इन दिनों
तुमसे बात करने के लिए
एक दुभाषिये की ज़रूरत होती है
मेरा कहा गया हरेक शब्द
खो देता है अपना मूल अर्थ
तुम तक आते आते
तुम्हारी अवाक् आंखें तलाशने लगती हैं
वो परिंदा जो मेरी बात को तुम्हें
तुम्हारी ज़ुबान में समझाए
जले हुए पुल पर टिका कर माथा
कुछ देर सोचता है सूरज
आने वाला अंधेरा हताशा है उसका
घर लौटने के समय
दबी ज़ुबान में समझा जाता है
प्रेम की भाषा विस्तृत नीलम पर पसरे
जल भूमि सा है
समय और अर्थ से परे
तुम्हारी फैली हुई बांहों के पहुंच के बाहर
और विश्रांति के पास !!
- सुब्रतो चटर्जी
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