‘मैं उस सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा जो पहले से ही नंगी है. उसे कपड़े पहनाना मेरा काम नहीं है. यह काम दर्जी का है.’ – मंटो
मनीष आजाद
मंटो कुछ उन कलाकारों में से थे जिन्हें अपनी कला या अपने सच पर इस कदर आस्था थी कि वे उसके पोषण के लिए खुद अपना ही शिकार करने को बाध्य हो जाते थे. इसे ही ‘आत्महंता आस्था’ कहते हैं. उन्हीं के समकालीन बंगाल के ‘ऋत्विक घटक’ भी ऐसे ही कलाकार थे. दोनों को ही अपने जीते जी वो सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने अपने कारणों से दोनों को ही उस समय की प्रगतिशील धारा (मुख्यतः ‘इप्टा’ और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’) से तिरस्कार मिला, जिससे उन्हें गहरी पीड़ा हुई.
दरअसल कोई भी कलाकार उस समय अपने को बहुत अकेला महसूस करने लगता है जब उसके अपने सहोदर लोग ही उसे ना समझ पायें या गलत समझ लें. यही वह समय होता है जब वह अपने भीतर ही विस्फोट करने को बाध्य हो जाता है. यह विस्फोट भले ही उस कलाकार के चीथड़े उड़ा दे, लेकिन इसकी अनुगूंज भविष्य में प्रगतिशील धारा के मुहाने को और चौड़ा बनाने में सफल होती है. मंटो भी इसमें सफल रहे. आज मंटो की रचनाओं के विषय ‘जदीदियत’ और ‘तरक्की पसन्द’ अदब का अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं.
यूरोप में एक समय ‘काफ्का’ को ‘लूकाच’ समर्थक परम्परागत मार्क्सवादी आलोचक, पूंजीवादी-पतित लेखक ही मानते थे. बाद में ‘ब्रेख्त’ और अन्य मार्क्सवादी रचनाकारों ने उन्हें साहित्य में स्थापित किया और प्रगतिशील-मार्क्सवादी धारा का मुहाना और चौड़ा किया. मंटों की तुलना अक्सर फ्रांसीसी रचनाकार ‘मोपांसा’ से की जाती है. यह आश्चर्यजनक है कि मोपांसा पर ‘तोलस्तोय’ ने अश्लीलता और आम लोगो में भविष्य ना देख पाने का लगभग वही आरोप लगाया था जो मंटो पर उनके समकालीन प्रगतिशीलों ने लगाया था.
मंटो ने अपनी रचनाओं में उस दौर के विभाजन के दर्द और उसकी त्रासदी को जिस मानवीय स्तर पर पेश किया है, वह अकल्पनीय है. यह याद करना जरूरी है कि इस विभाजन में करीब 15 लाख लोग मारे गये थे और करीब 2 करोड़ लोगों को इधर से उधर पलायन करना पड़ा था. मंटो का बाम्बे से लाहौर प्रवास इसी दर्दनाक विभाजन के बीच हुआ. इसी मानवीय विपदा के बीच दोनों मुल्कों की ‘आजादी’ आयी. मंटो ने इसे उस पंक्षी की आजादी की संज्ञा दी, जिसके दोनों पर काट दिये गये हों. क्या बेहतरीन कमेन्ट है, दोनों मुल्कों की तथाकथित आजादी पर.
दरअसल इस तरह के विभाजनों, युद्धों, बड़े दंगों, फासीवाद के दौरान होने वाली क्रूरताओं में जनता का एक हिस्सा एक तरह से ‘बैनलटी ऑफ इविल’ (banality of evil) का शिकार हो जाता है. इसे मशहूर दार्शनिक ‘हाना अरेन्ट’ (Hannah Arendt) ने इस रूप में व्याख्यायित किया है कि ऐसे समय जनता के इर्द गिर्द जो माहौल होता है उसमें जनता को यह नहीं लगता कि वह कोई बुरा काम कर रही है. यानी बुराई को यहां एक जस्टीफिकेशन मिल जाता है और यह ‘न्यू नार्मल’ हो जाता है.
मंटो ने अपनी प्रसिद्ध कहानी ‘ठण्डा गोश्त’ में इसी ‘बैनलटी ऑफ इविल’ की बात की है, जब कहानी का पात्र ‘ईश्वर सिंह’ एक मुस्लिम घर में सभी पुरूष सदस्यों की हत्या करके, उस घर की एकमात्र महिला सदस्य को अपने कंघे पर उठाकर झाड़ियों में बलात्कार के लिए ले जाता है. लेकिन यह कहानी बड़ी कहानी इसलिए बन जाती है कि मंटो ने दिखाया है कि ‘बैनलटी ऑफ इविल’ का शिकार होने के बावजूद उस समय उसका जमीर वापस आ जाता है जब उसे पता चलता है कि जिसके साथ उसने बलात्कार किया है वह तो ‘ठण्डा गोश्त’ था, यानी वह महिला मरी हुई थी. और इसके असर से अपनी पत्नी के साथ बिस्तर में ईश्वर सिंह खुद एक ठंडे गोश्त में बदल जाता है. आश्चर्य है कि फैज़ अहमद फैज़ भी इस रचना के महत्त्व को नहीं समझ पाए थे.
किसी ने कहा है कि अच्छी रचना वही होती है जो आपको शॉक दे. मंटो की कहानियां अपने पाठकों को अनेक स्तर पर शॉक देती है. मंटो पर बनी नंदिता दास की फिल्म में मंटो के अजीज मित्र ‘श्याम’ जब शराब की बोतल दिखाते हुए मंटो से कहते हैं कि तुम कहां के मुसलमान हुए तो मंटो का जवाब है- ‘इतना तो हूं ही कि दंगे में मारा जा सकूं.’ मंटो का यह कथन आपको हिलाकर रख देता है.
अंत में, मंटो के ही एक कथन से इसे समाप्त करना ठीक होगा.
‘हिन्दोस्तान आजाद हो गया, पाकिस्तान भी स्वाधीन हो गया. लेकिन दोनो ही मुल्को में मनुष्य अभी भी गुलाम है- अपने पूर्वाग्रहों का गुलाम, धार्मिक कट्टरता का गुलाम, बर्बरता और अमानवीयता का गुलाम.’
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