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अगर दर्शन सूफियाना हो तो वह साइंसदाना कैसे हो सकता है ?

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दुनिया में पहले तकनीक आई, बाद में विज्ञान आया. यूरोप के छलांग मारकर आगे बढ़ने का इतिहास तकनीक के पीछे के वैज्ञानिक नियम ढूंढना था. दुनिया और ब्रह्माण्ड के गतिशास्त्र के नियम खोजना था.

भारत, अरब और चीन, दुनिया की ये तीन प्राचीनतम सभ्यताएं अपने अपने ढंग से नई-नई तकनीक खोजकर जब धीरे-धीरे विकसित हो रही थी, तब यूरोप कहीं नहीं था. मगर बाद में इन पुरातन सभ्यताओं में धार्मिक जड़ता और समाज में प्रिविलेज्ड श्रेणियों का कब्ज़ा हुआ तो उसने ज्ञान विज्ञान का प्रवाह रोक दिया.

भारत की जाति-व्यवस्था ने इसका जितना नुकसान किया है, उतना किसी ने नहीं किया –

  • जिस व्यक्ति ने पहली बार मिट्टी को कुल्हड़ में बदला होगा वह दुनिया का पहला मेटेरियल साइंटिस्ट होगा. पहला मेटालर्जी इंजीनियर होगा, लेकिन हमारे यहां उसे कुम्हार बना कर सामाजिक व्यवस्था में पिछड़ा बना कर रख दिया.
  • जिसने पहली बार पहियों में तीलियां फिट कर उसे हल्का बनाया होगा, जिसने पहली बार दो पहियों के बीच एक्सल लगा के उसके सर्कुलर मोशन को सिंक्रोनाइज कर उसे ट्रांसपोर्ट वहीकल में तब्दील किया होगा, वह भारत का पहला ऑटोमोबाइल इंजीनियर होगा, मगर हमने उसे बढई और लोहार बना कर सामाजिक श्रेणीक्रम में नीचे धकेल दिया.
  • यूरोप में टेक्सटाइल इन्जीनियरिंग से औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई, मगर हम, जिसने सबसे पहले कपास उत्पादन शुरू किया, चीन से चरखा और तकली मिली और फिर धागे बनाने और बुनाई करने की शुरुआत की, उस टेक्सटाइल इन्जीनियर को जुलाहा बुनकर बना कर समाज मे पीछे बैठा दिया.
  • लेदर टेक्नॉलजी को गांव के दक्खिन टोले में फिक्स कर दिया और उसे चमार कहकर निम्नतम दर्जा दे दिया.

यूरोप में यही फर्क था कि वहां के आर्टीजन किसी भेदभाव के शिकार नहीं थे. उनके लिखने-पढ़ने पर प्रतिबंध नहीँ था. एक तरफ वो गढ़ रहे थे तो साथ-साथ पढ़ रहे थे. दूसरी ओर वैज्ञानिक सिद्धांत खोज रहे थे और उच्च तकनीकी विकास में आर्टीजन के सहकर्मी बने, क्राफ्टमेनशिप और सांइस के डेडली कोंबों ने जो टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट किया वह हम सबके सामने है और  उन्होंने इसी दम पर पूरी दुनिया जीत ली.

इधर हम भक्ति में रमे ‘ढोल गंवार’ को कंट्रोल करने का साहित्य रच रहे थे, ‘पूजहि विप्र सकल गुन हीना’ की घुट्टी घोल कर पी रहे थे. सबसे बड़ी विडंबना तो यह है धर्म दर्शन के क्षेत्र में ग्रीस और रोम में जो बहसें और विवाद हो रहे थे, यूरोप में विज्ञान उन्हीं धार्मिक विमर्शों के मध्य से निकला. वहां इसके लिए बुद्धिजीवियों ने कुर्बानियां दी.

हमारे यहां एक तो पढ़ना लिखना लिमिटेड कंपनी बन चुका था और दूसरे अपनी इस प्रिविलेज को मेंटेन करने के लिए धर्मशास्त्र भक्ति साहित्य सब समर्पित था.

  • चार्वाकों का पूरा साहित्य नष्ट कर दिया गया.
  • भौतिकवादी दार्शनिक शाखाओं को विकसित नहीं होने दिया गया.
  • अनीश्वरवादी धर्म दर्शन यहां से भगा दिए गए…

अरस्तू ने कह दिया भारी चीज तेजी से गिरती है तो सदियों बाद उसे गैलीलियो ने चुनौती दी. धरती गोल है कि चपटी, धरती घूमती है कि स्थिर है यह सब धर्म दर्शन की बहसें थी…उसके मध्य से खून में लथपथ वैज्ञानिक चेतना की देवी प्रकट हुई. और हम इधर ईश्वर को जानने से ज्यादा उससे प्रेम करने लगे. हमारा इश्क सूफियाना हो गया, तो साइंसदाना कैसे हो सकता था !

हम आज भी नही बदले हैं. जो कौम बदलती नहीं वो मिट जाती है. उसमें देह होगी पर प्राण नहीं होगा. प्राण नहीं होगा तो सडेगी गलेगी और क्या होगी ! यह तो प्रकृति का नियम है. कहने को बहुत है पर कह नहीं पाते, लेकिन कहे बिना रह भी नहीं पाते.

  • पंकज मिश्रा

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ROHIT SHARMA

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