अगर लोकप्रियता कोर्स में लगाने का पैमाना है तो यह हर लोग मानेंगे कि गुलशन नंदा या ओमप्रकाश शर्मा जैसे लेखकों के मुकाबले गालियां कहीं ज़्यादा लोकप्रिय हैं. इसलिए उनकी जगह गालियों को कोर्स में लगाया जाना चाहिए. वैसे भी गालियों पर बात करना ज़्यादा जरूरी है. देखा जाए तो गालियां सिर्फ लोकप्रिय ही नहीं हैं बल्कि इनका एक इतिहास भी है. और न सिर्फ इतिहास है बल्कि समाजशास्त्र भी है और राजनीतिशास्त्र भी. और खासियत यह है कि यह विधा ठहरी हुई नहीं है बल्कि जीवंत है.
सभ्यता के शुरूआती दिनों से ये मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा रही हैं. ये नित अपना कोष समृद्ध करती तमाम युगों को पार कर आज के आधुनिक समय में भी अपनी धार बरकरार रखी हुई है. समाज ने जाति, लिंग और रिश्ते के अन्तर्गत गालियां ईजाद की थी. उसी तरह से राजनीति ने भी गालियां गढ़ी. ब्रुटस, मीर जाफर, जयचंद वगैरह राजनीति की पुरानी गालियां हैं, अब इसी में काफी नयी गालियां भी जुड़ गयी हैं, जैसे – अंधभक्त, फेंकू, जुमलेबाज. लेकिन ये मामूली प्रभाव पैदा करनेवाली गालियां हैं क्योंकि ये किसी बड़े राजनीतिक संघर्ष से होकर नहीं निकली हैं. फासिस्ट या डिक्टेटर बड़ी गाली है क्योंकि इसे खत्म करने के लिए इतिहास में बड़ी शहादतें दी गयी हैं.
गालियां गढ़ने के मामले में अर्थशास्त्र के योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता है. निकम्मा, कंगाल, भिखारी, काहिल, कोढ़िया, फटेहाल जैसी गालियां यहीं से आयी हैं. सेठ एक बड़ी गाली है. कॉलेज के दिनों में मैं इस गाली का इस्तेमाल उन मित्रों के लिए करता था, जिनसे मुझे चाय पीनी होती थी. गाली तुरंत असर पैदा करती थी और वे चाय पिलाने को तैयार हो जाते थे.
बहुत बाद के दिनों में जब मैं दिल्ली आया और एक दुकानदार को मैंने सेठ कहा तो वह अंदर से खिल गया लेकिन ऊपर से झेंपता हुआ कहा, ‘अरे मैं सेठ कहां… लाइये चेंज दे दूं.’ मुझे समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि मैं दलालों की नगरी में आ गया हूं. सेठ यहां के लिए सम्मानसूचक शब्द है. मुझे लगा कि इसे धनपशु भी अगर कहा जाए तो यह बुरा नहीं मानेगा. फिर बहुत बाद में मैंने अपने प्रधानमंत्री को गर्व से कहते सुना कि – उनके खून में पैसा दौड़ता है. पूरे देश का नैतिक नक्शा बदल चुका था.
सच पूछिए तो साहित्य से लेकर संसद होते हुए सड़क तक गालियों के इस्तेमाल पर हज़ारों शोध की ज़रूरत है. हो सकता है शोध हुए भी हों फिर भी इनका कोर्स में लगना ज़रूरी है. ऐसा नहीं है कि गालियां सिर्फ गुस्सा और नफरत के इज़हार करते वक्त ही प्रकट होती हों बल्कि ये प्रेम के समय भी ज़ुबान पर आ जाती हैं. गालियों से तो कई बार लोग दोस्ती की प्रगाढ़ता का भी पता चला लेते हैं लेकिन कई बार इसका इस्तेमाल उपहास उड़ाने के लिए भी करीबी लोगों द्वारा किया जाता है.
यह सब मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना भर है कि गालियों के मामले में भी अध्ययन करने के लिए काफी कुछ है इसलिए अजय सिंह बिष्ट या उन जैसे तमाम मुख्यमंत्रियों से मेरा आग्रह है कि वे गंभीरतापूर्वक इस पर विचार करें और नंदाओं और शर्माओं से ज़्यादा अहमियत गालियों को दें और गालियों का एक पेपर तैयार करने का हुक्म दें.
इस काम में संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान राधावल्लभ त्रिपाठी जी आपकी मदद कर सकते हैं. ‘संस्कृत साहित्य में गालियां’ विषय पर मैंने उनका एक भाषण वीडियो पर सुना. इस विषय पर उनका गहन अध्ययन है. वे कह रहे थे कि संस्कृत साहित्य में गालियों का सम्पन्न भंडार है. ये गालियां ही हैं जो संस्कृत साहित्य को समृद्ध बनाती हैं. उन्होंने कहा कि गालियां ज़िंदा भाषाओं में होती हैं और संस्कृत एक ज़िंदा भाषा हुआ करती थी. यह सिर्फ वेद पुराणों की भाषा नहीं थी, यह बोलचाल की भी भाषा रही है. एक से एक सुंदर और बेहतरीन गालियां मिलेंगी यहां. इस पर काम करने की ज़रूरत है.
उन्होंने बताया कि अनुष्ठानों के अंग के रूप में गालियों का इस्तेमाल होता रहा है. गाली एक काव्य विधा है. इस आधार पर कहा जा सकता है कि अगर हिंदी को भी जीवंत भाषा बनाये रखना है तो गालियों को न सिर्फ बचाना होगा बल्कि नयी गालियां गढ़ने की कला भी विकसित करनी होगी.
कुछ लोग यह समझते हैं कि गालियां अरब से भारत आयी हैं. ठीक है कुछ शब्द वहां से ज़रूर आये हैं लेकिन गालियां हमारे यहां तब से हैं जब हमारे यहां सिकंदर का आना भी नहीं हुआ था. हरामी के लिए संस्कृत में शब्द था – दास्या: पुत्र (दासी का पुत्र क्योंकि पिता ज्ञात नहीं है). चंद्रगुप्त को चाणक्य हमेशा वृषल (शूद्र) कहकर ही बुलाता था.
सम्राट अशोक को ब्राह्मणों ने ‘देवनाम् प्रिय:’ कहा था. यह ढ़ाई हज़ार साल पहले की बात है. इस शब्द का अर्थ आज लोग कहेंगे कि जो देवताओं का प्रिय हो लेकिन उनके कहने का आशय ‘मूर्ख’ होता था. अपने राजा को मूर्ख या शूद्र कहकर वे गाली ही दे रहे थे. बाद के दिनों में भी हम देखते हैं कि शिवाजी का राज्याभिषेक ब्राह्मणों नें पांव के अंगूठे से माथे पर तिलक लगाकर किया था.
गाली में ताकत बहुत होती है. युद्ध में जीतता वही है जिसके पास गालियों का मारक हथियार होता है. स्कूल के दिनों में मेरा एक मित्र हुआ करता था. गालियां बहुत जानता था और बकता भी खूब था. उसका नाम हम सबने ‘गाली मास्टर’ रखा था. जब लड़कों के दूसरे ग्रुप से झगड़ा करना पड़ता था तो उसे हम अपने साथ ज़रूर लेकर जाते थे. वह अपनी गालियों की बौछार से सामने खड़े दुश्मनों का हौसला पस्त कर देता था. अक्सर हमलोग बिना लड़े ही जीत जाते थे और शोर मचाते वापस लौट जाते थे.
आर्यों की जीत के पीछे हो सकता है कि घोड़ों के पैरों में नाल का लगा होना एक बड़ा कारण हो, जैसा कि इतिहासकार लोग बताते हैं लेकिन मुझे लगता है कि उनके पास नपी तुली तगड़ी गालियों का समृद्ध भण्डार भी रहा होगा. शासन करने के लिए आपके तरकश में तीर का होना काफी नहीं. इसके लिए गालियों के विपुल भण्डार का होना भी ज़रूरी है. और अगर नहीं है तो गढ़ लीजिए और अपना भण्डार समृद्ध कीजिये. हां, उसका राजनीतिक इस्तेमाल करना भी ज़रूर जानिए.
अंग्रेजों ने यह काम बखूबी किया था. एक उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है. 1910 में बस्तर जिले में अंग्रेजी राज के खिलाफ भूमकाल नाम से एक ज़बरदस्त आंदोलन शुरू हुआ था, जिसकी बागडोर जननायक गुंडाधुर के हाथ में थी. अंग्रेज ख़ौफ़ खाते थे गुंडाधुर के नाम से. अब आप देखिये कि अंग्रेज किस तरह उनका सामना करते हैं.
उन्होंने 1930 में गुंडा ऐक्ट बनाया, उनके काम को दहशत पैदा करनेवाला कहकर अपराध की श्रेणी में डाल दिया और गुंडा शब्द को गाली के रूप में प्रचलित कर दिया. और आज उन्हें बस्तर से बाहर शायद ही कोई शहीद क्रांतिकारी के रूप में जानता हो.
इस तकनीक का इस्तेमाल आज की सरकारें भी करती हैं. जल जंगल ज़मीन की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों का दमन वह आज इसी तरीके से करती है. वह उन्हें माओवादी कहती है मानो माओ को मानना अपने आप में कोई अपराध हो. कल ये गांधी को माननेवालों को देशद्रोही कहे जाने का नैरेटिव गढ़ सकते हैं.
बर्बर कौन है और सभ्य कौन यह जानना हो तो सबसे पहले हमें देखना चाहिए कि उनकी भाषा में कितनी गालियां हैं. जिनकी भाषा में जितनी कम गालियां होंगी वह कौम उतनी ही सभ्य होगी. आदिवासियों की भाषाएं गाली रहित हैं. हरीराम मीणा कहते हैं –
‘आदिवासियों की भाषा के मूलस्वरूप में गाली नहीं है. वहां बलात्कार या यौन उत्पीड़न के लिए कोई शब्द नहीं क्योंकि आदिवासी समाज की मूल संस्कृति में दुराचार होता ही नहीं है.’
मुझे लगता है कि इस बात में सच्चाई है. वे सभ्य थे तभी तो हारे. क्योंकि इतिहास गवाह है कि जीतता हमेशा बर्बर कौम ही है. लेकिन हम नहीं मानेंगे कि जीतनेवाले गोरे लोग बर्बर थे क्योंकि हमें पढ़ाया गया है कि वे सभ्य थे. उसी तरह हम नहीं मानेंगे कि दलित इसलिए पिछड़ गये क्योंकि वे बर्बर नहीं थे, उनके पास सवर्णों के मुकाबले कम गालियां थीं और जो गालियां थीं वे वैसी नहीं थीं कि कोई उन्हें गालियां मानता क्योंकि उन शब्दों को अपमानजनक पृष्ठभूमि से वे जोड़ नहीं पाये थे.
जबकि सवर्णों के पास दलितों की जाति से लेकर उनके रोजगार तक से जुड़ी गालियों की भरमार थी. समाज में उनकी कमज़ोर आर्थिक स्थिति की वज़ह से उनके लिए पुकारे जाने वाले शब्दों को गाली में बदल देने में ब्राह्मणों को काफी सहुलियतें मिली.
इसके बाद ब्राह्मणों ने जो काम किया उसे उनका आजतक का सबसे बड़ा हथकंडा आप कह सकते हैं. उन्होंने कर्मों को पाप और पुण्य में बांट दिया. पुण्य यानी कि सम्मानजनक काम और पाप यानी कि अपमानजनक काम. फिर सुविधानुसार अपने कर्मों को पुण्य यानी कि सम्मान की झोली में तो दलितों के कर्मों को पाप यानी कि अपमान के खाते में डाल दिया. ऐसी सहुलियत दलितों के पास कभी नहीं रही.
इस तरह कामों के आधार पर जो श्रम विभाजन या वर्ग विभाजन हुआ था उसे उन्होंने पाप और पुण्य के रास्ते धर्म का आधार दे दिया और कामों के हिसाब से जातियां गढ़ ली और उन पर थोप दी. और जातियों की पूरी संरचना खड़ी कर दी. इस तरह जो गालियां पहले कामों से जुड़ी थी, वे गालियां अब जातियों से जुड़ गयीं. धर्म और जाति के आपसी संबंधों की पड़ताल यहां की जा सकती है.
जिस तरह से उन्होंने वर्ग विभाजन को वर्ण विभाजन में बदल दिया, क्या उसी तरह से आप वर्ण विभाजन को वर्ग विभाजन में वापस लाकर वर्ग संघर्ष का रास्ता तैयार कर सकते हैं ? नहीं कर सकते हैं. बीच में गालियां रुकावट बनकर खड़ी नज़र आएंगी. आज गालियां समाज में एक बड़े मूल्य के रूप में स्थापित हैं. आपको इन मूल्यों को ध्वस्त करना होगा तभी गालियां अपने अर्थ खोकर निरर्थक होंगी और तभी वर्ग में बंटा समाज जिसे वे वर्ण में बंटा दिखाते हैं, नष्ट होगा और वर्ग संघर्ष का रास्ता प्रशस्त होगा. जिसकी अपनी गालियां होंगी जो वर्ण व्यवस्था की गालियों से भिन्न होंगी.
महाराष्ट्र में दलित पैंथर आंदोलन पहला प्रयास था जब वर्ण व्यवस्था को तहस-नहस कर यह बतलाने की कोशिश की गयी थी कि यह वर्ग समाज है और समाज को शोषण मुक्त बनाने का एक ही रास्ता है और वह है वर्ग संघर्ष का रास्ता. दलित पैंथर का घोषणापत्र कहता है –
‘हमें ब्राह्मणों की गली में छोटी जगह नहीं चाहिए. हमें पूरी धरती चाहिए. हम व्यक्ति को नहीं देखते, हमारा लक्ष्य व्यवस्था परिवर्तन और मन के बदलाव पर है…. हम जानते हैं कि उदार शिक्षा हमारे शोषण की व्यवस्था को समाप्त नहीं कर सकती है.’
1973 के अपने इस घोषणापत्र में दलित पैंथर ने खुद को न सिर्फ दलित बल्कि सभी शोषित लोगों का रक्षक घोषित किया, जिसमें उसने सभी कृषि श्रमिक, छोटे किसान, औद्योगिक मज़दूर, बेरोजगार और महिला को शामिल किया. उन्होंने खुद को राजनीतिक शक्ति माना जो सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए प्रतिबद्ध है. 1972 में यह आंदोलन शुरू हुआ था. ज़ाहिर है कि इस आंदोलन पर अमेरिका के ब्लैक पैंथर आंदोलन के साथ साथ 67 के नक्सलबाड़ी आंदोलन का गहरा प्रभाव था.
लेकिन जब यही आंदोलन बाद के दिनों में उत्तर भारत के हिंदी प्रदेशों में पहुंचा तो पैंथर गायब हो गया. शोषित वर्ग दलित कही जानेवाली जातियों तक सिमट गया और इनकी लड़ाई ब्राह्मण की गली में कहीं भी थोड़ी जगह पाने तक सीमित हो गयी. जाहिर है कि राजनीतिक लड़ाई से ये बाहर हो चुके थे. इनकी ताकत इतनी ही रह गयी थी कि आरक्षण के प्रतिशत बढ़ाने के सवाल पर सरकार पर दबाव बनाने भर गोलबंद हो सकें और सरकार को इस बात के लिए तैयार कर लें कि अगर कोई उन्हें उनकी जाति के नाम से संबोधित करता है तो सरकार उसे कानूनन अपराध माने और दंडित करे.
वह क्यों चाहते थे ऐसा कानून ? जाहिर है कि अवचेतन में बसी गाली चेतना के स्तर पर उनका पीछा कर रही थी, जिससे वे भौतिक जगत में पीछा छुड़ाना चाहते थे. इस रास्ते उनके घाव की मलहम पट्टी तो थोड़ी बहुत हो जाती है लेकिन ज़ख़्म का हरापन बरकरार रहता है, जो चुनावी गणित में राजनीतिक दलों के काम आता है. ज़ाहिर है इस रास्ते मुक्ति संभव नहीं. दलित पैंथर के घोषणापत्र को अपनाना होगा. यही एकमात्र रास्ता है. यहीं वे बड़ी राजनीतिक गालियां ब्राह्मणवादियों के ख़िलाफ़ तैयार होंगी जो उन्हें शिकस्त देंगी.
अब सवाल यह उठता है कि क्या यह सरकार जो खुद गालियों पर टिकी हुई है, क्या इस तरह का कोर्स चलाएगी जो आगे चलकर उसी के गले की फांस बन जाए ? नहीं चलाएगी. अब यह कोर्स आपको सड़कों पर, खेतों में, खलिहानों में, कारखानों में खुद चलाना होगा. आपके हाथ में दलित पैंथर का घोषणापत्र है तो फिर दिक़्क़त क्या है ? आज से यह काम शुरू कर दिया जाना चाहिए.
- रंजीत वर्मा (‘आउट लुक’ पत्रिका से साभार)
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