के रूप में राजा जयपाल (सन 997) को ही लें. महमूद गजनवी ने राजा जयपाल को पराजित कर इस शर्त पर छोड़ दिया कि वह (जयपाल) उसे (महमूद गजनवी) मालिक समझेगा और प्रतिवर्ष वार्षिक कर देगा. लेकिन विधर्मी (म्लेच्छ) संपर्क से दूषित जयपाल को हिंदुओं ने इतना जलील किया कि उसने तंग आकर आग में कूदकर आत्महत्या कर ली.
11वीं सदी के यात्री अलबरूनी ने भी हिंदुओं के इस छुईमुईपन के बारे में अपनी पुस्तक ‘अलबरूनी का भारत’ में भी उल्लेख किया है. उसने लिखा है कि बंदी को गाय के गोबर, मूत्र और दूध में दिनों की नियत संख्या तक दबाए रखने वाले कठोर प्रायश्चित के बाद भी वह बंदी पुनः अपनी पूर्व सामाजिक स्थिति प्राप्त नहीं कर पाता है.
हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक और भूतपूर्व क्रांतिकारी यशपाल ने अपने उपन्यास ‘झूठा सच’ में लिखा है कि 1947 के काले और सांप्रदायिकता के घातक विष भरे दिनों में अपहृत युवतियों को कैसे उनके हिंदू माता-पिताओं ने अपने घरों की देहरियां तक लांघने नहीं दी थीं, जब वे जैसे तैसे अपहरणकर्ता विधर्मियों के चंगुल से छूटकर वापस आईं थी.
न तो हिंदू समाज की बंदी बन चुके सैनिकों से शत्रुता थी और न अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छूटकर आईं उन युवतियों के माता-पिता में अपनी संतान के प्रति प्रेम कम था. यह सारा खेल था धर्म और धर्मग्रंथों का. उदाहरण के लिए –
- मनुस्मृति (11/190) के अनुसार – ‘जिन्होंने प्रायश्चित कर लिया हो, उनसे भी किसी प्रकार का संपर्क न रखें.’
- याज्ञवल्क्यस्मृति (3/298) के अनुसार – ‘प्रायश्चित कर लेने से जिनके पाप कमजोर पड़ गए हों, उन लोगों से भी सामाजिक संबंध न रखें.’
- पं. कालूराम शास्त्री रचित ‘शुद्धि निर्णय ‘ 1926 ई. के पृष्ठ 07 के अनुसार – ‘प्रायश्चित कर लेने पर भी व्यवहार बंद रहेगा.’
- पं. शिवदत्त सत्ती शर्मा रचित ‘शुद्धिविवेचन’ 1914 ई. में पृष्ठ 10 के अनुसार- ‘तत्वों को जानने वाले विद्वानों ने कहा है कि एक यवन 1000 चांडालों के समान होता है. यवन से नीच कोई हो ही नहीं सकता.’
[3] अंधविश्वास
अंधविश्वास की कुछ घटनाओं का उल्लेख निम्न प्रकार है –
- सिंध के राजा दाहिर (7वीं शताब्दी) की सेना को यह अंधविश्वास था कि यदि हमारे मंदिर का झंडा गिर पड़ेगा तो हमारी हार निश्चित है. उनका मानना था कि झण्डा गिरने का मतलब है कि देवी कुपित है. जब आक्रमणकारी कासिम को इस अंधविश्वास की जानकारी हुई तो उसकी सेना ने मंदिर पर लगा झंडा गिरा दिया. यह देखकर दाहिर के सैनिकों ने साहस छोड़ दिया और युद्ध हार गए.
- सन् 1025 में जब महमूद गजनवी सोमनाथ पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ रहा था तो रास्ते में पड़ने वाले हिंदू राजाओं की सेना ने इस आशा में गजनवी पर आक्रमण नहीं किया कि सोम भगवान से आशीर्वाद प्राप्त एवं रक्षित सोमनाथ शहर की सेना महमूद और उसकी सेना का संहार कर देगी. जब महमूद की सेना सोमनाथ शहर पहुंची तो वहां के लोग और अधिक अंधविश्वासी निकले. इतिहासकार इब्न असीर ने लिखा है – लोग किले की दीवारों पर बैठे इस विचार से प्रसन्न हो रहे थे कि ये दुस्साहसी मुसलमान अभी चंद मिनटों में नष्ट हो जाएंगे. वे मुसलमानों को बता रहे थे कि हमारा देवता तुम्हारे एकएक व्यक्ति को नष्ट कर देगा. उसके बाद जो हुआ उसकी जानकारी सबको है.
- डॉ रामगोपाल मिश्र अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि मुल्तान से विदेशी आक्रांताओं को सन् 951 के आसपास मारकर भगाया जा सकता था लेकिन वहां भी अंधविश्वास आडे आया. जब भी अरबों से हिंदुओं का युद्ध होता तो अरब सैनिक हिंदुओं की एक पूजनीय मूर्ति आगे कर देते और उसे नष्ट करने की धमकी देते थे तो हिंदू सेना लौट जाती थी.
- सन् 1192 में तराइन के मैदान में पृथ्वीराज चौहान की सेना शौच, स्नान, संध्या वंदन इत्यादि में व्यस्त थी, तब तक गौरी ने आक्रमण कर दिया. बिना स्नान और संध्या वंदन के हिंदू सैनिक भोजन नहीं करते थे इसलिए उन्हें बिना खाए-पिए ही लड़ना पड़ा. आखिर भूखे सैनिक कब तक लड़ते ! इस घटना का उल्लेख करते हुए यदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक ‘भारत का सैन्य इतिहास’ के पृष्ठ 41 पर लिखा है, ‘कठोर जाति नियमों के कारण वे युद्ध में भी खा पीकर तरोताजा नहीं हो सकते थे.’
- महमूद गजनवी (सन् 1024) लगभग पांच लाख भारतीय नर नारियों को गुलाम बना कर गजनी ले गया. तैमूर लंग (सन् 1398) एक लाख लोगों को कैदी बनाकर ले गया. इतने बड़े समूह की नपुंसकता का कारण हम तरह-तरह के अंधविश्वासों को ही मानेंगे.
- ऐसी घटनाओं का भी उल्लेख मिलता है जब विदेशी आक्रांता अपनी सेना के आगे गायों के झुंड को चलाते थे. हिंदू सेना गायों पर वार नहीं करती थी और लगातार पीछे हटती जाती थी.
- रामायण के अरण्य काण्ड (सर्ग 23) में युद्ध संबंधी अपशकुनों का उल्लेख है. वहां लिखा है कि रथ के घोड़े का अपने आप गिर पड़ना, सूर्य के चारों ओर एक श्याम घेरा बन जाना, गीध का रथ की ध्वजा पर बैठना, मांसाहारी पक्षियों का भयंकर शब्द करना, कंक पक्षी तथा गीध का रोना, प्रचंड वायु का बहना, दिन के समय जुगनू का चमकना, योद्धा की बाईं भुजा का फडफडाना आदि अशुभ शकुन हैं, जो हार की सूचना देते हैं.
- महाभारत के उद्योग पर्व में (अ. 151) में आता है कि युद्धक्षेत्र में पहुंचने के बावजूद यदि घोड़े और हाथी उत्तेजित न हों, घोड़े बारबार मूत्र और लीद करें और झंडे पर यदि कौआ बैठ जाए तो समझना चाहिए कि ईश्वर का प्रकोप है. यदि गीध, बगुला, बाज या मधुमक्खियां किसी सैनिक का पीछा करें तो भी उसका परिणाम अशुभ होता है.
- अधिक मान्यता प्राप्त ग्रंथों में भी शकुन और अपशकुन जैसे अंधविश्वासों का वर्णन मिलता है. स्वाभाविक है कि युद्ध के समय सैनिकों का ध्यान रणनीति पर न होकर शकुन और अपशकुन पर अधिक होता था.
[4] अर्थशास्त्र का आत्मघाती ज्ञान
कौटिल्य उर्फ चाणक्य ने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में एक पड़ोसी राज्य को दूसरे पड़ोसी राज्य का स्वाभाविक शत्रु बताया है. उसने कभी भी पड़ोसी राज्यों को आपस में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाने के लिए प्रेरित नहीं किया. इस तरह की शिक्षा ने भारत में सदैव पारस्परिक विद्वेष का वातावरण बनाए रखा. पड़ोसी राज्य एक दूसरे के सदैव शत्रु बने रहे. इस कारण वे सदैव अपने पड़ोसी राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र करते रहे. भारत के राज्य कभी भी सामूहिक रूप से एकजुट होकर विदेशी आक्रांताओं का मुकाबला नहीं कर सके.
अपने पड़ोसी को नीचा दिखाने की होड़ में बहुत से राजाओं ने विदेशी आक्रांताओं को अपने पड़ोसी राज्य पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया. बाद में उसी आक्रांता के हाथों स्वयं भी पराजित हुए और भारत की भोलीभाली एवं निर्दोष जनता को सदियों की गुलामी में झोंक दिया. पोरस (पुरु) द्वारा सिंकदर का सहयोग, शशिगुप्त द्वारा सिकंदर का सहयोग, गुजरात के सोलंकियों और कन्नौज के गहरवारों (राठौरों) द्वारा मौहम्मद गौरी का सहयोग, राणा सांगा द्वारा बाबर का सहयोग इसके उदाहरण हैं.
[5] चतुरंगिनी सेना का मिथ्या अभिमान और हाथी
चतुरंगिनी सेना में हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल सैनिक होते थे. यह एक दोषपूर्ण पद्धति थी. भारतीय इससे सदियों तक चिपके रहे. इसमें सबसे आगे हाथी रहते थे. युद्ध में घायल हाथियों ने अपनी ही सेना को कई युद्धों में रौंदकर जय को पराजय में बदल दिया. फिर भी भारतीयों ने अपनी रणनीति नहीं बदली.
[6] सिद्धांत और व्यवहार
युद्ध के सिद्धांत (नीति, रणनीति) का निर्माण ब्राह्मण करता था लेकिन उसे युद्ध का व्यावहारिक ज्ञान न था. युद्ध क्षत्रिय लडता था किंतु आवश्यकता के अनुसार युद्ध की रणनीति बनाने का उसे अधिकार न था. यदि युद्ध संबंधी नीति बनाने का पूर्ण अधिकार क्षत्रिय को होता तो वह एक अच्छी युद्ध रणनीति बना सकता था. कुछ उदाहरण ऐसे भी मिलते हैं जब ब्राह्मणों ने मुहूर्त देखकर (न कि परिस्थिति देखकर) राजा को आक्रमण करने का आदेश दिया था.
राजा द्वारा ब्राह्मण को रुष्ट करने के भयंकर परिणाम धर्मग्रंथों में लिखे गए ताकि राजा कभी भी ब्राह्मणों की सहमति के बिना कुछ न कर सके. मनुस्मृति का एक उदाहरण देखिए – मनुस्मृति (9/313) के अनुसार – घोर संकट में पड़े राजा को भी ब्राह्मणों को रुष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि रुष्ट ब्राह्मण सेना और वाहन सहित राजा को (शाप, तपस्या व मंत्र शक्ति से) नष्ट कर देते हैं.
काश! हमारे ब्राह्मण विदेशी आक्रांताओं से भी रुष्ट हो जाते और उनको भी शाप, मंत्र आदि से नष्ट कर सकते, तो देश बार-बार गुलाम न बनता.
[7] धर्मग्रंथों का अंधानुकरण
हिंदुओं को धर्म ने सदा यह सीख दी कि उनके सब धर्मग्रंथ ईश्वरीय हैं और उनके ऋषि मुनि ईश्वर तक पहुंचे हुए थे; अतः उनका हर कथन हर विषय में अंतिम है. उससे आगे मानवीय बुद्धि जा ही नहीं सकती. नए और विदेशी विचार के लिए हिंदुओं के यहां कोई स्थान नहीं था. आज भी उन्हीं धर्मग्रंथों को संविधान और विज्ञान से ऊपर रखने का पूरा प्रयास चल रहा है.
[8] मंदिरों में अकूत सोना-चांदी व हीरा-मोती
प्रारंभिक आक्रमणकारियों ने भारत के समृद्ध मंदिरों को निशाना बनाया. वे मंदिरों की अकूत धन-सम्पत्ति को लूटकर वापस अपने देश लौट जाते. मंदिरों की यह चकाचौंध आक्रमणकारियों को कई सदियों तक आकर्षित करती रही. ये हमारे देश का दुर्भाग्य रहा है कि जहां एक तरफ मंदिरों में तो अकूत संपत्ति थी लेकिन भारत की सीमाएं बहुत निर्बल और जनता दरिद्र थी. परमात्मा, आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, कर्मफल, पाप, पुण्य आदि के नाम पर सम्पूर्ण जनता को डराकर धार्मिक ग्रंथों में बेहद अकल्पनीय, अविश्वसनीय, अमानवीय, अनैतिक, अवैज्ञानिक बातें रचकर, वर्णव्यवस्था जैसी निकृष्ट सामाजिक व्यवस्था बनाकर देश के करोड़ों लोगों को बहुत ही निम्न जीवन स्तर जीने के लिए बाध्य किया.
राहुल सांकृत्यायन की कृति ‘वोल्गा से गंगा’ में ‘चक्रपाणि’ अध्याय में वैद्यराज चक्रपाणि कहते हैं –
‘धर्म का क्षयरोग ! हमने कितना अत्याचार किया है ? हर साल करोड़ों विधवाओं को आग में जलाया है, स्त्री-पुरुषों को पशुओं की भांति खरीद-बेच की है, देवालयों और विहारों में सोना-चांदी और हीरा-मोती के ढेर लगाकर म्लेच्छ लुटेरों को निमंत्रण दिया है और शत्रु से मिलकर मुकाबले के समय फूट में पड़े हैं. अपनी इंद्रिय-लंपटता के लिए प्रजा की पसीने की कमाई को बेदर्दी से बरबाद करते हैं.’
[9] भीमा कोरेगांव – एक सबक
अंग्रेजों ने पेशवाओं से लडने के लिए महार जाति के केवल 500 योद्धाओं को युद्ध का प्रशिक्षण दिया. यह युद्ध 01 जनवरी 1818 को महाराष्ट्र के भीमा नदी के किनारे कोरेगांव नामक स्थान पर हुआ. उन मात्र 500 प्रशिक्षित महार योद्धाओं ने पेशवाओं की 28,000 सैनिकों की फौज को धूल चटा दी.
यह घटना सबक है भारतीयों के लिए. अंग्रेजों ने हमारी ही शक्ति को हमारे ही विरुद्ध इस्तेमाल किया. हम अपनी रूढ़िवादी सोच के कारण इतिहास में धक्के खाते रहे.
[10] कुछ कृतियों के उद्धरण
प्रथम शताब्दी के ग्रीक इतिहास लेखक स्ट्रेबो का कहना है कि हिंदू लोग विज्ञानों की सही-सही जानकारी प्राप्त करने की ओर ध्यान नहीं देते, कुछ विज्ञानों, जैसे सैन्य विज्ञान में ज्यादा प्रशिक्षण प्राप्त करने को पाप समझते हैं.
राहुल सांकृत्यायन की कृति ‘वोल्गा से गंगा’ के ‘चक्रपाणि’ नामक अध्याय में वर्णित है – हर्ष को मरे सौ वर्ष भी नहीं गुजरे थे कि सिंध इस्लाम के शासन में चला गया. बनारस और सोमनाथ तक के भारत को इस्लामी तलवार का तजुर्बा हो चुका था. इस नए खतरे से बचने के लिए नए तरीके की जरूरत थी; किंतु हिंदू अपने पुराने ढर्रे को छोड़ने को तैयार न थे. सारे देश के लडने के लिए तैयार होने की जगह वही मुट्ठीभर राजपूत (पुराने क्षत्रिय तथा शादी-ब्याह करके इनमें शामिल हो जाने वाले शक, यवन, गुर्जर आदि) भारत के सैनिक थे, जिन्हें भीतरी दुश्मनों से ही फुर्सत न थी और राजवंशों की नई-पुरानी शत्रुताओं के कारण आखिर तक भी वह आपस में मिलने के लिए तैयार न थे.
इसी अध्याय में कन्नौज के राजा जयचंद का पुत्र हरिश्चंद्र आचार्य चक्रपाणि से मोहम्मद गौरी के आक्रमण के संबंध में हो रही अपनी बातचीत में कहता है कि – ‘आज मेरे हाथ में होता, तो सारे हिन्दू तरुणों को खड्गधारी बना देता.’ फिर आचार्य चक्रपाणि आगे कहते हैं कि – ‘किंतु यह पीढ़ियों का दोष है, कुमार ! जिसने सिर्फ राजपुत्रों को ही युद्ध की जिम्मेदारी दे रखी है.’ चक्रपाणि आगे कहते हैं कि – ‘जात-पांत सबसे बड़ी रुकावट है. पूर्वजों के अच्छे कार्यों का अभिमान दूसरी चीज है; किंतु हिंदुओं को हजारों टुकड़ों में सदा के लिए बांट देना महापाप है.’ फिर राजकुमार आगे कहता है कि – ‘आज इसका फल भोगना पड़ रहा है. काबुल अब हिंदुओं का न रहा, लाहौर गया और अब दिल्ली की बारी है.’
निष्कर्ष
इतिहास तो इतिहास होता है. संकुचित सोच के लोग इतिहास पर बात नहीं करना चाहते, साथ ही इतिहास से सबक भी नहीं लेना चाहते, जबकि विस्तृत सोच वाले लोग इतिहास की तार्किक समीक्षा करते हैं और साथ ही उससे सबक भी लेते हैं. हमें भी विस्तृत सोच के साथ इतिहास का अध्ययन करना है. हमें आने वाली पीढ़ियों को भी विस्तृत सोच के साथ इतिहास अध्ययन हेतु प्रेरित करना है
संदर्भ ग्रंथ
इस लेख को लिखने में डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात जी की दो पुस्तकें ‘हिंदू धर्म ?’ और ‘हिंदू इतिहास ?’ बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं. राहुल सांकृत्यायन जी की पुस्तक ‘वोल्गा से गंगा’ से भी कुछ उदाहरण दिए हैं.
- शैलेन्द्र लोधी, कासगंज
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