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सोया युवामन और कचड़ा संस्कृति

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गुंडे इतिहास तय कर रहे हैं और भारत गौरवशाली महसूस कर रहा है. अमृत काल वर्ष की महान उपलब्धि.

जगदीश्वर चतुर्वेदी

विगत कई दशकों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों का युवाओं के खिलाफ विश्वयुद्ध चल रहा है. अफसोस की बात यह है कि विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में पढ़ने वाले अधिकांश युवा इस युद्ध से अनभिज्ञ हैं. कभी-कभी तो इस युद्ध के औजार के रुप में देश के मुखिया भी भाषण देते नजर आते हैं. मसलन्, अधिकांश युवाओं में श्रम-मूल्य में आ रही गिरावट को लेकर कोई गुस्सा या प्रतिवाद नजर नहीं आता.

हम अपने दैनंदिन जीवन में देख रहे हैं कि श्रम का मूल्य लगातार गिरा है. दैनिक और मासिक पगार घटी है, लेकिन युवा चुप हैं. युवाओं में अपराधीकरण बढ़ रहा है लेकिन युवा चुप हैं. बच्चों और युवाओं में वस्तुओं की अनंत भूख जगा दी गयी है लेकिन युवा चुप हैं. सामाजिक स्पेस का निजीकरण कर दिया गया है लेकिन युवा चुप हैं.

अब युवा को टीवी खबरों, सोशलमीडिया, सिनेमा, रियलिटी शो, वीडियो शो आदि में मशगूल कर दिया गया है. वस्तुगत तौर पर देखें तो युवाओं का अधिकांश समय कचरा सांस्कृतिक उत्पादों में गुजरता है और युवाओं का एक बड़ा वर्ग इसको ही पाकर धन्य-धन्य घूम रहा है. इससे युवा एक तरह से बेकार-फालतू माल बन गया है, जिसे कभी भी कहीं भी फेंका जा सकता है. युवाओं को बेकार-फालतू माल बना दिए जाने की इस प्रक्रिया के बारे में हमने तकरीबन बोलना ही बंद कर दिया है.

आज देश में दुर्दशापूर्ण स्थिति के लिए इस तरह के युवाओं की कचड़ा-चेतना को एक हदतक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. कायदे से होना यह चाहिए कि युवा के अंदर सामाजिक बर्बरता, असभ्यता, कुसंस्कृति आदि के प्रति तुरंत आक्रोश पैदा हो, वह अन्याय के खिलाफ तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करे, लेकिन हो इसके उलट रहा है. युवाजन आंखों सामने अन्याय-बर्बरता देखते हैं, उसमें शामिल भी होते हैं, असभ्यता देखते हैं और उसका महिमामंडन भी करते हैं. खासकर फेसबुक जैसे माध्यम में यह चीज बहुत तेजी से नजर आई है.

मसलन्, हमारे अधिकांश युवाजन समूचे देश में युवाओं में बढ़ रही हिंसा और अपराध की प्रवृत्ति के खिलाफ कोई जोरदार टिकाऊ आंदोलन करना तो दूर एक बड़ी रैली तक नहीं कर पाए हैं. आज के युवा की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वह अपने को अपने नजरिए से नहीं देख रहा बल्कि ऐसे व्यक्तियों और संगठनों के नजरिए से देख रहा है जो कहीं न कहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की संस्कृति-राजनीति और सभ्यता के पैरोकार हैं. ये लोग युवा का जो खाका हमारे सामने खींच रहे हैं, वही खाका आंखें बंद करके युवाजन मान रहे हैं.

मसलन्, पीएम मोदी (चाहें तो अभिजन एलीट कह सकते हैं) कह रहे हैं देश विकास कर रहा है. अधिकांश युवा मान चुका है कि देश विकास कर रहा है. वे कह रहे हैं डिजिटल इंडिया तो युवा कह रहा है डिजिटल इंडिया. वे कह रहे हैं देश के युवाओं में अपार क्षमताएं हैं, युवा मानकर चल रहे हैं अपार क्षमताएं हैं. मोदी कह रहे हैं स्कील डवलपमेंट जरुरी है, युवा भी मान चुके हैं कि जरुरी है.

इस समूची प्रक्रिया में युवा के मन में यह बात बिठायी जा रही है कि उसके पास निजी दिमाग और विवेक नहीं होता, वह ठलुआ होता है, उसे जो बताया जाएगा वही मानेगा. मसलन् पीएम मोदी कहेंगे कि देश में महंगाई है तो महंगाई है, यदि वे नहीं कहते हैं तो देश में महंगाई नहीं है, चाहे अरहर की दाल 230 रुपये किलो बिके. इस तरह की युवा मनोदशा के बारे में पीएम मोदी यह मानकर चल रहे हैं कि वे युवाओं को वे जब बताएंगे तब ही वह जानेगा. उसमें सामाजिक समस्याओं को जानने-समझने की क्षमता नहीं है.

इसके कारण पीएम मोदी को यह भ्रम भी हो गया है कि वे ज्ञान के अवतार हैं और उनके जब ज्ञान चक्षु खुलेंगे तब ही युवाओं के भी ज्ञान चक्षु खुलेंगे. इस समूची प्रक्रिया ने युवाओं में ‘जय-हो’ संस्कृति को जन्म दिया है. यह ‘जय हो’ संस्कृति युवाओं को कचड़ा सांस्कृतिक रुपों, अनुत्पादक मूल्यों और कार्यों में बांधे रखती है. फलतःयुवा के अंदर समाज, संस्कृति, राजनीति आदि को लेकर आलोचनात्मक विवेक पैदा ही नहीं होता और युवामन अहर्निश कचड़ा संस्कृति में रस लेता रहता है.

कायदे से युवाओं को कचड़ा संस्कृति के प्रति आलोचनात्मक विवेक पैदा करना चाहिए. जो कहा जा रहा है या दिखाया जा रहा है, उस पर सवालिया निशान लगाकर विचार करना चाहिए. युवा यह सोचें कि जो कहा जा रहा है वह क्या यथार्थ से मेल खाता है ? जो चीज यथार्थ से मेल नहीं खाती उसे नहीं मानना चाहिए.

बंगाल में पुंसत्व का अवरूद्ध असामान्य विकास और हिंसाचार

गाली देना गलत है तो गाली पी जाना और भी गलत है. बंगाली समाज सभ्यता के विकास की सीढ़ियां चढ़ते समय यह भूल ही गया कि सभ्यता की हवाओं के आने की और असभ्यता की हवाओं के अंदर से बाहर जाने की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया होती है, वे सभ्यता की हवा लेते रहे लेकिन अंदर की असभ्यता को छिपाए रहे, असभ्यता के रूपों को मीठी भाषा की चाशनी में छिपाकर रखने का दुष्परिणाम यह निकला कि मन के अंदर छिपी असभ्यता अब ट्यूमर बन गई और अब उससे रह-रहकर खून टपक रहा है.

दैनंदिन राजनीति में व्यापक स्तर जो हिंसा नजर आ रही है, उसका एक छोर गरीबी से जुड़ता है तो दूसरा छोर बंगाली जाति में गहरे जड़ें जमाए दमित पुंस-भावबोध से जुड़ता है. सतह पर बंगाली पुरूष बड़ा नरम, पुंसत्वविहीन नजर आएगा, लेकिन वहीं दूसरी ओर नई युवा पीढ़ी पुंसत्वहीनता को अस्वीकार करती हुई हिंसा का ताण्डव करती नजर आएगी. बंगाल में इन दिनों जो हिंसक गिरोह सक्रिय हैं उनमें शामिल अधिकांश लोग पैंतीस-चालीस साल से कम उम्र के हैं.

एक ओर सभ्य-पुंसत्वविहीन बंगाली मर्द है और दूसरी ओर हिंसक-मस्तान बंगाली युवा है. पुंसत्वहीनता ही उसके हिंसक स्वभाव की जननी है. यदि उसने पुंसत्व के कार्य-व्यापार को सामान्य विकास का मौका मिलता तो वह नॉर्मल मर्द होता, चूंकि वह पुंसत्वहीनता की ग्रंथि का शिकार है इसलिए हिंसा करके अपनी छद्म मर्दानगी का वह आए दिन प्रदर्शन करता रहता है.

मसलन्, दो बंगाली जब आपसी में किसी बात पर झगड़ा करेंगे तो सारा झगड़ा भाषा में होगा, हाथ-पैर नहीं चलाएंगे, एक-दूसरे को लट्ठ लेकर मारने नहीं दौड़ेंगे, गाली नहीं देंगे, इससे विपरीत दृश्य आपको हिंदीभाषी क्षेत्र में मिल जाएंगे. वहां दो लोगों में झगड़ा होगा तो जमकर गंदी-गंदी गालियां देंगे, सिर फोंडेंगे, पत्थर चलेंगे, यानी, झगड़े का मतलब है फौजदारी.

लेकिन दो बंगालियों के बीच झगड़े का मतलब है भाषा युद्ध, इसमें भाषा में वाद-विवाद होगा, कोई एक-दूसरे को गाली नहीं देगा, लट्ठ नहीं मारेगा, पत्थर नहीं मारेगा, यानी भाषा युद्ध की भी सीमाएं तय हैं, गाली का कोई भी पक्ष प्रयोग नहीं करेगा. इससे एक खास किस्म का दमित-कुंठित परिवेश बना है, खासकर बंगाली पुरूष के इर्द-गिर्द एक खास किस्म का माहौल बना है जिसके रक्षा कवच दमित-कुंठित मनोभाव हैं. इसने बंगाली को असामान्य या एब्नॉर्मल बनाया है.

सामान्य या नॉर्मल आदमी को गुस्सा आता है तो वो गाली भी देगा, नंगई करेगा और यह उस स्थिति में स्वाभाविक आचरण माना जाएगा, लेकिन दो बंगाली कभी झगड़ा करते समय नंगई नहीं करते, उनका यह रूप ही एब्नार्मल है. इसके कारण मर्दानगी के स्वाभाविक विकास का मार्ग अवरूद्ध हुआ है और वह रह-रहकर हिंसक और आपराधिक कृत्यों के जरिए अभिव्यक्त हो रहा है. कहने का आशय यह कि बंगाली मर्द का यदि स्वाभाविक विकास हुआ होता तो बंगाल में हिंसा कम होती या एकदम न होती, चाहे यहां सरकार किसी की भी रहती.

बिहार में विकसित होता हिंसक संस्कृति

बिहार के पाटलिपुत्र विश्व विद्यालय के प्रो. हेमन्त कुमार झा लिखते हैं – एक-डेढ़ दशक पहले बिहार में एक गाना बहुत बजता था, ‘मार देब गोली, केहू न बोली.’ यानी, हम तुम्हें गोली मार देंगे और कोई कुछ नहीं बोलेगा. बेहद तेज संगीत के बीच एक डायलॉग की शक्ल में यह पंक्ति बोली जाती थी और शादी, विवाह या किसी अन्य आयोजन में खुद को रंगदार समझने वाले युवक अक्सर कट्टा हाथ में लिए इस गाने पर झूम झूम कर नाचते थे और हाथ उठा उठा कर कट्टे को भी नचाते थे. और, सच भी था, ‘केहू’ इस पर कुछ नहीं बोलता था.

सार्वजनिक रूप से अवैध हथियार लहराने पर अक्सर पुलिस भी ऐसी किसी घटना के प्रति अनभिज्ञता जताते हुए कुछ नहीं करती थी. उन दिनों वीडियो वायरल होने की संस्कृति डेवलप नहीं हुई थी क्योंकि ऐसे स्मार्टफोन नहीं थे और जो थे उनकी पहुंच बेहद सीमित थी. आजकल भी, जब कट्टा लहरा कर नाचने के वीडियो वायरल हो जाते हैं तो मजबूरन पुलिस को कुछ कानूनी खानापूरी करनी होती है.

हमारे बिहार में ऐसे कट्टा लहराने वालों का बहुत सम्मान है. तो, उस दौर में उस लोकप्रिय गाना के कई वर्जन सामने आए. हर वर्जन सुपर हिट हुआ…मार देब गोली, केहू न बोली.

अभी पिछले सप्ताह बिहार के ही किसी जिले की खबर एक अखबार में दिखी. किसी शादी में नाच गाना के प्रोग्राम में दूल्हे का 20 वर्षीय छोटा भाई और उसका एक साथी अपने अपने हाथों में पिस्तौल लिए डांसर के साथ नाच रहे थे. हाथ उठा-उठा कर पिस्तौल लहरा लहरा कर वे दोनों जमाने को जैसे चुनौती दे रहे थे, ‘केहू न बोली.’ उनमें से एक ने डांसर से किसी खास गाने की फरमाइश की. डांसर ने इंकार कर दिया. फिर क्या था, पलक झपकते ही सैकड़ों की भीड़ के सामने धांय धांय…और डांसर तत्क्षण वहीं गिर कर मर गया. हथियार लहराते दोनों साथी आराम से वहां से निकल गए.

उस घटना को पढ़ने के बाद मैं कई दिनों तक अखबारों और अन्य खबरों की टोह लेता रहा कि उन दोनों हत्यारों का क्या हुआ, ‘केहू ‘ कुछ बोला या नहीं, पुलिस ने क्या किया आदि. लेकिन कोई खबर कहीं नजर नहीं आई. अब जब, सार्वजनिक रूप से कोई हत्या ही हो गई तो पुलिस तो जरूर आई होगी. क्या हुआ नहीं पता.

हमारे बिहार की संस्कृति का बहुत गुणगान किया जाता है. यहां नालंदा, विक्रमशिला विश्वविद्यालय थे, बुद्ध, महावीर थे, गांधी जी यहीं से राष्ट्रपिता बनने की यात्रा पर निकले थे आदि आदि. लेकिन, यह सब इतिहास की बातें हैं. बीते दशकों में यहां कट्टा संस्कृति खूब फली फूली.

यही कारण है कि बिहार के गांवों में बाजार और व्यापार उस अनुपात में विकसित और समृद्ध नहीं हुए जैसा अन्य कुछ राज्यों में हुआ. यहां किसी ग्रामीण बाजार में आपका व्यवसाय थोड़ा फला फूला कि आप कट्टाधारियों की नजर पर चढ़े. अक्सर पुलिस से भी आपको कानूनी संरक्षण मिलने में कोताही होगी. असल में, आप पुलिस के पास ऐसी शिकायत ले कर जाने से भी डरेंगे, क्यों डरेंगे ? इस के डिटेल में जाने की जरूरत नहीं. डरते ही हैं लोग, और सुधी जन ऐसे मामलों में अक्सर सलाह भी देते हैं, ‘डरना जरूरी है.’

नतीजा, अपने गांव या कस्बे में रह कर अपना मनपसंद व्यवसाय करने के बदले बहुत सारे लोग पूरब-पच्छिम की ट्रेन पकड़ लेते हैं, जहां वे मेहनत मजदूरी करते हैं. कभी कभार स्थानीय लोगों से मार पिटाई भी खाते हैं, जिनकी खबरें आती ही रहती हैं और बिहारी संवेदना को बिना छुए बासी हो कर गुजर जाती हैं. बिहारियों को फलां राज्य में मारा पीटा गया, यह कोई नई या अनहोनी खबर तो है नहीं, आती ही रहती हैं ऐसी खबरें. कितना संवेदनशील हुआ जाए. जैसे, भीड़ में कट्टा लहराया जाता देखना यहां कतई अनोखी बात नहीं, वैसे ही अपने भाई बंधुओं का बाहर मार खाना हमारे लिए कोई अनोखी बात नहीं. हम इन सबके अभ्यस्त हैं.

इधर, एकाध वर्षों से हमारे गांवों में लाउडस्पीकर पर एक गाना खूब बजता है. शादियों में, मुंडन में, बर्थ डे आदि में, ‘हमर सिक्सर के छौ गोली छाती में रे…’, खूब मन लगा कर कितने नौजवान नाचते हैं इस गाने पर, सिक्सर हाथों में लिए. मुझे नहीं पता, सिक्सर और कट्टे में क्या अंतर होता है. हो सकता है, गाना में सिक्सर बजता हो और नाचने वालों के हाथों में कट्टा हो, छाती तो अक्सर किसी निर्दोष की ही होनी है.

देश के विकसित राज्यों में रहने वाले मित्र गण बताएंगे कि क्या उधर भी वहां की भाषा में ऐसे गाने बनाए और बजाए जाते हैं ? क्या वहां भी शादियों और बारातों की शोभा तब तक नहीं होती जब तक कुछ शोहदे सार्वजनिक रूप से अवैध हथियार लहराते नाचें नहीं ? बेवजह की धांय धांय नहीं करें ? यहां तो ऐसे धांय धांय से हर लगन के सीजन में दर्जनों हृदय विदारक मौतें दर्ज होती हैं, घायलों की तो कोई गिनती ही नहीं. अब तो बर्थ डे आदि में भी कुछ लोग धांय धांय के बिना अधूरापन महसूस करते हैं.

गीत-गाने अक्सर वहां की संस्कृति की आंतरिक बुनावट को भी व्यक्त करते हैं. हमारे यहां अगर ऐसे गीत बनते हैं और खूब शौक से बजाए जाते हैं तो ये बताता है कि ‘किसी निर्दोष या कमजोर की छाती में बेवजह सिक्सर की छौ गोलियां ठोक देने वालों’ का बहुत भौकाल रहता है और किसी गाने के ही शब्दों में, ‘केहू कुछ न बोली.’

बिहार में अक्सर मजबूती या कमजोरी इस तथ्य से भी आंकी जाती है कि आप किस जाति से आते हैं और आपके इलाके में किस जाति का बोलबाला है. अगर आप प्रचलित अर्थों में कमजोर हैं तो आधुनिक अर्थशास्त्र की भाषा के एक शब्द ‘स्टार्ट अप’ आदि को साइड में रखिए और बाहर जा कर किसी नौकरी की तलाश करिए. यही स्टार्ट अप आप बाहर किसी जगह कर सकते हैं, लोग आपको हाथों-हाथ लेंगे. अपने गांव कस्बे में हजार तरह की दुश्वारियां हैं.

कुछ तो कारण है कि इतनी उर्वरा धरती वाले बिहार में न छोटे उद्योग पनपते हैं, न बड़े उद्योग स्थापित होते हैं. जब तक हमारे गांवों, कस्बों में शोहदे ‘मार देब कट्टा कपार में’ जैसे गानों पर हथियार लहराते नाचते नजर आते रहेंगे तब तक न यहां का बाजार विकसित होगा, न व्यवसाय. तब तक, रोजगार के लिए लोग बाहर भागने को विवश होते रहेंगे, बिहारी शब्द एक गाली की तरह दुहराया जाता रहेगा, बिहारियों की मार कुटाई चलती रहेगी.

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ROHIT SHARMA

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