जगदीश्वर चतुर्वेदी
5वी शताब्दी ई. में फ़ाह्यान भारत आया तो उसने भिक्षुओं से भरे हुए अनेक विहार देखे. 7वीं शताब्दी में हुएन-सांग ने भी यहां अनेक विहारों को देखा. इन दोनों चीनी यात्रियों ने अपनी यात्रा में यहां का वर्णन किया है. ‘पीतू’ देश से होता हुआ चीनी यात्री फ़ाह्यान 80 योजन चलकर मताउला (मथुरा) जनपद पहुंचा था. इस समय यहां बौद्ध धर्म अपने विकास की चरम सीमा पर था. उसने लिखा है कि यहां 20 से भी अधिक संघाराम थे, जिनमें लगभग तीन सहस्र से अधिक भिक्षु रहा करते थे. यहां के निवासी अत्यंत श्रद्धालु और साधुओं का आदर करने वाले थे. राजा भिक्षा (भेंट) देते समय अपने मुकुट उतार लिया करते थे और अपने परिजन तथा अमात्यों के साथ अपने हाथों से दान करते (देते) थे. यहां अपने-आपसी झगड़ों को स्वयं तय किया जाता था; किसी न्यायाधीश या क़ानून की शरण नहीं लेनी पड़ती थीं. नागरिक राजा की भूमि को जोतते थे तथा उपज का कुछ भाग राजकोष में देते थे. मथुरा की जलवायु शीतोष्ण थी. नागरिक सुखी थे. राजा प्राणदंड नहीं देता था, शारीरिक दंड भी नहीं दिया जाता था. अपराधी को अवस्थानुसार उत्तर या मध्यम अर्थदंड दिया जाता था. अपराधों की पुनरावृत्ति होने पर दाहिना हाथ काट दिया जाता था.
फ़ाह्यान लिखता हैं कि पूरे राज्य में चांडालों को छोड़कर कोई निवासी जीव-हिंसा नहीं करता था. मद्यपान नहीं किया जाता था और न ही लहसुन-प्याज का सेवन किया जाता था. चांडाल (दस्यु) नगर के बाहर निवास करते थे. क्रय-विक्रय में सिक्कों एवं कौड़ियों का प्रचलन था. बौद्ध ग्रंथों में शूरसेन के शासक अवंति पुत्र की चर्चा है, जो उज्जयिनी के राजवंश से संबंधित था. इस शासक ने बुद्ध के एक शिष्य महाकाच्यायन से ब्राह्मण धर्म पर वाद-विवाद भी किया था. भगवान् बुद्ध शूरसेन जनपद में एक बार मथुरा गए थे, जहां आनंद ने उन्हें उरुमुंड पर्वत पर स्थित गहरे नीले रंग का एक हरा-भरा वन दिखलाया था. मिलिन्दपन्ह में इसका वर्णन भारत के प्रसिद्ध स्थानों में हुआ है. इसी ग्रंथ में प्रसिद्ध नगरों एवम् उनके निवासियों के नाम के एक प्रसंग में माधुर का (मथुरा के निवासी का भी उल्लेख मिलता है, जिससे ज्ञात होता है कि राजा मिलिंद (मिनांडर) के समय (150 ई. पू.) मथुरा नगर पालि परंपरा में एक प्रतिष्ठित नगर के रूप में विख्यात हो चुका था.
भगवान बुद्ध प्रज्ञा व करुणा की मूर्ति थे. ये दोनों गुण उनमें उत्कर्ष की पराकाष्ठा प्राप्त कर समरस होकर स्थित थे. इतना ही नहीं, भगवान बुद्ध अत्यन्त उपायकुशल भी थे. उपाय कौशल बुद्ध का एक विशिष्ट गुण है अर्थात वे विविध प्रकार के जनों को विविध उपायों से सन्मार्ग पर आरूढ़ करने में अत्यन्त प्रवीण थे. वे यह भलीभांति जानते थे कि किसे किस उपाय से सन्मार्ग पर आरूढ़ किया जा सकता है. फलत: वे विभिन्न जनों को विचार, रूचि, अध्याशय, स्वभाव, क्षमता और परिस्थिति के अनुरूप उपदेश दिया करते थे.
भगवान बुद्ध की दूसरी विशेषता यह है कि वे सन्मार्ग के उपदेश द्वारा ही अपने जगत्कल्याण के कार्य का सम्पादन करते हैं, न कि वरदान या ऋद्धि के बल से, जैसे कि शिव या विष्णु आदि के बारे में अनेक कथाएं पुराणों में प्रचलित हैं. उनका कहना है कि तथागत तो मात्र उपदेष्टा हैं, कृत्यसम्पादन तो स्वयं साधक व्यक्ति को ही करना है. वे जिसका कल्याण करना चाहते हैं, उसे धर्मों (पदार्थों) की यथार्थता का उपदेश देते थे. भगवान बुद्ध ने भिन्न-भिन्न समय और भिन्न-भिन्न स्थानों में विनेय जनों को अनन्त उपदेश दिये थे. सबके विषय, प्रयोजन और पात्र भिन्न-भिन्न थे. ऐसा होने पर भी समस्त उपदेशों का अन्तिम लक्ष्य एक ही था और वह था विनेय जनों को दु:खों से मुक्ति की ओर ले जाना. मोक्ष या निर्वाण ही उनके समस्त उपदेशों का एकमात्र रस है.
मनुष्य जिन दु:खों से पीड़ित है, उनमें बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे दु:खों का है, जिन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञान, ग़लत ज्ञान या मिथ्या दृष्टियों से पैदा कर लिया हैं. उन दु:खों का प्रहाण अपने सही ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, किसी के आशीर्वाद या वरदान से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता. सत्य या यथार्थता का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है. अत: सत्य की खोज दु:खमोक्ष के लिए परमावश्यक है. खोज अज्ञात सत्य की ही की जा सकती है. यदि सत्य किसी शास्त्र, आगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो उसकी खोज नहीं. अत: बुद्ध ने अपने पूर्ववर्ती लोगों द्वारा या परम्परा द्वारा बताए सत्य को नकार दिया और अपने लिए नए सिरे से उसकी खोज की.
बुद्ध स्वयं कहीं प्रतिबद्ध नहीं हुए और न तो अपने शिष्यों को उन्होंने कहीं बांधा. उन्होंने कहा कि मेरी बात को भी इसलिए चुपचाप न मान लो कि उसे बुद्ध ने कही है. उस पर भी सन्देह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो. जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो, यदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो. यही कारण था कि उनका धर्म रहस्याडम्बरों से मुक्त, मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत एवं हृदय को सीधे स्पर्श करता था.
गृहत्याग करने के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में भटकने लगे. बिंबिसार, उद्रक, आलार एवम् कालाम नामक सांख्योपदेशकों से मिलकर वे उरुवेला की रमणीय वनस्थली में जा पहुँचे. वहां उन्हें कौंडिल्य आदि पांच साधक मिले. उन्होंने ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर साधना प्रारंभ कर दी किंतु उसमें असफल होने पर वे गया के निकट एक वटवृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्त रहूंगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूं. सात दिन और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद, आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत हो गये. जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी ‘बोधिवृक्ष’ के नाम से विख्यात है. ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था 35 वर्ष थी. ज्ञान प्राप्ति के बाद ‘तपस्सु’ तथा ‘काल्लिक’ नामक दो शूद्र उनके पास आये. महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयायी बनाया.
अश्वघोष की महान कृति बुद्धचरित का सारसंक्षेप
बुद्धचरित की कथावस्तु गौतम बुद्ध के जन्म से लेकर निर्वाण-प्राप्ति तथा धर्मोपदेश देने तक परिव्याप्त है. कपिलवस्तु जनपद के शाक्वंशीय राजा शुद्धोदन की पत्नी महारानी मायादेवी एक रात स्वप्न में एक गजराज को उनके शरीर में प्रविष्ट होते देखती है. लुम्बिनीवन के पावन वातावरण में वह एक बालक को जन्म देती है. बालक भविष्यवाणी करता है- मैंने लोककल्याण तथा ज्ञानार्जन के लिए जन्म लिया है. ब्राह्मण भी तत्कालीन शकुनों और शुभलक्षणों के आधार पर भविष्यवाणी करते हैं कि यह बालक भविष्य में ऋषि अथवा सम्राट होगा.
महर्षि असित भी राजा से स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि आपका पुत्र बोध के लिए जन्मा है. बालक को देखते ही राजा की आंखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है. राजा अपने शोक का कारण बताता है कि जब यह बालक युवावस्था में धर्म-प्रवर्तन करेगा तब मैं नहीं रहूंगा. बालक का सर्वार्थसिद्ध नामकरण किया जाता है. कुमार सर्वार्थसिद्ध की शैशवावस्था से ही सांसारिक विषयों की ओर आसक्त करने की चेष्टा की गई. उन्हें राजप्रासाद के भीतर रखा जाने लगा तथा बाह्य-भ्रमण प्रतिषिद्ध कर दिया गया. उनका विवाह यशोधरा नामक सुन्दरी से किया गया, जिससे राहुल नामक पुत्र हुआ.
समृद्ध राज्य के भोग-विलास, सुन्दरी पत्नी तथा नवजात पुत्र का मोह भी उन्हें सांसारिक पाश में आबद्ध नहीं कर सका. वे सबका परित्याग कर अन्तत: विहार-यात्रा के लिए बाहर निकल पड़े. सर्वार्थसिद्ध सर्वप्रथम राजमार्ग पर एक वृद्ध पुरुष को देखते हैं तथा प्रत्येक मनुष्य की परिणति इसी दुर्गति में देखकर उनका चित्त उद्धिग्न हो उठता है. वे बहुत दिनों तक वृद्धावस्था के विषय में ही विचार करते रहे. उद्यान भूमि में आनन्द की उपलब्धि को असम्भव समझकर वे पुन: चित्त की शान्ति के लिए बाहर निकल पड़ते हैं. इस बार उन्हें एक रोगी दिखाई देता है. सारथि से उन्हें ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण संसार में कोई भी रोग-मुक्त नहीं है. रोग-शोक से सन्तप्त होने पर भी प्रसन्न मनुष्यों की अज्ञानता पर उन्हें आश्चर्य होता है और वे पुन: उद्विग्न होकर लौट आते हैं.
तृतीय विहार-यात्रा के समय सर्वार्थसिद्ध को श्मशान की ओर ले जाया जाता हुआ मृत व्यक्ति का शव दिखाई देता है. सारथि से उन्हें ज्ञात होता है कि प्रत्येक व्यक्ति का अन्त इसी प्रकार अवश्यम्भावी है इससे उद्धिग्न हाकर सर्वार्थसिद्ध विहार से विरत होना चाहते हैं. उनकी इच्छा न होते हुए भी सारथि उन्हें विहारभूमि ले जाता है. यहां सुन्दरियों का समूह भी उन्हें आकृष्ट नहीं कर पाता है. जीवन की क्षणभंगुरता, यौवन की क्षणिकता तथा मृत्यु की अवश्यंभाविता का बोध हो जाने पर जो मनुष्य कामासक्त होता हैं, उसकी बुद्धि को लोहे से निर्मित मानकर सर्वार्थसिद्ध वहां से भी लौट आते हैं.
अपनी अन्तिम विहार-यात्रा में सर्वार्थसिद्ध को एक संन्यासी दिखाई देता है. पूछने पर पता चलता है कि वह जन्म-मरण से भयभीत होकर संन्यासी बन गया है. संन्यासी के इस आदर्श से प्रभावित होकर सर्वार्थसिद्ध भी संन्यास लेने का संकल्प करते हैं परन्तु राजा उन्हें संन्यास की अनुमति नहीं देते हैं तथा सर्वार्थसिद्ध को गृहस्थाश्रम में ही आबद्ध करने का प्रयत्न करते हैं. प्रमदाओं का विवृत और विकृत रूप देखकर सर्वार्थसिद्ध के मन में वितृष्णा और घृणा का भाव उत्पन्न होता है. वे मन ही मन सोचते हैं कि स्त्रियों की इतनी विकृत और अपवित्र प्रकृति होने पर वस्त्राभूषणों से वंचित होता हुआ पुरुष उनके अनुराग-पाश में आबद्ध होता है.
विरक्त सर्वार्थसिद्ध सारथि छन्दक को साथ लेकर और कन्थक नामक अश्व की पीठ पर आरूढ़ होकर अर्घरात्रि में नगर से बाहर निकलते हैं तथा प्रतिज्ञा करते हैं- ‘जन्म और मृत्यु का पार देखे बिना कपिलवस्तु में प्रवेश नहीं करूंगा.’ नगर में दूर पहुंचकर सर्वार्थसिद्ध अपने सारथि तथा अश्व को बन्धन-मुक्त कर तपोवन में ऋषियों के पास अपनी समस्या का समाधान ढूंढने के लिए जाते हैं, परन्तु उन तपस्वियों की स्वर्ग-प्रदायिनी प्रवृत्ति से उन्हें सन्तोष नहीं होता है. वे एक जटिल द्विज के निर्देशानुसार दिव्य ज्ञानी अराड् मुनि के पास मोक्ष-मार्ग की शिक्षा ग्रहण करने के लिए चले जाते हैं.
इधर सारथि छन्दक और कन्थक नामक घोड़े को ख़ाली देखकर अन्त:पुर की स्त्रियां बैलों से बिछुड़ी हुई गायों की भांति विलाप करने लगती हैं. पुत्र-मोह से व्यग्र राजा के निर्देशानुसार मन्त्री और पुरोहित कुमार का अन्वेषण करने के लिए निकल पड़ते हैं. राजा बिम्बसार सर्वार्थसिद्ध को आधा राज्य देकर पुन: गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने का असफल प्रयास करते हैं. परन्तु आत्मवान को भोग-विलासों से सुख-शान्ति की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? अन्तत: राजा प्रार्थना करता है कि सफल होने पर आप मुझ पर अनुग्रह करें. निवृत्ति-मार्ग के अन्वेषक सर्वार्थसिद्ध को अराड् मुनि ने सांख्य-योग की शिक्षा दी, परन्तु उनके उपदेशों में भी सर्वार्थसिद्ध को शाश्वत मोक्ष-पथ परिलक्षित नहीं हुआ.
अन्त में, सर्वार्थसिद्ध गयाश्रम जाते हैं. यहां उन्हें सेवा लिए प्रस्तुत पांच भिक्षु मिलते हैं. गयाश्रम में गौतम तप करते हैं, किन्तु इससे भी उन्हें अभीष्ट-सिद्धि नहीं मिलती है. उन्हें यह अवबोध होता है कि इन्द्रियों को कष्ट देकर मोक्ष-प्राप्ति असम्भव है, क्योंकि सन्तप्त इन्द्रिय और मन वाले व्यक्ति की समाधि पूर्ण नहीं होती. समाधि की महिमा से प्रभावित सर्वार्थसिद्ध तप का परित्याग कर समाधि का मार्ग अंगीकार करते हैं.
अश्वत्थ महावृक्ष के नीचे मोक्ष-प्राप्ति के लिए प्रतिश्रुत राजर्षिवंश में उत्पन्न महर्षि सर्वार्थसिद्ध को समाधिस्थ देखकर सारा संसार तो प्रसन्न हुआ, पर सद्धर्म का शत्रु मार भयभीत होता है. अपने विभ्रम, हर्ष एवम् दर्प नामक तीनों पुत्रों तथा अरति, प्रीति तथा तृषा नामक पुत्रियों सहित पुष्पधन्वा ‘मार’ संसार को मोहित करने वाले अपने पांचों बाणों को लेकर अश्वत्थ वृक्ष के मूल में स्थित प्रशान्तमूर्ति समाधिस्थ सर्वार्थसिद्ध को भौतिक प्रलोभनों से विचलित करने का असफल प्रयास करता है. यहीं सर्वार्थसिद्ध का मार के साथ युद्ध है. इस में मार की पराजय तथा सर्वार्थसिद्ध की विजय होती है.
समाधिस्थ सर्वार्थसिद्ध धैर्य और शान्ति से मार की सेना पर विजय प्राप्त कर परम तत्त्व का परिज्ञान प्राप्त करने के लिए ध्यान लगाते हैं. ध्यान के माध्यम से उन्हें सफलता मिलती है. वे अष्टांग योग का आश्रय लेकर अविनाशी पद तथा सर्वज्ञत्व को प्राप्त करते हैं.
इस प्रकार मूल संस्कृत में उपलब्ध बुद्धचरित के 14 सर्गों में भगवान बुद्ध का जन्म से लेकर बुद्धत्व-प्राप्ति तक विशुद्ध जीवन-वृतान्त वर्णित है. पन्द्रहवें सर्ग से लेकर अठारहवें सर्ग तक का शेष भाग तिब्बती भाषा में प्राप्त है. आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत अध्यापक डा. जॉन्स्टन ने तिब्बती तथा चीनी भाषा से उसका अंग्रेजी में भावानुवाद किया था, जिसका श्रीसूर्यनारायण चौधरी ने हिन्दी भाषा में अनुवाद किया. उसी का संस्कृत पद्यानुवाद जबलपुर महन्त श्रीरामचन्द्रदास शास्त्री ने किया है. यद्यपि महन्त श्री रामचन्द्रदास शास्त्री ने अनुवाद अश्वघोष के मूल के समकक्ष बनाने का यथासाघ्य प्रयास किया है, फिर भी मूल तो मूल ही होता है, अनुवाद कभी भी मूल का स्थान नहीं ले सकता.
बुद्ध का सिद्धांत – भीमराव आम्बेडकर
बुद्ध का नाम सामान्यतः अहिंसा के सिद्धांत के साथ जोड़ा जाता है. अहिंसा को ही उनकी शिक्षाओं व उपदेशों का समस्त सार माना जाता है. उसे ही उनका प्रारंभ व अंत समझा जाता है. बहुत कम व्यक्ति इस बात को जानते हैं कि बुद्ध ने जो उपदेश दिए, वे बहुत ही व्यापक है, अहिंसा से बहुत बढ़कर हैं. अतएव यह आवश्यक है कि उनके सिद्धांतों को विस्तापूर्वक प्रस्तुत किया जाए. मैंने त्रिपिटक का अध्ययन किया. उस अध्ययन से मैंने जो समझा, मैं आगे उसका उल्लेख कर रहा हूं –
- मुक्त समाज के लिए धर्म आवश्यक है.
- प्रत्येक धर्म अंगीकार करने योग्य नहीं होता.
- धर्म का संबंध जीवन के तथ्यों व वास्तविकताओं से होना चाहिए, ईश्वर या परमात्मा या स्वर्ग या पृथ्वी के संबंध में सिद्धांतों तथा अनुमान मात्र निराधार कल्पना से नहीं होना चाहिए.
- ईश्वर को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है.
- आत्मा की मुक्ति या मोक्ष को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है.
- पशुबलि को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है.
- वास्तविक धर्म का वास मनुष्य के हृदय में होता है, शास्त्रों में नहीं.
- धर्म के केंद्र मनुष्य तथा नैतिकता होने चाहिए। यदि नहीं, तो धर्म एक क्रूर अंधविश्वास है.
- नैतिकता के लिए जीवन का आदर्श होना ही पर्याप्त नहीं है. चूंकि ईश्वर नहीं है, अतः इसे जीवन का नियम या कानून होना चाहिए.
- धर्म का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना तथा उसे प्रसन्न रखना है, उसकी उत्पत्ति या उसके अंत की व्याख्या करना नहीं.
- कि संसार में दुःख स्वार्थों के टकराव के कारण होता है और इसके समाधान का एकमात्र तरीका अष्टांग मार्ग का अनुसरण करना है.
- कि संपत्ति के निजी स्वामित्व से अधिकार व शक्ति एक वर्ग के हाथ में आ जाती है और दूसरे वर्ग को दुःख मिलता है.
- कि समाज के हित के लिए यह आवश्यक है कि इस दुःख का निदान इसके कारण का निरोध करके किया जाए.
- सभी मानव प्राणी समान हैं.
- मनुष्य का मापदंड उसका गुण होता है, जन्म नहीं.
- जो चीज महत्त्वपूर्ण है, वह है उच्च आदर्श, न कि उच्च कुल में जन्म.
- सबके प्रति मैत्री का साहचर्य व भाईचारे का कभी भी परित्याग नहीं करना चाहिए.
- प्रत्येक व्यक्ति को विद्या प्राप्त करने का अधिकार है. मनुष्य को जीवित रहने के लिए ज्ञान विद्या की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी भोजन की.
- अच्छा आचारणविहीन ज्ञान खतरनाक होता है.
- कोई भी चीज भ्रमातीत व अचूक नहीं होती. कोई भी चीज सर्वदा बाध्यकारी नहीं होती. प्रत्येक वस्तु छानबीन तथा परीक्षा के अध्यधीन होती है.
- कोई वस्तु सुनिश्चित तथा अंतिम नहीं होती.
- प्रत्येक वस्तु कारण-कार्य संबंध के नियम के अधीन होती है.
- कोई भी वस्तु स्थाई या सनातन नहीं है. प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील होती है. सदैव वस्तुओं में होने का क्रम चलता रहता है.
- युद्ध यदि सत्य तथा न्याय के लिए न हो, तो वह अनुचित है।
- पराजित के प्रति विजेता के कर्तव्य होते हैं.
बुद्ध का संक्षिप्त रूप में यही सिद्धांत है. यह कितना प्राचीन, परंतु कितना नवीन है. उनके उपदेश कितने व्यापक तथा कितना गंभीर हैं.
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