माननीय श्री गब्बर सिंह 1926 में पैदा हुए थे. मामाजी के मध्यप्रदेश में भिंड की पावन धरती पर उनका बचपन बीता. यह सूखा इलाका है, तो आसपास न कोई तालाब था, न मगरमच्छ !
लेकिन कुछ दूर चंबल नदी थी, वहां के मगरमच्छ प्रसिद्ध है. तो महज 20 साल की उम्र में माननीय गब्बर जी ने अपना घर छोड़ दिया और मां चंबल के मगरमच्छों की सेवा में जीवन अर्पण करने का निर्णय किया.
मां चंबल की सेवा में वहां पहले से एक दल मौजूद था, जिसका नेतृत्व श्री कल्याण सिंह जी कर रहे थे. ये वो वाले कल्याण सिंह नहीं है, चंबल में 60 के दशक वाले डाकू की बात हो रही है. गब्बर जी ने उस दल की सदस्यता ग्रहण की.
शीघ्र ही उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन करते हुए अपना स्वयं का दल बना लिया. 1956 में उनके द्वारा कुछ दुष्टों का संहार किया गया, जिससे वे चर्चा में आ गए. 1957 में उन्होंने कुछ गांवों में आग लगाई, कुछ वध औऱ किये जिससे उनका नाम 50 कोस दूर तक फैल गया.
माताएं अपने बच्चों को गब्बर का नाम लेकर सुलाने लगी. बच्चे गब्बर काकू का नाम सुनते ही सो जाते, परन्तु इससे आसपास के थाने वालों की नींद हराम हो गयी. उन्होंने गब्बर को पकड़ने के लिए इनाम रखा. फिगर तो आप जानते ही हैं…पूरे पचास हजार…!
गब्बर साहब का फ़िल्म शोले में काफी बुरा चित्रण किया गया है. वह अविवाहित थे, न लोग न लइका, तो करप्शन भी नहीं करते थे. बीहड़ों में कठिन जीवन जीते, कठोर परिश्रम करते.
गब्बर सिंह टैक्स से जो थोड़ा बहुत लूट लाटकर मिल जाता, उसी में थोड़ा मशरूम खाकर और वाइन पी के गुजारा कर लेते. कुछ बचत करके हफ्ते दो हफ्ते में हजार-पांच सौ सूट भी सिला लेते. उन सूटों के रेशे-रेशे में लिखा होता –
ग
ब्ब
र
दा
मो
द
र
दा
स
सिं
ह
न मठ था, न सात सितारा ऑफिस, न एसी औऱ न स्कूटर में छिपाए बम. वन में रहते और कुछ दुनाली तथा धारदार हथियारों के बूते वे अपनी रक्षा करते. दिन रात बस एक ही ख्याल रहता, कैसे चंबल मैया की सेवा की जाये !
कैसे अपने दल के लोगों का जीवन आसान किया जाए. कला और खैनी के प्रेमी थे, इसलिए समय-समय पर हेलनस्मृति नृत्य समारोह का आयोजन होता.
ऐसे परम् त्यागी महात्मा, देवता स्वरूप इंसान के पीछे खुर्रम फरामूर्ज़ रूस्तम पड़ गया. उसे वर्दी से नहीं, नाम से पहचानिए. नेहरू इसके जिम्मेदार थे. सीरियसली जिम्मेदार थे भाई !
के. एफ. रुस्तमजी, वो प्रसिद्ध आईपीएस थे, जो लंबे समय तक नेहरू के सुरक्षा प्रमुख थे. फिर एक दिन गार्ड ड्यूटी से ऊबकर फील्ड पोस्टिंग मांग ली तो उन्हें मध्यप्रदेश का आईजी बना दिया गया.
तब आईजी, याने डीजीपी…पुलिस प्रमुख. मध्यप्रदेश का पुलिस प्रमुख बनते ही उन्होंने डकैतों पर लगाम लगानी शुरू की. 13 नवम्बर 1959 की रात में भिंड जिले के एक गांव में डकैत गब्बर सिंह गुर्जर की पुलिस से मुठभेड़ हुई और वे अल्लाह को प्यारे हो गए !
खबर को रूस्तम साहब ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उनके जन्मदिन की बधाई भेंट के रूप में पेश किया.
तो हुए न नेहरू जिम्मेदार. एक वो दिन है, और आज का दिन. 30 स्टेट औऱ 7 केंद्रशासित प्रदेश में जब कहीं कोई यशस्वी गब्बर भाषण देता है, तो जनता कहती है- बेटा, चुप हो जा…वरना नेहरू आ जायेगा !
नोट – कहानी पूर्णतया सत्य है और जीवित और मृत व्यक्तियों से इसका संबंध होने की पूर्ण संभावना है. जिन्हें डाउट हो, गूगल पर गब्बर सिंह गुर्जर खोजकर विवरण सत्यापित कर सकते हैं.
- मनीष सिंह
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