ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है – ‘दु:खी होना और दु:खी करना.’ अर्थात दूसरों के सुखों से दुखी होना और अपने सुख के लिए अन्यों के सुख-संसाधनों को चालाकी से हड़पकर उन्हें दुखी बनाना.
इस प्रवृत्ति यानी दुःखी होने की शुरुआत ब्राह्मणों से हुई इसीलिए इसे ब्राह्मणवाद कहते हैं. ब्राह्मण के दुःख की शुरुआत इस देश के बहुसंख्यक शूद्रों से हुई, जिसका उन्होंने बाकायदा ऐलान भी किया –
घृतं दुग्धं च ताम्बूलं श्रेष्ठत अन्न तथैव च शूद्रं वर्जयेत।
एषां ब्राह्मणं दुखं भवेत्।
न उच्चस्थानं तिष्ठति न गृहे वासते न शुद्धं जलं पिवैत।
एषां करणात ब्राह्मणं दुखं भवेत्। – तैत्तिरीय ब्राह्मण
अर्थात, घी, दूध, पान, अच्छे अनाज आदि का सेवन शूद्रों के लिए वर्जित है. इससे ब्राह्मण को दु:ख होता है. शूद्र को ऊंचे स्थान (कुर्सी, मोढ़ा, चारपाई) पर नहीं बैठना चाहिए, न घर में रहना चाहिए, न साफ़ पानी पीना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से ब्राह्मण को दु:ख होता है.
मतलब यह कि ब्राह्मण का दु:ख तभी दूर हो सकता है जब शूद्र केवल कोदौ, बाजरा ही खाये. घासफूस की मड़ैया में रहें, जमीन पर सोये, गंदे तालाबों का पानी पिये और अपना उपार्जित घी, दूध, गेहूं, चावल आदि अच्छी चीजें ब्राह्मण को दान में दे दे क्योंकि ब्राह्मण की सेवा के लिए ही वह पैदा हुआ है. (देखें मनुस्मृति 1/91)
अब प्रश्न ये है कि शूद्रों से ब्राह्मणों को इतनी नफ़रत क्यों है कि वे उन्हें दुःखी रखना चाहते हैं ? इसका उत्तर भी तैत्तिरीय ब्राह्मण (1/2/2/6-7) में यह कहकर देता है कि ‘ब्राह्मण की उत्पत्ति देवताओं से और शूद्रों की उत्पत्ति असुरों से हुई है. जो सच ही है.
सारे वेद, पुराण, आर्य-अनार्यों, देवताओं व असुरों के संग्राम से भरे पड़े हैं. अनार्यों, असुरों को ही दैत्य, दानव, राक्षस और फिर शूद्र की संज्ञा दी गई. चूंकि शूद्रों के पूर्वज इनसे लडे थे इसीलिए ये इनके अच्छा खाने पीने, अच्छी तरह रहने से ये आज भी दु:खी रहते हैं.
ऐसा नहीं है ये शूद्रों से ही नफ़रत करते हैं, द्विजाति (जनेऊधारी) क्षत्रियों और वैश्यों से भी करते हैं. पुराणों में ब्राह्मण क्षत्रियों से लड़ते रहे. ब्राह्मण परशुराम ने तो उनके गर्भस्थ शिशुओं को भी नहीं छोड़ा. वैश्य को तो गीताकार ने पापयोनि अर्थात पाप की पैदाइश घोषित कर रखा है है. (गीता 9/32)
इस प्रकार ब्राह्मण सबके सुखों से दुःखी होता है. सबसे नफ़रत करता है पर बदले में उससे कोई द्वैष न करे. वह सबका पूज्य बना रहे, सब उससे डरते रहे ऐसी व्यवस्था भी कर रखी है –
एवं वैश्यांश्च शूद्रांश्च क्षत्रियांश्च विकर्मभि:।
ये ब्राह्मणेन प्रद्विश्यंति ते भवंतिह राक्षसा:।।
(वामन पुराण अ 31/34)
अर्थात जो क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ब्राह्मणों से द्वेष करते हैं वे राक्षस हो जाते हैं.
ब्राह्मण अपने इस ब्राह्मणवाद में पूरी तरह कामयाब रहा वह इसलिए कि उसने सीढ़ीनुमा जातियों की श्रृंखला बनाई और उनमें अपने ब्राहमणवाद की भावना इस कदर भरी कि चमार से लेकर पासी और कहार से लेकर काछी और अहीर से लेकर कुर्मी तक हर जाति अपने से नीची वाली जाति के सुख से दुःखी होती है और उससे मुफ्त या न्यूनतम मूल्य पर उसकी सेवा लेना चाहती हैं तो नीची वाली जाति उससे नफ़रत करती है.
शूद्रों में बराबरी वाली जातियां एक दूसरे से ईर्ष्या द्वेष करती हैं और अपना हक हड़पने का उस पर दावा ठोकती है. परिणामस्वरुप वे कभी एक नहीं हो पाती.
इस प्रकार सभी जातियां ब्राह्मणवादी है और यह ब्राह्मणवाद ही उन्हें अकेले अकेले रखता है और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सबका हक हडप कर भी पूज्य बना रहता है क्योंकि उसके विरोध करने से राक्षस हो जाने का सबको डर है.
जिनको डर नहीं है, जो सच्चाई बताते हैं वे ब्राह्मणवादी शूद्रों द्वारा सचमुच राक्षस करार दे दिये जाते हैं इसीलिए ब्राह्मण का ब्राह्मणवाद अवाध रूप से चलता आ रहा है.
जब तक शूद्रजातियां आधुनिक राक्षसों से ज्ञान लेकर अपने अंदर का ब्राह्मण नहीं निकालती है, कभी अपने हक नहीं पा सकते. आज ब्राह्मण से लडने या उसकी निंदा भर्त्सना की कतई आवश्यकता नहीं हैं. आवश्यकता है अपने अहं को, अपने अंदर बैठे ब्राह्मणवाद को मारकर शुद्ध इंसान बनने की.
- शशिकांत
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