प्रिय विनोदिनी !
कितना कुछ कहना शेष रह गया था
मेरे मूक रहने के बावजूद
तुम समझने लगी थीं उन सारी भाषाओं को
मेरे कमरे को सजाने लगी थीं मेरे हिसाब से
किताबों में कौन सी किताब पसंद थी
सिरहाने रख छोड़ जाती
क्या हुआ था विनोदिनी उस रात
तुम अचानक चली गई थीं
कुछ तो कह कर जातीं
सीढ़ियों से चढ़ते हुए पहली बार देखा था
सफ़ेद आंचल में लिपटी
किसी जंगल में झाड़ियों के बीच किसी सफ़ेद फूल की तरह
प्रथम नज़र का प्रेम हुआ था मुझे
क्षण भर में ही जीने के सारे ख़्वाब तुम्हारे साथ देख लिए थे
छ: वर्ष हुए तुम्हारी देह गंध से लिपटा रहा
प्रेम से तुम्हें ही देखा
प्रेम में तुम्हें ही जीया
आज जब बारिश का मौसम है
अंधेरे में हाथ को हाथ नहीं दिख रहा
इस वीरान रेलवे स्टेशन पर
जहां बिजली बत्ती सब गुल है
तुम अचानक मिली हो विनोदिनी !
मैं एक बार फिर से हार गया खुद को
तुम्हारे बाद मैंने किसी की तरफ नहीं देखा
कोई चित्त को शांत नहीं कर पाया
तुम लौट आई हो तो जी हरा हुआ है
रूको…रूको विनोदिनी !
छुक-छुक… छुक-छुक
बिहारी बाबू !
अगले जनम सिर्फ़ मेरे होना सिर्फ़ मेरे बिहारी बाबू
विनोदिनी !
- ज्योति रीता
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