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एन्नु स्वाथम श्रीधरन : द रियल केरला स्टोरी

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एन्नु स्वाथम श्रीधरन : द रियल केरला स्टोरी
एन्नु स्वाथम श्रीधरन : द रियल केरला स्टोरी

एक फालतू और बकबास मुद्दे को उठाकर बनाया गया थर्ड ग्रेड साम्प्रदायिक नफरत परोसती फिल्म ‘केरला स्टोरी’ जितनी ही बकबास है उतनी ही जल्दी उसका हश्र भी तय हो गया. केरला में लापता हुई तीन लड़कियों के काल्पनिक आधार पर बनी यह फिल्म असल में संघी प्रयोगशाला गुजरात में महज पांच साल में लापता हुई 40 हजार लड़कियों की दर्दनाक घटना को छिपाने की मक्कारी भरी कोशिश है.

न केवल केरल बल्कि सारे देश में हजारों ऐसी घटनाएं हैं, जो साम्प्रदायिक सौहार्द की बेजोड़ मिसाल पेश करती है. अगर हम संदर्भवश केरल की ही बात करें तो केरल के ही कासरगोड के अब्दुल्ला व उनकी पत्नी खदीजा ने 10 साल की एक हिंदू लड़की को गोद लिया था, जिस लड़की ने अपने माता-पिता को खो दिया था, वह अभी 22 साल की है. अब्दुल्ला व उनकी पत्नी खदीजा ने पूरे हिंदू रीति-रिवाजों के साथ उसकी शादी एक हिंदू लड़के से कर दी.

लेकिन सच्ची सौहार्द की ऐसी सच्ची मिसालों पर संघी सड़ांध अपना वक्त जाया नहीं करता. वह देश और समाज को बांटने वाली, देश में नफरत फैलाने वाली फर्जी कहानियां सुनाता है. यहां हम ‘एन्नु स्वाथम श्रीधरन’ फिल्म, जो एक ऐसी ही सच्ची घटना पर आधारित है, पेश कर रहे हैं जिसकी बेहतरीन समीक्षा कश्मीरा शाह चतुर्वेदी ने की है.

ओमान में रहने वाले केरल के ज़फ़र खान अपने अनुसूचित जाति एक हिंदू दोस्त के साथ ‘एन्नु स्वाथम श्रीधरन’ फिल्म देखने बैठे तो वह और उनके दोस्त ओमान के उस थिएटर में लगातार तीन घंटे रोते रहे और फ़िल्म के अंत तक उनकी आंखों से आंसू बहते रहे.

कुछ दिनों बाद, ज़फ़र खान ओमान से अपने घर कोझीकोड से क़रीब 70 किलोमीटर दूर कालीकावू आए और अपनी मां की क़ब्र पर पहुंचे तो देख कर हैरान रह गए कि उनकी मां की क़ब्र पूरे कब्रिस्तान की कब्रों से सबसे साफ सुथरी थी और फूलों से सजी थी.

ज़फ़र खान, हर शाम अपनी मां की क़ब्र पर जाते और वह अपनी मां की क़ब्र वैसे ही पाते, ना कोई धूल‌ और पेड़ों की पत्ती ना कोई गंदगी, बल्कि फूलों से सजी रहती.

एक दिन वह कब्रिस्तान कुछ पहले पहुंचे तो देखा कि ओमान का उनका वही अनुसूचित जाति का हिंदू दोस्त ‘श्रीधरन’ उनकी मां की क़ब्र पर फैली पत्तियां साफ कर रहा है, कब्र पर पानी का छिड़काव कर रहा है और फिर कब्र साफ करके उन पर फूल बिखेर रहा है.

ज़फ़र खान अपनी मां की क़ब्र के पास पहुंचे तो उनके दोस्त श्रीधरन ज़फ़र खान से लिपट कर रोते रहे. यह कब्र केरल की रहने वाली एक बेहद धार्मिक मुस्लिम महिला ‘थेननदन सुबैदा’ की थी.

अनुसूचित जाति के श्रीधरन की मां ‘चक्की’ इन्हीं अब्दुल अज़ीज़ हाजी और उनकी पत्नी थेननन सुबैदा के घर काम करती थीं. चक्की जब गर्भवती थीं तभी उनकी मृत्यु हो गई और वह अपने पीछे 2 साल के बेटे श्रीधरन, 7 साल की एक बेटी लीला और 12 साल की बड़ी बेटी रमानी छोड़ गयी.

सुबह जब सुबैदा को चक्की की मौत की सूचना मिली तो वह उसके घर गयीं और जब वापस लौटीं तो उनकी गोद में 2 साल के श्रीधरन और उनकी उंगलियां पकड़े लीला और रमानी थी.

घर आकर उन्होंने कहा कि ‘अब इन बच्चों का कोई नहीं है, ये हमारे घर में रहेंगे.’ श्रीधरन और लीला तो सुबैदा के साथ घर के अंदर आ गये मगर रमानी झिझक कर दरवाज़े पर खड़ी हो गई. तब अब्दुल अज़ीज़ हाजी का मां ने अपने 7 साल के पोते शाहनवाज़ खान से कहा कि जाओ और जाकर रमानी को लेकर आओ.

अब उस घर में कुल 5 बच्चे थे. 7 साल के शहनवाज खान और लीला, 2 साल के ज़फ़र खान और श्रीधरन तथा 12 साल की रमानी. शाहनवाज़ खान और ज़फ़र खान, अब्दुल अज़ीज़ हाजी और थेननन सुबैदा के बच्चे थे.

इन पांचों बच्चों के लालन पालन में थेननन सुबैदा ने कोई फर्क नहीं रखा. ज़फ़र खान और श्रीधरन सुबैदा के साथ सोते और शेष तीनों ज़मीन पर नीचे.

एक दिन रमानी ने सुबैदा से कहा कि उसे मंदिर जाना है. मंदिर सुबैदा के घर से काफ़ी दूर था और रास्ता और यातायात भी ठीक नहीं था, सुबैदा रमानी को लेकर मंदिर के लिए निकल पड़ी.

और फ़िर हर हफ़्ते ही वह रमानी को लेकर मंदिर जातीं और रमानी पूजा कर लेती तो लेकर वापस आती. फिर लीला और श्रीधरन भी बड़े होने लगे तो उन्हें भी रमानी के साथ मंदिर ले जातीं और पूजा के बाद वापस ले आतीं.

अनुसूचित जाति की स्वर्गीय महिला ‘चक्की’ के तीनों बच्चे एक कट्टर धार्मिक मुस्लिम परिवार में अपने हिंदू धर्म का पालन करते हुए बड़े होते गये. थेननदन सुबैदा सभी पांचों बच्चों को समझाती और सिखाती कि ‘चाहे इस्लाम हो, ईसाई धर्म हो या फिर हिंदू धर्म, सभी एक ही बात सिखाते हैं, वो ये कि सभी से प्यार करो और सबका सम्मान करो.’

थेननन सुबैदा ने कभी भी चक्की के बच्चों का धर्म परिवर्तन करने का नहीं सोचा, ना इस्लाम अपनाने के लिए कहा और यह धार्मिक मुसलमान महिला थेननदन सुबैदा ने श्रीधरन और उसकी दो बहनों रमानी और लीला को अपने तीन सगे बच्चों की तरह पाल कर बड़ा किया.

जब बच्चे बड़े हो रहे थे तो श्रीधरन और जाफ़र ख़ान जुड़वा लगते थे, और दोनों में श्रीधरन थेननन‌ सुबैदा को सबसे प्रिय थे. वह उन पर अधिक विश्वास करतीं और पैसे भी सबसे अधिक उन्हें ही देती.

शाहनवाज़ और जाफ़र दोनों से अधिक श्रीधरन मां थेननन सुबैदा के सबसे पसंदीदा बेटे थे और उन्होंने अपनी 45 साल की उम्र में 17 जून 2019 को सोशल मीडिया पर एक पोस्ट लिखी – ‘मेरी उम्मा को अल्लाह ने बुला लिया है. कृपया उनके लिए दुआ करें ताकि जन्नत में उनका शानदार स्वागत हो.’

अपनी पोस्ट के अंत में श्रीधरन ने लिखा कि ‘उन्हें अपनाने वाले उम्मा और उप्पा ने कभी भी उनसे धर्म बदलने के लिए नहीं कहा.’ ध्यान दीजिए कि केरल में मुसलमान मां के लिए अम्मा या उम्मा शब्द का प्रयोग करते हैं.

थेननन‌ सुबैदा दुनिया के सामने नहीं आतीं यदि फिल्म निर्देशक ‘सिद्दीक़ परवूर’ ने श्रीधरन की पोस्ट नहीं देखी होती. उन्होंने श्रीधरन से संपर्क किया और मलयालम फ़िल्म बनी ‘एन्नु स्वाथम श्रीधरन’ या हिंदी में कहें तो ‘मेरा अपना श्रीधरन’ जिसे ओमान के थिएटर में बैठे ज़फ़र खान और श्रीधरन रोते हुए देखते रहे.

इस फिल्म में श्रीधरन ने बताया कि उम्मा ने उन्हें कैसे पाला. वो कहते हैं, ‘ये मेरे लिए दर्दनाक था क्योंकि मुझे पालने वाली मेरी मां और पिता ने हमें कभी धर्म जाति के बारे में नहीं बताया था. उन्होंने बताया था कि हमें अच्छाई की ज़रूरत है.’

थेननन‌ सुबैदा के नाम एक ज़मीन थी जिसे मृत्यु के पहले उन्होंने ₹12 लाख में बेचकर बराबर से मंदिर और मस्जिद को दान कर दिया. उनके पति अब्दुल अज़ीज़ हाजी की संपत्ति को सभी 5 बच्चों में बराबर बराबर से बांट दिया गया.

भावना को उधेड़ देने वाली यह फिल्म मानवीय संवेदनाओं को हिला देती है. श्रीधरन और जाफर ही नहीं सबको रोने पर मजबूर कर देती है.

यह फिल्म ‘एन्नु स्वाथम श्रीधरन’ बुरी तरह फ्लॉप हुई. विशेषकर गोबर पट्टी में मलयालम फिल्मों में गरम गरम दृश्य देखने जाते लोगों ने भी इसे नोटिस नहीं लिया.

किसी राज्य ने टैक्स फ्री भी नहीं किया. किसी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने इसे लेकर कोई प्रचार अभियान भी नहीं चलाया‌. ना राष्ट्रपति भवन में इसकी स्क्रीनिंग की गयी.

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