अरुणाचल प्रदेश की हिन्दी लेखिका जोराम यालाम नाबाम के उपन्यास ‘जंगली फूल’ पर ‘अक्षरा’ पत्रिका के अक्टूबर, 2021 अंक में एक लेख प्रकाशित हुआ है. ‘अक्षरा’ पत्रिका के प्रति आभार. मैंने देखा कि पत्रिका में लेख को प्रकाशित करते हुए कुछ-कुछ हिस्सों और वाक्यों को हटा दिया गया है. संभवतः लेख के आकार को कुछ छोटा करने के लिए ऐसा किया गया है इसलिए यहां हम मूल लेख को आपसे साझा कर रहे हैं – सम्पादक
अरुणाचल प्रदेश की हिन्दी लेखिका जोराम यालाम नाबाम का पहला और अब तक का अकेला उपन्यास है- ‘जंगली फूल.’ यह उपन्यास पहले यश पब्लिकेशंस से 2018 में प्रकाशित हुआ था. बाद में साल 2019 में अनुज्ञा बुक्स ने इसे छापा है. इस उपन्यास के लिए लेखिका को वर्ष 2019 का ‘अयोध्याप्रसाद खत्री सम्मान’ भी मिला है. यह उपन्यास अरुणाचल प्रदेश की न्यीशी जनजाति या कहें तानी समुदाय (जिसमें वहां की पांच जनजातियां शामिल हैं) के बीच प्रचलित एक मिथकीय चरित्र ‘तानी’ को आधार बनाकर लिखा गया है. एक तरह से यह उपन्यास तानी के चरित्र की पुनर्रचना का प्रयास है.
यालाम ने रचनात्मक लेखन की शुरुआत कहानियों से की है. ‘साक्षी है पीपल’ नाम का कहानी संग्रह 2013 में प्रकाशित हुआ, जिसमें कुल 8 कहानियां हैं. लगभग सभी कहानियां स्त्री के अस्तित्व, उसकी पीड़ा, उसके संघर्ष, स्वप्न और मुक्ति की कहानियां हैं. यालाम के उपन्यास को उनकी कहानियों के साथ पढ़ने पर लेखिका की रचना प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. यालाम की रचनाओं के पाठक को निश्चित तौर पर यह बात महसूस होगी कि इनकी कहानियां इनके उपन्यास की पेशबंदी कर देती हैं.
कहानियों में जगह-जगह आबोतानी का उल्लेख मिलता है. तानी वंश के रेत कणों के समान फैलने का उल्लेख भी पहली कहानी में ही मौजूद है. इसके अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है उनकी रचनाशीलता का वह है स्त्री. स्त्री की पीड़ा, स्वप्न, संघर्ष और मुक्ति के तमाम प्रसंग जो यालाम की कहानियों में आए हैं, ‘जंगली फूल’ उपन्यास में वे और सघन रूप में मौजूद हैं. ऐसा लगता है मानो यालाम की कहानियां ही घनीभूत होकर उपन्यास के रूप में सामने आई हैं.
2013 में कहानी संग्रह के प्रकाशन के बाद यालाम ने ‘तानी मोमेन’ नाम से तानी से संबंधित लोक कथाओं का संकलन भी तैयार किया. विवेक नाबाम द्वारा किया गया इसका अंग्रेजी अनुवाद 2014 में प्रकाशित हुआ. इस संकलन का हिन्दी संस्करण अभी प्रकाशित नहीं है. लोक कथाओं के इस संकलन को भी ‘जंगली फूल’ उपन्यास की तैयारी के रूप में देखना चाहिए.
‘जंगली फूल’ उपन्यास एक कबीले के संगठित होने की यात्रा है जिसका नेतृत्व तानी करता है. अरुणाचल प्रदेश के तानी समुदाय के लोग आबोतानी को ‘आदि पिता’ मानते हैं. तानी से जुड़ी ढेरों लोक कथाएं उस समाज में मौजूद हैं लेकिन उन लोक कथाओं में तानी का जो रूप सामने आया है वह सकारात्मक नहीं है. वहां तानी स्त्री-लोलुप और बलात्कारी के रूप में दिखाई पड़ता है. उसका एक ही उद्देश्य है अपना वंश बढ़ाना और इसके लिए वह अपनी शक्ति का उपयोग स्त्रियों पर करता है.
यालाम अपने उपन्यास में तानी की इस छवि को अस्वीकृत करती हैं. लेखिका की सहज जिज्ञासा है कि ‘क्या वंश बढ़ा लेने मात्र से ही कोई अमर हो जाता है ? कोई तो वजह रही होगी जिसके कारण आज तक लोग उसके नाम को भूल नहीं पाए हैं ! कोई तो ऐसी वजह रही होगी जिसके चलते लोगों ने उसे पिता कहा होगा.’ (जंगली फूल, पृ. 3) अपनी इसी सहज जिज्ञासा के तईं यालाम तानी के चरित्र को पुनर्सृजित करने की कोशिश करती हैं और इस प्रक्रिया में वह तानी के भीतर की मनुष्यता, उसके राग, अपने कबीले और पूरी मानवता के लिए उसके प्रेम और स्त्री के लिए उसके सम्मान को उसके चरित्र के तौर पर उभारती हैं.
लेखिका तानी नाम के उस जंगली फूल की खुशबू को ढूंढना चाहती है, जिसे अब तक केवल बदनामी के रंग की पहचान तक महदूद कर दिया गया था. लेखिका आंखों तक सीमित नहीं रहना चाहती, उसके दिल में उतरना चाहती है. यालाम ने दरअसल बाहर से पत्थर की तरह कठोर पर भीतर मोम की-सी मुलायमियत लिए तानी की कहानी को ‘अक्षरों को तिनका तिनका जोड़ कर’ बुना है.
तानी के आबोतानी बनने की प्रक्रिया शुरू होती है उसकी मां द्वारा उसे सौंपी गई महान जिम्मेदारी के साथ. उसकी मां उससे कहती है ‘जब कभी तुम्हें महसूस होने लगे कि जैसे तुम स्वयं सब की मां हो, कोई भी रोए तो तुम्हें नींद न आए… तब उस समय संसार तुम्हें आबोतानी कहकर पुकारेगा. तानी वंश का पिता कहलाओगे. …तुम्हारे कई शक्तिशाली पूर्वज भी हुए… लेकिन कोई भी ऐसा न हुआ, जिसने इनकी भूख को हमेशा के लिए मिटा दिया हो.’ (पृ. 11) तानी की मां ने तानी को इस संसार से भूख को मिटा देने की महान जिम्मेदारी सौंपी थी. साथ ही ‘तानी वंश रेत के कणों की तरह फैले’ (पृ. 14) – यह जिम्मेदारी भी उसे सौंपी थी.
कबीलों में अपने अस्तित्व, मर्यादा, शक्ति-प्रदर्शन, आदि को लेकर आपसी हिंसक झगड़े होते रहते थे और इसमें हत्याएं भी होती थीं. तानी और उसकी बहन दोलियांग- ‘दोनों का सपना था- एक विश्राममय समाज का निर्माण करना.’ (पृ. 18) तानी अपना यह स्वप्न पूरा करने के लिए तमाम तरह के जोखिम उठाता है और अंततः अपने और आसपास के कबीलों को धान की खेती करना सिखा कर एक शस्त्रविहीन समाज के स्वप्न को साकार होता हुआ देखता है. यह उपन्यास तानी के ‘पिता तानी’ बनने की पूरी प्रक्रिया को उद्घाटित करता हुआ आगे बढ़ता है. इसी प्रक्रिया में आदिवासी समाज के मूल्य, तानी और उपन्यास के अन्य स्त्री पात्रों के प्रेम, विद्रोह आदि दिखाई पड़ते हैं.
‘जंगली फूल’ उपन्यास के संदर्भ में आदिवासीयत, प्रेम और स्त्री- ये तीन कोण हैं, जहां से इस उपन्यास को देखा जाना चाहिए. आदिवासीयत का मतलब है- जीवन के प्रति आदिवासी नजरिया. इस उपन्यास में जो जंगलीपन है वही दरअसल आदिवासी नजरिया है. जीवन के प्रति, मनुष्यता के प्रति एक सहज, स्वाभाविक, उन्मुक्त, किसी भी किस्म के बनावटीपन से सर्वथा मुक्त, अपने नियमों से अनुशासित, खुद को और सबको मुक्त देखने वाला नजरिया. यही आदिवासी नजरिया है और इसी को जंगलीपन के रूप में लेखिका ने इस उपन्यास में रेखांकित किया है. उपन्यास की भूमिका में यालाम ने बहुत ही काव्यात्मक ढंग से जंगल और जंगलीपन की व्याख्या की है.
यह अकारण नहीं है कि इस उपन्यास के जो तीन सबसे सशक्त पात्र हैं- तानी, सिमांग और जीत- इन तीनों ही पात्रों के चरित्र में लेखिका इस जंगलीपन को रेखांकित करती हैं. तानी के बारे में भूमिका में ही वे लिखती हैं- ‘तानी जंगली फूल था! तभी तो वह पिता कहलाया ! तभी तो उसने प्रेम को जीया ! कोई रुकावट, कोई नियम, कोई डर उसे रोक नहीं पाया.’ (पृ. 4) इसके अलावा उपन्यास के एक अन्य प्रसंग में भी लेखिका तानी के बारे में लिखती हैं- ‘एक रजनीगंधा किसी समय, किसी जंगल में खिली थी. उसकी खुशबू रात-दिन महकती थी…जंगल में खिला एक वही फूल ‘आबोतानी’ कहलाया. वह तानी था…!’ (पृ. 159)
इसी तरह तानी को सिमांग के बारे में बताते हुए हर्ब सिमांग को ‘पागल और जंगली’ (पृ. 60) कहता है. उपन्यास के एक अन्य प्रसंग में सिमांग को याद करता हुआ तानी आत्मालाप करता है- ‘उसने उस जंगल-सी आजाद सिमांग को दिल में बसाने की हिम्मत तो की! है न !! जंगल-सी आजाद…प्रेम के तानों-बानों से बनी एक खतरनाक जंगली फूल.’ (पृ. 160)
जीत, जो अंततः तानी की पत्नी बनती है, भी अपने बारे में अपने विवाह वाले प्रसंग में कहती है कि ‘हम प्रेम की संतान हैं ! प्रेम के गर्भ से हमने जन्म लिया है ! प्रेम में ही सांसें लेते हैं ! आजादी की संतान हैं हम ! आजादी में प्रेम पलता है और फूलता है ! बनावटीपन से दूर हम जंगली फूल हैं ! सहज, स्वाभाविक !’ (पृ. 182) जीत का यह कथन जीवन और प्रेम के प्रति आदिवासीयत के नजरिए को स्पष्ट कर देता है. इस आदिवासी दृष्टि के केंद्र में है-आजादी ! ऐसी आजादी जो किसी भी बाहरी बंधन को स्वीकार नहीं करता, लेकिन जिसमें अपना खुद का एक अनुशासन है, जीवन की अपनी शर्तें हैं.
‘जंगली फूल’ उपन्यास यूं तो तानी के नेतृत्व में उसके कबीले की विकास-यात्रा की कहानी है, लेकिन इस उपन्यास का स्त्री-पक्ष बहुत ही महत्वपूर्ण है. असल में स्त्री यालाम की रचनात्मकता की धुरि है. यालाम की कहानियों से लेकर इस उपन्यास तक में स्त्री प्रश्नों के प्रति उनकी संवेदनशीलता पूरी गंभीरता और तन्मयता के साथ दिखाई पड़ती है. उनकी तमाम कहानियों और इस उपन्यास में स्त्री अलग-अलग रूप में दिखाई पड़ती है.
यालाम के यहां स्त्री के रूप अलग-अलग हैं, लेकिन उसकी पीड़ा, उसकी छटपटाहट और समाज में उसकी स्थिति का चित्रण जिस तरह से इन तमाम रचनाओं में हुआ है, वह यालाम की तमाम रचनाओं को एक सूत्र में पिरो देने का काम करता है. यालाम की तमाम रचनाओं में आदिवासी समाज में स्त्री के शोषण के प्रसंग भरे हुए हैं. हम कई बार ऐसा समझते हैं कि पूर्वोत्तर का जो आदिवासी समाज है, वहां स्त्रियां बहुत स्वतंत्र हैं, उन पर किसी तरह की कोई बंदिश नहीं है.
हम पूर्वोत्तर के आदिवासी समाज में ऑपरेट हो रहे सामंतवाद को देख नहीं पाते हैं और इसीलिए हम पूर्वोत्तर के प्रति एक अलग ढंग के रोमांटिक नजरिए का शिकार हो जाते हैं. यालाम के इस उपन्यास में एक प्रसंग आता है, जिसमें कहा गया है कि ‘पहाड़ दूर से सुंदर लगते हैं.’ पूर्वोत्तर को लेकर आम भारतीयों का जो नजरिया है वह पहाड़ को दूर से देखने वालों का ही नजरिया है. लेकिन पूर्वोत्तर के समाज को अगर आप नजदीक से देखेंगे, वहां रहकर वहां के समाज को देखेंगे, तो आपको मालूम होगा कि वहाँ की स्त्रियों पर भी तमाम तरह की बंदिशें हैं. उसका स्वरूप थोड़ा-बहुत अलग ज़रूर है, लेकिन बंदिशें तो वहां भी हैं.
हम प्रायः जिन समाजों को बहुत कम जानते हैं, उनके बारे में एक धारणा बना लेते हैं. किसी समाज को दूर से देख कर हम जो एक धारणा बना लेते हैं, वह धारणा तब टूटती है जब हम स्वयं उस समाज में रहकर उसे देखें और वहां की वास्तविकताओं से परिचित हों. बहरहाल, पूर्वोत्तर के समाज की स्त्रियाँ भी पुरुषवाद से कमोबेश उसी तरह पीड़ित हैं, जिस तरह से हमारा शेष भारतीय समाज पीड़ित है.
पूर्वोत्तर के समाज में अंततः परिवार की पूरी जिम्मेदारी स्त्री के ऊपर है. इस रूप में पूर्वोत्तर की स्त्रियों का शोषण और उनका संघर्ष शेष भारतीय स्त्रियों की तुलना में कहीं ज्यादा है, क्योंकि उनके ऊपर घर की जिम्मेदारी के साथ-साथ बाहर की जिम्मेदारी भी है. विवाह के असफल हो जाने का दर यहां बहुत ज्यादा है और संबंध-विच्छेद के बाद बच्चों की ज़िम्मेदारी अंततः मां पर ही होती है, पुरुष उस ज़िम्मेदारी से प्रायः मुक्त होते हैं.
अरुणाचल के समाज में मौजूद बहुपत्नी प्रथा का जिक्र यालाम की रचनाओं में बार-बार होता है. इस बहुपत्नी प्रथा के कारण भी स्त्रियां कई तरह की प्रताड़ना झेलती हैं. अरुणाचल के समाज की यह प्रथा कोई गुजरे जमाने की बात नहीं है. आज भी वहां के समाज में यह बहुपत्नी प्रथा चल रही है. यालाम की चिंता यही है.
यद्यपि यालाम अपनी कहानियों और अपने इस उपन्यास में उस बहुपत्नी प्रथा को कुछ अवसरों पर जस्टिफाई भी करती हैं, यह कहते हुए कि पुराने समय में यह आदिवासियों की जरूरत थी, क्योंकि अलग-अलग कबीलों में अक्सर लड़ाइयाँ होती रहती थीं. पुरुष उन लड़ाइयों में उलझे होते थे और खेतों में काम करने के लिए उन्हें ज्यादा-से-ज्यादा स्त्रियों की जरूरत होती थी. इसके अलावा ज्यादा-से-ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए भी एक से अधिक पत्नी रखने की प्रथा प्रचलित थी. लेकिन आज के समाज में इस प्रथा को यालाम स्त्रियों की प्रताड़ना के एक माध्यम के रूप में ही देखती हैं.
यालाम की एक कहानी है ‘यासो.’ इसकी मुख्य किरदार भी यासो ही है. यासो इस कहानी में अपने तीसरी पत्नी होने की पीड़ा को साझा करती है. हालांकि यासो जिस परिवार में रहती है, वहां सारी सौतनें आपस में मिलजुल कर रहती हैं, उनमें किसी तरह का कोई विवाद भी नहीं है, फिर भी तीसरी पत्नी होने की जो पीड़ा है, उसे यासो अभिव्यक्त करती है.
यासो इस कहानी में अपने होने वाले दामाद से यह भी कहती है कि तुम लोग पढ़े-लिखे हो, एक से अधिक विवाह मत करना. तो यह जो चिंता है, यह जो पीड़ा है स्त्री के दूसरी पत्नी, तीसरी पत्नी, चौथी पत्नी हो जाने की- यह यालाम की तमाम कहानियों में दिखाई पड़ती है. और हम कह सकते हैं कि यालाम की कहानियों का यह स्त्री-पक्ष अपने घनीभूत रूप में इस उपन्यास में दिखाई पड़ता है. सिमांग अपने पति की तीसरी पत्नी है. दूसरी-तीसरी पत्नी होने का दर्द सिमांग के माध्यम से इस उपन्यास में व्यक्त हुआ है.
अरुणाचल के समाज में, विशेषकर न्यीशी समाज में ऑपरेट हो रहे सामंतवाद और स्त्री के शोषण तथा पुरुषों के विशेषाधिकार को ‘जंगली फूल’ उपन्यास के एक प्रसंग से खूब अच्छी तरह समझा जा सकता है. लेखिका बताती हैं- ‘विवाहित महिला किसी गैर-मर्द के साथ पकड़ी गई तो नर्क से भी बदतर सजा उसे मिलती थी…कई-कई दिनों तक उसे भारी-भरकम लकड़ी के साथ बांध दिया जाता था और उसकी मर्जी के खिलाफ उसके शरीर के साथ कई तरह से खिलवाड़ किया जाता…मर्द कई-कई पत्नियां रख सकते हैं. उनके लिए कोई खास सजा तय नहीं है !’ (पृ. 18)
इस उपन्यास में आसीन से लेकर रुंगिया, सिमांग, याई, जीत, चल के समाज में स्त्री की दशा को समझा जा सकता है. अरुणाचल के आदिवासी समाज में स्त्री मां के गर्भ में ही विवाह के लिए किसी के हाथ बिक जाती है. कोई भी ढेर सारे मिथुन और दूसरी कीमती वस्तुएँ देकर लड़की को पैदा होने से पहले ही विवाह के लिए खरीद लेता है और वह लड़की 6-8 साल की होने के बाद अपने ससुराल जाने के लिए विवश होती है.
घरवाले और इसलिए स्वयं लड़की भी खरीदने वाले की तरफ से इतने आर्थिक दबाव में होती है कि चाह कर भी रिश्ते को तोड़ नहीं पाती. इस खरीदे हुए रिश्ते में सबसे अधिक शोषित होती है स्त्री. पति चाहे कितना ही नाकारा हो, वह उसे ढोने को विवश होती है. यालाम की लगभग तमाम कहानियों में स्त्री के बिक जाने की यह त्रासदी दिखाई पड़ती है.
‘जंगली फूल’ उपन्यास में सिमांग भी काफी समय तक अपने पति के साथ अपने संबंध को ढोती है यही सोचकर कि ‘अगर वह खुद पति को छोड़ देती है, तो उसको वे सारे मिथुन और सारा सामान वापस करना होगा जो उन लोगों ने उसके मां-बाप को दिए थे.’ (पृ. 66)
किसी पुरुष के हाथों बिकी हुई स्त्री, जो उसकी पत्नी कहलाती है, उसकी वास्तविक हैसियत और मर्यादा क्या होती है- इसे उपन्यास के उस प्रसंग में देखा जा सकता है जब तानी से मिलने के अपराध में सिमांग का पति तापिक सिमांग और तानी दोनों को कैद कर देता है. वह सिमांग को धमकाता है- ‘मेरी खरीदी हुई औरत, तेरी इतनी हिम्मत ?’ (पृ. 69) देखिए कि यहां पत्नी का दर्जा महज एक खरीदी हुई औरत से ज्यादा नहीं है !
लेखिका का ध्यान समाज में स्त्री की कंडीशनिंग की प्रक्रिया पर भी है. सिमांग की मां उसे स्त्री धर्म की शिक्षा देती है कि औरत की ‘जिम्मेदारी है परिवार और समाज की सेवा करना. अपने पति के लिए उसकी मनपसंद की औरतें खरीद कर ला देना. ऐसी औरतों ने ही पुरुषों की इज्जत सदा पाई है.’ (पृ. 66) सिमांग की सौतन भी उसे समझाती है कि ‘मर्द क्या करते हैं और क्या नहीं करते, उसके पीछे जाओगी तो खुद कहीं की नहीं रहोगी ! पत्नी हो उनकी ! अपना सम्मान करना सीखो ! ऐसी कई औरतों के साथ वह सोए; उससे क्या फर्क पड़ता है ? तुम्हारा तो घर बच रहा है न ? समाज इज्जत पत्नी का ही तो करता है !’ (पृ. 109) मतलब पति बाहर चाहे जो करे, एक स्त्री के लिए यही बहुत है कि घर में वह उसे पत्नी का दर्जा देता है !
सिमांग इन बातों से संतुष्ट नहीं हो पाती. उसका मन अपने पति से प्रेम की अपेक्षा रखता है, वैसे ही जैसे वह अपने पति से प्रेम करती है. वह घर के भीतर पत्नी कहलाने मात्र से संतुष्ट नहीं हो पाती. अकेलेपन में उसे एक दोस्त मिलता है हर्ब और फिर तानी. तानी और सिमांग का आमना-सामना संयोगवश होता है. सिमांग और तानी के संबंध को उसका पति तापिक गलत ढंग से देखता है और उन दोनों को कैद कर देता है. बहरहाल, सिमांग का मन अपने पति के कैद से विद्रोह कर उठता है. चरित्र और नैतिकता की तमाम हथकड़ियों को वह तोड़ देती है और अपनी मुक्ति की राह खुद तलाश करती है.
विवाह और स्त्री पुरुष के संबंध में प्रेम जरूरी है. बिना प्रेम के विवाह का कोई मतलब नहीं है. पति पत्नी के बीच भरोसे का संबंध होना चाहिए, दोस्ती का आदर्श होना चाहिए. यही भाव पति पत्नी को बराबरी के धरातल पर खड़ा करता है. कोई किसी पर निर्भर नहीं, कोई किसी पर बोझ नहीं. सिमांग अपने पति से इसी दोस्ती और भरोसे की अपेक्षा रखती है.
इसी उपन्यास में एक और सशक्त स्त्री चरित्र है- जीत, जिससे तानी का विवाह होता है. जीत भी समाज की सामंती-पितृसत्तात्मक नैतिकता के छद्म और झूठी मर्यादा को चुनौती देती है. वह तानी से प्रेम करती है और विवाह से पहले ही गर्भवती हो जाती है लेकिन वह इसे जरा भी अनैतिक नहीं मानती. उसे अपने प्रेम पर भरोसा है, तानी पर भरोसा है. वह अपने पिता से जिरह करती है. वह कहती है कि ‘विवाह तो बस एक औपचारिकता है. वह सही है, लेकिन प्रेम से बड़ा नहीं !’ (पृ. 181)
वह अपने चाचा का उदाहरण देती है जो अपनी पत्नी को प्रताड़ित करता था और जिसने उसे आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया था. जीत कहती है कि क्या इससे कबीले की इज्जत नहीं जाती ! असल में सिमांग और जीत दोनों ही विद्रोही और जिरह करती हुई स्त्रियां हैं, जो समाज की बेतुकी परंपराओं और उनके नाम पर स्त्री के शोषण को नाजायज ठहराती हैं. यहीं पर लेखिका स्त्री के व्यक्तित्वांतरण, उसके विद्रोही होने के ‘डायलेक्टिक्स’ को भी बड़ी ही सरलता और सहजता से व्यक्त कर देती हैं. यालाम लिखती हैं- ‘बंधन ऐसी स्त्रियों का गर्भ है ! वहीं से वे जन्मती हैं !’ (पृ. 181)
इस उपन्यास का स्त्री-पक्ष कितना महत्वपूर्ण है-इसका पता इस बात से भी चलता है कि तानी के जीवन पर आधारित इस उपन्यास का अंत लेखिका तानी नहीं बल्कि जीत और जीत जैसी स्त्रियों के बारे में बात करती हुई करती है. उपन्यास का अंत करते हुए यालाम लिखती हैं- ‘वह (जीत) अद्भुत स्त्री थी. संसार को ऐसी ही स्त्रियों ने ही बदला है !…प्रेम की बातें ये नहीं करतीं- प्रेम को पूर्णतः जीती हैं ! झीलों की गहराई इन्हीं में बसती है !’ (पृ. 184)
इस उपन्यास में तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात है- प्रेम के प्रति लेखिका का नजरिया. इस उपन्यास में प्रेम के कई अलग-अलग रूप दिखाई पड़ते हैं. तानी की पहली पत्नी आसीन तानी से प्रेम करती है, बहुत प्रेम करती है, लेकिन उसका प्रेम तानी को गृहस्थी में बांधकर रखने वाला प्रेम था. स्वाभाविक रूप से वह तानी को खो देती है, क्योंकि तानी के उद्देश्य और उसके मन को वह ठीक-ठीक समझ नहीं पाती. तानी भी बहुत कोशिश करता है, वह आसीन का बहुत ध्यान रखता है, लेकिन आसीन से उसका मन मिल नहीं पाता. सच्चे प्रेम के अभाव में उनका वैवाहिक संबंध भी चल नहीं पाता.
रुंगिया और तानी का प्रेम एक दूसरे ढंग का प्रेम है. रुंगिया को समाज के लोग डायन बताकर प्रताड़ित कर रहे होते हैं और तानी उसे वहां से निकालकर बाहर लाता है. रुंगिया एक बहुत ही कुरूप स्त्री है और उसकी कुरूपता के कारण ही वह समाज उसे डायन बताकर दंडित करता है. वह समाज उसे कभी यह एहसास ही नहीं होने देता कि वह भी एक स्त्री है. स्त्रीत्व के उस एहसास को वह पाती है, तानी के माध्यम से. तानी का प्रेम रुंगिया को तमाम कुंठाओं से मुक्त कर देता है.
रुंगिया का तानी के प्रति प्रेम शुरू तो होता है शरीर से लेकिन उसके बाद जीवन में कभी भी शरीर उसमें शामिल नहीं होता. तानी की एक बार की छुअन से वह जीवन भर की तृप्ति हासिल करती है और तानी को जीवन भर प्रेम करती रहती है, शरीर वहां से गायब हो जाता है. प्रेम का यह जो अलग ढंग का रूप है, यह उस समाज में प्रेम को देखने की लेखिका की नवोन्मेषी दृष्टि की उपज है.
प्रेम स्वभावतः मुक्तिधर्मा होता है. इस उपन्यास में प्रेम का यही मुक्तिधर्मा रूप आदर्श रूप में चित्रित हुआ है. तानी और सिमांग का प्रेम भी इसी ढंग का प्रेम है जो दोनों को मुक्त करता है. लेखिका बड़े ही काव्यात्मक ढंग से तानी और सिमांग के प्रेम के माध्यम से प्रेम के दर्शन को प्रस्तुत करती हैं- ‘प्रेम जंगली है. पेड़ों में, पत्तों में, पंछियों के गान में, तितलियों के रंगों में, बादल में, बारिश में, गर्जन में, तर्जन में- और न जाने कहां-कहां खुलता है ! खिलता है ! महकता है ! बहकता है !
‘तानी और सिमांग जंगली फूल थे. उन्हें कोई अपने घरों में, बगीचों में सजाकर नहीं रख सकता था. निडर, निर्भय, बेबाक, बेखौफ, ग्लानिविहीन ! जो प्रेम भय के पार न ले जा सके वह कैसा प्रेम ?… दोनों ने एक-दूसरे को प्रार्थना बना लिया था- क्योंकि प्रेम में दोनों ने एक-दूसरे को मुक्ति दे दी थी…!’ (पृ. 176)
सिमांग और तानी पति-पत्नी नहीं हैं. वे एक-दूसरे से प्रेम करते हैं. तानी और सिमांग के प्रेम को प्रेम की प्रचलित अवधारणा के तौर पर न तो देखा जा सकता है और न समझा जा सकता है. उस प्रेम में शरीर मौजूद भी है और वह शरीर से परे भी है. तानी और सिमांग का प्रेम शरीर के साथ शुरू नहीं होता और वह शरीर के साथ खतम भी नहीं होता. वहां शरीर शामिल है लेकिन वहां शरीर केवल माध्यम है उस प्रेम की अभिव्यक्ति का.
शरीर वहां न तो किसी किस्म की कुंठा पैदा करता है और न किसी और तरीके से वहां अभिव्यक्त होता है. उनका प्रेम एक अलग ढंग की ‘क्रिएटिविटी’ में परिणत हो जाता है. सिमांग तानी के साथ मिलकर उसके कबीले और दूसरे कबीले के लोगों को धान की खेती करना सिखाती है और इस तरह तानी के ‘पिता तानी’ बनने के संकल्प को पूरा करने में सहायक बनती है.
इस उपन्यास में प्रेम सृजनात्मक है. सृजनात्मक इस अर्थ में कि यह केवल दो व्यक्तियों के आपस का प्रेम नहीं है, उस प्रेम में व्यापक सामाजिक हित का उद्देश्य भी शामिल है. तानी अंततः जीत से विवाह करता है. जीत और तानी का प्रेम भी अंततः कबीले के प्रति प्रेम में परिणत हो जाता है. पिता तानी के साथ जीत ‘जीत आन्ने’ कहलाई यानि तानी वंश की माता. वह तानी के महान उद्देश्य को आत्मसात कर लेती है. यह है व्यक्तिगत प्रेम का व्यापक सामाजिकता और सृजनात्मकता में विलय! प्रेम का एक यह आदर्श है जिसमें निश्चित रूप से आदिवासीयत का वही नजरिया काम कर रहा है जिसकी चर्चा लगातार की जा रही है.
थोड़ी-सी बात इस उपन्यास की भाषा के बारे में भी करनी ज़रूरी है. लेखिका के गैर हिन्दी भाषी होने के कारण उपन्यास की भाषा का फ्लेवर थोड़ा अलग है. इसे भाषा की सीमा के रूप में नहीं बल्कि भाषा की खास क्षेत्रीय विशिष्टता के रूप में देखना चाहिए. दूसरी ज़रूरी तौर पर रेखांकित की जाने वाली बात है इस उपन्यास की भाषा की काव्यात्मकता. भाषा की काव्यात्मकता जबरदस्त ढंग से उपन्यास की भूमिका में ही दिखाई पड़ जाती है, जब लेखिका जंगल और जंगलीपन को परिभाषित करती हैं. बाकी पूरे उपन्यास में काव्यात्मक भाषा के नमूने भरे हुए हैं.
‘आंसू किसी के भी हों…दर्द तो दर्द होता है’ (पृ. 10), ‘प्रेम में औरत समंदर होती है !’ (पृ. 44), आदि जैसी काव्यात्मक पंक्तियां इस उपन्यास में खूब हैं. भाषा की काव्यात्मकता का एक उदाहरण और देखिए- ‘छः आंखें…आंसू एक ! शरीर तीन…दर्द वही एक ! कौन बहता होगा इन आंखों से ! किसकी यादों से गुजरकर यात्रा करते होंगे ये आंसू ! कितने हृदयों की कहानियां लिए यह बहती रहती होगी- इस आंख से उस आंख…उस आंख से इस आंख तक की सतत यात्रा ! सदियों से यह बूंद गिरती ही रही है इन दो झीलों से शून्य में !’ ( पृ. 84)
अंत में यही कि आदिवासीयत, स्त्री और प्रेम के त्रिकोण में विन्यस्त यह उपन्यास न केवल अरुणाचल के आदिवासी समाज के अनेक पक्षों को हमारे सामने उद्घाटित करता है, बल्कि प्रेम और स्त्री के संबंध में कुछ अलग, ज़्यादा लोकतान्त्रिक आदिवासी नजरिया भी प्रस्तुत करता है. हम अपने भीतर कुछ ‘जंगलीपन’ बचा सकें- यही इस उपन्यास का संदेश है हमारे लिए !
- अमिष वर्मा
(पहली बार ‘हंस’ में प्रकाशित और साभार)
संपर्क : हिंदी विभाग,
मिजोरम विश्वविद्यालय,
आइजोल-796004 (मिजोरम)
मो. 9436334432
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