जगदीश्वर चतुर्वेदी
हिंदी का लेखक अभी भी निजी प्रेम के बारे में बताने से भागता है लेकिन मुक्तिबोध पहले हिन्दी लेखक हैं जो अपने प्रेम का अपने ही शब्दों में बयान करते हैं. मुक्तिबोध का अपनी प्रेमिका जो बाद में पत्नी बनी, के साथ बड़ा ही गाढ़ा प्यार था. इस प्यार की हिन्दी में मिसाल नहीं मिलती. यह प्रेम उनका तब हुआ जब वे इंदौर में पढ़ते थे. शांताबाई को भी नहीं मालूम था कि आखिरकार मुक्तिबोध में ऐसा क्या है जो उन्हें खींच रहा था. वे दोनों जब भी मौका मिलता टुकुर टुकुर निहारते रहते. शांताबाई को भी जब भी मौका मिलता दौड़कर मुक्तिबोध के घर चली आती थी.
मुक्तिबोध ने अपनी पत्नी के बारे में लिखा मैंने जब इसे प्रथम बार देखा तो मुझे ऐसा लगा जैसे वह कुछ देर तक मेरे देखने के लिए मेरे सामने खड़ी रहे. मुझे अब तक इसकी हरी साड़ी याद आती है. मैं बहुत शरमानेवाला आदमी हूं. मैं स्त्रियों से बहुत कम मिलता हूं, मानो वहां मेरे लिए कुछ खतरा हो. खैर, पर यह स्त्री मुझसे अधिक चतुर और निडर थी. मुझसे इसने कबसे बोलना शुरू कर दिया, मुझे मालूम नहीं. मैं इसके साथ झेंपता हुआ बाजार जाया करता था. वह गर्दन नीची किए न मालूम कहां-कहां की गप्पें सुनाया करती, मेरे साथ चलते हुए.
एक अन्य किस्सा लिखा है. एक और दृश्य मेरे सामने आने से नहीं रूकता. मैं शाम को बहुत थक चुका था, बाहर घूमने जाकर. घर आकर खाना खाया तो नींद बहुत आने लगी. इसका गप्पें सुनाना बन्द ही न होता. यह अपने पलंग पे लेटी हुई थी. मेरे शरीर थके हुए से या न मालूम क्या देख, उसने मुझे पास लेट जाने के लिए कहा और मैं निर्दोष बालक के समान लेट भी गया. मैं नहीं जानता जगत इसका क्या अर्थ लेगा.
थोड़े ही दिनों बाद मैं निर्दोष बालक न रह गया. मेरे साथ मेरी आकर्षित मानसिक अवस्था, मेरा दुर्दम यौवन किसी साथी को पुकार उठा. मैं अपने मानसिक रंगों के पीछे पागल-सा घूमने लगा.
मुक्तिबोध ने शांताबाई के साथ अपने वातावरण की चर्चा विस्तार के साथ की है और लिखा है कि कमरे के दरवाजे से गुजरते हुए क्वार्टर के व्यक्ति पास आते नजर आते. क्वार्टरों में छोटे-छोटे बच्चे जिज्ञासा में कुछ खोजते. शान्ताबाई पास के क्वार्टर में रहती है. बुआ ने उसे कमरा-किचन दिला दिया है. शान्ता की मां नर्स है और सिर्फ मेरे घर झाड़ू-पोंछा करती है. शान्ता का चेहरा खिड़की से देखता हूं. वह उदास और खीझ से भरी है. मैं अपने कमरे में सबसे पृथक हूं. भीतर आने का कोई साहस नहीं करता.
उल्लेखनीय है मुक्तिबोध ने पहली बार अपने दोस्त वीरेन्द्र कुमार जैन को अपने प्रेम के बारे में बताया था और उस समय वे इंदौर के होलकर कॉलेज में पढ़ते थे. अपनी प्रेमिका को वह तोल्सस्तोय के उपन्यास ‘पुनरूत्थान’ की नायिका कात्यूशा में खोजते रहते थे, उन्होंने अपने को इसी उपन्यास के पात्र नेख्ल्दोव के रूप में तब्दील कर लिया था. उपन्यास में कात्यूशा की जगह शांताबाई लिख दिया. अपने और शांताबाई के बीच के संबंधों को याद करते हुए लिखा –
प्यार-शैया पर पड़ा मैं आज तेरी कर प्रतीक्षा,
ध्वान्त है, घर शून्य है, उर शून्य तेरी ही समीक्षा।
मुक्तिबोध ने लिखा हर आदमी अपनी प्राइवेट जिंदगी जी रहा है. या यों कहिए कि जो उसके व्यावसायिक और पारिवारक जीवन का दैनिक चक्कर है, उसे पूरा करके सिर्फ निजी जिंदगी जीना चाहता है. शान्ताबाई के प्रेम में मैं सिमट गया हूं. मैं भी वैसा ही कर रहा हूं. मैं उनसे जो निजी जिंदगी में लंपट हैं या लम्पटता को सुख मानते हैं, किसी भी हालत में बेहतर नही हूं. लेकिन यह मान लेने से, मेरे और शांताबाई के संबंधों की पार्थक्य की सत्ता मिटेगी ! क्या इससे हम दोनों का मन भरेगा, जी भरेगा ? यह बिलकुल सही है कि सच्चा जीना तो वह है जिसमें प्रत्येक क्षण आलोकपूर्ण और विद्युन्मय रहे, जिसमें मनुष्य की ऊष्मा का बोध प्राप्त हो.
मुक्तिबोध के एक दोस्त थे विलायतीराम घेई. उन्होंने जब शांताबाई से प्रेम का प्रसंग छेड़ दिया तो मुक्तिबोध ने शांताबाई के बारे में कहा, ‘पार्टनर, वह लड़की बावली है. किस कदर मुझे चाहती है, बताना कठिन है. वह प्यार में है. प्यार का संकल्प हमें बांधता है. मां जैसे आटे से अल्पना रचती है, एक दिन मेरे दरवाजे पर वह नमक बिखेर रही थी. वह दरवाजे पर नमक बिखेरकर मुझे अपने टोटकों से बांध रही थी. बड़ी ऊष्मा है उसके बंधन में, पार्टनर.’
एक अन्य प्रसंग का वर्णन करते हुए लिखा – उस दिन रविवार था. धूप बहुत ही तेज थी, और वह घर में बैठी हुई थी. मैं भी अपने रूम में लेटा हुआ था. एकाएक वह आ गयी और इठलाती हुई मेरे पलंग पर लेट गयी. एकदम मानो किसी स्निग्धता के आवेश से वह मेरे वालों पर हाथ फेरने लगी, कहते हुए – ‘बाबू, तुम्हारे कई बाल सफेद हो गए.’ मानो वह सारा ध्यान लगाकर उन्हें निकालने लगी कि उसने दूसरा शिथिल हाथ एकाएक छोड़ दिया जो मेरे नाक से फिसलता हुआ, होठों का स्पर्श करता हुआ, गोद में जा गिरा.
वह एक पांव नीचे रखे थी, एक पांव पलंग पर. अब उसने दोनों पांव पलंग पर रख दिए और उकड़ू बैठकर मेरे सिर के सफेद बाल चुनने लगी और इस तरह अपने शरीर का भार मुझ पर डाल दिया, जो मेरे लिए असह्य हो उठा था. मैं सोच रहा था, अपनी नयी प्रिया के संबंध पर. मुझे जैसे इस शान्ता का ख्याल ही न था.
मैं जब अपने जीवन के गहरे प्रश्न पर चिंतातुर होता हुआ भी विचार करते हुए जगा कि मैंने इसकी गोरी जांघ खुली पायी, उसके शरीर और वस्त्र की सुगंध पायी और उसके हाथ का स्पर्श.
मैं कह गया, ‘छि: छि:, कैसी तुम्हारी अवस्था है. अपनी साड़ी संभालो और जरा दूर हटो.’ वह मेरे वचन सुनकर मानो शर्म से गड़ गयी, शरीर शिथिल छोड़ दिया और मुंह तकिए में छिपा लिया. मैंने उसकी पीठ पर हाथ रखकर देखा तो मालूम हुआ कि वह कांपती -सी अंदर सिसक रही हो. सचमुच मेरी उस समय विचित्र अवस्था हो गयी.
मुक्तिबोध ने एक अन्य प्रसंग का वर्णन करते लिखा, ‘हम एक दफा एक अंग्रेजी फिल्म देखने गए. उसमें कई उत्तेजक बातें देखीं. सिनेमा खत्म होने के बाद, आम रास्ता छोड़कर हमें सुगंधित वृक्षों से ढंकी एक छोटी-सी पतली-सी गली में घुसना पड़ा. मैंने उसका हाथ पकड़ लिया. उसने पूछा – ‘ऊ, तुम्हारा हाथ कितना गरम है, कांप भी तो रहा है. तबीयत तो ठीक है ?’ पर मुझे उत्तर देने की फुरसत नहीं थी. घर आ गया.
‘… उसका सरल रीति से मेरे कब्जे में आ जाना मेरी वासना को उभाड़ने वाला बना… पर जैसे ही मैं उद्यत हो उठा और शरीर में बिजली चमक गयी, वैसे ही वह भी उठी और मेरे हाथ को दूर करते हुए कहा – ‘छि:- छि: यह क्या करते हो ! मेरे अंग खुले करने में तुम्हें शर्म नहीं आती ! दूर हो, क्या उस दिन की तुम्हें याद नहीं ?’
मुक्तिबोध ने लिखा कि शरदचन्द्र की नारी जितनी जल्दी रो देती है, मेरी शान्ता उतनी भावुक नहीं है. वह मेरी कल्पना और ठोस 19-20 साल की युवावस्था के बीच एक समस्या-सी बन गयी. वह समस्या नेख्ल्दोव और उसकी आधी नौकरानी और आधी कुलीन प्रेमिका कात्यूशा से जटिल और ठोस है.
काश हमारे मुक्तिबोध के आलोचक और भक्त कविगण उनके इस तरह के पारदर्शी प्रेमाख्यान के वर्णन से कुछ सीख पाते और साफगोई के साथ अपने बारे में लिख पाते तो मुक्तिबोध की परंपरा का ज्यादा सार्थक ढ़ंग से विकास होता.
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