मनीष आजाद
आपने अपने इर्द गिर्द अनेकों ‘मुक्त’ महिलाओं को देखा होगा जो नौकरी करती हैं और खुद मुख्तार हैं. लेकिन परिवार घर और बच्चों की जिम्मेदारियां, उन्हें इस कदर चूस लेती हैं कि वे कुछ रचनात्मक नहीं कर पाती और इसका ‘फ्रस्ट्रेशन’ उन्हें परेशान करता रहता है. दूसरी ओर बच्चों की भी ठीक से देखभाल नहीं हो पाती क्योंकि मां-पिता लम्बे समय तक बाहर रहते हैं.
1917 की बोल्शेविक क्रांति के बाद यह सवाल बहुत तीखे रूप में सामने आया कि ‘परिवार का क्या किया जाय ? परिवार के तमाम बोझिल और उबाऊ काम का क्या किया जाय ?’ जवाब कोलंताई के पास था. कोलंताई 1917 की क्रांति में सक्रिय भागीदार थी. और क्रांति बाद लेनिन ने उन्हें ‘सोशल वेलफेयर’ का जिम्मा सौपा था.
1918 के ‘फैमिली कोड’ में औरतों को तमाम अधिकार मिले. वास्तव में इस ‘फैमिली कोड’ का मूल स्वर यह था कि भविष्य में ‘विवाह’ और ‘फैमिली’ की संस्था को उसी तरह धीरे-धीरे खत्म हो जाना है, जैसे की राज्य को खत्म हो जाना है. (wither away) इस ‘फैमिली कोड’ की ‘आत्मा’ के अनुसार ही कोलंताई ने बच्चों के पालन पोषण के लिए तमाम शिशु–पालन गृह (Kindergarten), विशाल भोजनालय, और कपड़ों की धुलाई के लिए सार्वजनिक लांड्री खोले.
दरअसल कोलंताई ने एक उच्च धरातल पर उस अफ्रीकी सूक्ति को ही चरितार्थ किया, जिसके अनुसार ‘एक बच्चे के पालन पोषण के लिए पूरा गांव ज़िम्मेदार होता है.’ (it takes a village to raise a child). हालांकि कोलंताई की राह आसान नहीं थी. क्रांति के बाद भी उन्हें तमाम बाधाओं का सामना करना पड़ा.
अपनी पुस्तक ‘The Autobiography of a Sexually Emancipated Communist Woman’ में वे लिखती हैं- ‘मातृत्व व छोटे बच्चों की देखभाल के राष्ट्रीयकरण के मेरे प्रयासों के कारण मेरे उपर पागलपन की हद तक हमले हुए.’
खैर बोल्शेविक क्रांति और क्रांति बाद कोलंताई के क्रांतिकारी सुधारों के कारण महिलाओं ने हजारों साल बाद, पहली बार वास्तविक मुक्ति का स्वाद चखा और अपनी पूरी उर्जा उन्होंने मानवता के रथ को आगे ले जाने में लगा दिया.
अब प्यार सिर्फ़ प्यार था. चाहे वह स्त्री-पुरुष का प्यार हो या फिर मां-पिता और बेटे-बेटी के बीच या भाई-बहन के बीच या दोस्तों के बीच का प्यार हो. उसमें कहीं किसी स्वार्थ की गुंजाइश नहीं बची थी. मानवता के इतिहास में यह शानदार समय ज्यादा दिन नहीं रहा, इसके बहुत से कारण थे.
लेकिन आज हमे कोलंताई की तमाम किताबों पर पड़ी धूल को झाड़कर, उन्हें फिर से पढ़ना चाहिए और उस शानदार दौर को जानने का प्रयास करना चाहिए. तभी हममे वह प्रेरणा आयेगी और हम दुबारा से उस दौर को वापस लाने के बारे में कुछ कर पाएंगे.
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