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हिन्दू राष्ट्र में अतीक अहमद के हत्यारों को बचाने की पृष्ठभूमि तैयार हो गई ?

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हिन्दू राष्ट्र में अतीक अहमद के हत्यारों को बचाने की पृष्ठभूमि तैयार हो गई ?
हिन्दू राष्ट्र में अतीक अहमद के हत्यारों को बचाने की पृष्ठभूमि तैयार हो गई ?

तो अब अतीक अहमद के हत्यारों को बचाने की पृष्ठभूमि तैयार हो गई है. इस पृष्ठभूमि को समझने के लिए हमें न्यायपालिका और मीडिया के बदलते चरित्र को समझ लेना चाहिए, जो आज के समय में सीधे तौर पर सत्ता के इशारे पर बंदरकूद कर रहा है. मसलन, गुजरात की एक सत्र अदालत ने ‘मोदी उपनाम’ वाले बयान पर एक ‘आपराधिक मानहानि’ मामले में कांग्रेस नेता व नेहरु खानदान के वारिस राहुल गांधी की दोषसिद्धि पर रोक लगाने वाली याचिका खारिज कर दी. वहीं, नरोदा गाम दंगा मामले, जिसमें 11 मुस्लिम समुदाय के लोगों की दो दशक पहले हुई नृशंस नरसंहार मामले में गुजरात की पूर्व मंत्री माया कोडनानी और बजरंग दल के पूर्व नेता बाबू बजरंगी समेत 67 आरोपियों को बरी कर दिया.

इससे पहले गुजरात की बिलकिस बानो मामले में गुजरात की एक अदालत ने 11 दंगाइयों जिसे हत्या और गैंगरेप को अंजाम दिया था, को ‘सभ्य और सुसंस्कृत’ का तमगा देते हुए न केवल रिहा कर दिया था, अपितु प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को, जिसने इस मुकदमे में बिलकिस बानो के साथ थी, को ‘नरेन्द्र मोदी को बदनाम करने’ का मामला दायर कर आनन फानन में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. मालूम हो कि ये 11 दंगाई, हत्यारा और बलात्कारी गोधरा कांड के बाद 3 मार्च 2002 में दंगों के दौरान बिलकिस बानो समेत उनकी मां और तीन अन्य महिलाओं के साथ गैंगरेप किया. इस दौरान हमलावरों ने बिलकिस के परिवार के 17 सदस्यों में से 7 लोगों की हत्या कर दी. वहीं, 6 लोग लापता हो गए, जो कभी नहीं मिले. हमले में सिर्फ बिलकिस, एक शख्स और तीन साल का बच्चा ही बचे थे.

इन उदाहरण को इस परिप्रेक्ष्य में भी समझने की जरूरत है कि 2014 से पहले कांग्रेस की अपेक्षाकृत अधिक खुली अदालतें थी, जो 2014 के बाद मोदी युग में प्रवेश करती है, जिसका मानना है कि आजादी ‘2014’ में हासिल की गई. यदि हम मोदी युग के इस आजादी वाले मामलों को समझे तो साफ मालूम हो जायेगा कि उपरोक्त संबंधित हत्यारे और बलात्कारी दो दशक तक जेल में इसलिए रहे कि भारत ‘2014 से पहले गुलाम’ था. और ‘आजादी के ये सिपाही’ ज्यों ही देश ‘आजाद: हुआ एक एक कर रिहा कर दिये जाने लगे. और ‘गुलामी’ के प्रतिनिधि कांग्रेस को अदालतें दोषी सिद्ध करने में जुट गई.

चुंकि अब न्यायपालिका मोदीयुग के ‘आजादी’ में आ गई है इसलिए अब सत्ता पोषित ऐसे हत्यारे न केवल निर्दोष साबित कर दिये जायेंगे अपितु वे ‘देवता’ मानकर समाज में सम्मानित भी किये जायेंगे. इसकी तैयारी किस प्रकार शुरु की गई है, इसको समझने के लिए मीडिया के बदलते चरित्र को समझने की जरूरत है.

2014 की संघी आजादी से पूर्व मीडिया सत्ताशीर्ष पर बैठे प्रधानमंत्री से सीधे-सीधे सवाल जवाब करता था, यहां तक कि हर असफलता के लिए सीधे प्रधानमंत्री को जिम्मेदार मानता था. एक दफा तो एक महिला ने संसद परिसर में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का गिरेबान तक पकड़ ली थी. लेकिन 2024 की संघीई आजादी के बाद तो इसकी कल्पना तक करना मुश्किल है कि कोई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से किसी भी विषय पर कोई भी सवाल पूछ सके, गिरेबान पर हाथ डालने की तो बात सोचना भी असंभव है.

इसके उलट आज मीडिया देश की तमाम असफलताओं का जिम्मेदार विपक्ष के उन नेताओं व लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं को ठहराता है जिसकी कभी सांसदी खत्म हो जाती है तो कभी जेल में डालने की कवायद शुरु हो जाती है. विदित हो कि संघी आजादी की ढ़लान पर तेजी से ढुलकते इस लोकतंत्र की दुदुम्भी तभी बज गई थी जब सुप्रीम कोर्ट के चार बरिष्ठ जजों ने बकायदा इसकी घोषणा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कर दी थी.

मीडिया के इस बदलते चरित्र को एक उदाहरण हे समझा जा सकता है. संघी आजादी के तुरंत बाद 2015 में दिल्ली के जंतर मंतर पर आम आदमी पार्टी की आयोजित एक किसान सभा में राजस्थान का एक किसान पेड़ से लटककर आत्महत्या कर लेता है. बताया जाता है कि राजस्थान का वह किसान अपनी जर्जर अर्थव्यवस्था के विक्षिप्तता की हालत में पहुंच गया था. चूंकि मामला राजस्थान का था, तो सवाल भी राजस्थान या फिर केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार से पूछा जाना चाहिए था, लेकिन मीडिया ने बड़ी ही नीचतापूर्ण तरीके से सीधे अरविन्द केजरीवाल की ओर घुमा दिया और मीडिया में डिबेट दर डिबेट को इस नीचतापूर्ण तरीकों से आयोजित किया मानो केजरीवाल ही इस मौत का जिम्मेदार हो.

दिल्ली की छोटी सी आम आदमी पार्टी की अरविन्द केजरीवाल सरकार पर इतने तरीकों से तोहमत लगाया जाने लगा कि आम आदमी पार्टी के प्रवक्ताओं को अपना बचाव तक करना मुश्किल हो गया था. नौबत यहां तक आ गई थी कि पत्रकार से आम आदमी पार्टी का प्रवक्ता बने आशुतोष कुमार भी ऑन स्क्रीन बुक्का फाड़कर रोने लगे. लेकिन अभी महाराष्ट्र में आयोजित ठीक ऐसी ही एक सभा में जब गृहमंत्री अमित शाह भाषण दे रहे थे, तभी 42 डिग्री तापमान में खुले आसमान के नीचे बैठी आम जनता के बीच, जिसे भारे पर बुलाया भीड़ भी बताया जाता है, 11 लोग मर गये और इस पर किसी भी मीडिया ने सवाल नहीं उठाया. तो यह है बदलती मीडिया का चरित्र.

ठीक, अब आप न्यायालय और मीडिया के चरित्र को पूर्व सांसद अतीक अहमद बंधु हत्या कांड पर बिठाकर देखिये. आपको पता चल जायेगा कि माजरा क्या है –

  • अतीक अहमद बंधु की हत्या के ठीक दो दिन पहले अतीक अहमद के बेटा असद की पुलिस एक फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर देती है.
  • अतीक अहमद बंधु को रात्रि दस बजे रिमांड से मेडिकल चेकअप के बहाने पुलिस लाती है.
  • तीन हत्यारों को बकायदा पुलिस गाड़ी में बिठाकर लाया जाता है.
  • पत्रकारों को भी बुला लिया जाता है और पत्रकार के भेष में तीनों हत्यारों को अतीक अहमद के पास जाने दिया जाता है.
  • हत्यारे फौरन सिर में सटाकर गोलियां दागना शुरू कर देता है.
  • अतीक अहमद बंधुओं की मौत के फौरन बाद हत्यारे फौरन हाथ खड़ेकर ‘सरेंडर सरेंडर’ चिल्लाता है.
  • पुलिस उसे कब्जे में लेकर सुरक्षा प्रदान करती है.
  • हत्यारे जब आश्वस्त हो जाता है कि उसकी पुलिस हत्या नहीं करेगी तब वह ‘जय श्री राम’ का नारा लगाता है.
  • पुलिस तीनों को एक साथ रखती है ताकि हत्यारों को आगे की प्लानिंग और ‘क्या बोलना है, क्या नहीं’ का एक मौका मिल जाये.
  • कोर्ट में पेशगी के दौरान भी इस तीनों की पुलिस सुरक्षा दी जाती है ताकि कोई इसकी हत्या न कर दें.
  • और मीडिया यह शोर मचाने लगती है कि उसमें सज एकक हत्यारा महज 17 वर्ष कुछ महीने का है. जबकि दूसरी ओर यही मीडिया यह भी बताता है कि उसके मां-बाप को मरे 20 वर्ष हो चुका है. अन्य सूत्रों से पता चलता है कि उसकी उम्र 31 वर्ष से ज्यादा है.
  • मीडिया पूर्व सांसद अतीक अहमद को माफिया बताते हुए उसके अतीत के अपराधों को बढ़ाचढ़ाकर टीवी फर दिखाता है, मानो वह एक शैतान थे और उनकी हत्या करने वाले देवता.

न्यायपालिका और मीडिया का यह खुला नंगा खेल इस कदर चल रहा है कि इसमें अब लोकलाज की भी कोई गुंजाइश नहीं बची है. खुला खेल फरूखाबाद. मुसलमानों को दुश्मन घोषित कर दिया गया है. उसके ताकतवर हस्तियों को मिटा दिया जा रहा है. अब मीडिया मुख्तार अंसारी की हत्या के लिए माहौल तैयार कर रहा है. पहले मीडिया जनमत तैयार करता है फिर भाड़े के हत्यारे घटना को अंजाम देता है और न्यायालय तरह-तरह के ग्राउंड तैयार कर उसे रिहा कर देती है. मसलन, हंसते हुए किसी को गोली मारना अपराध नहीं है. तो ये तीनों भी अपराधी नहीं माने जायेंगे और जल्द ही रिहा कर दिये जायेंगे. यही 2014 के बाद मिली संघी आजादी है.

आज जिस तरह मुसलमानों की टारगेट कर हत्यायें की जा रही है और इसमें शुद्रों का हत्यारे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, जब मुसलमान शांत कर दिये जायेंगे तब इन्ही शुद्रों को निशाने पर लिया जायेगा. यह केवल संभावनाएं ही नहीं है, इतिहास इसका गवाह है. आज से दो हजार साल पहले इसी तरह बौद्धों का कत्लेआम करा कर भारत से ही बौद्धों को मिटा दिया और शुद्रों को कुत्तों की जिन्दगी बसर करने लगा जब तक कि मुगलों और अंग्रेजों ने आकर उसका उद्धार नहीं किया. एक बार फिर शुद्र अपने ही पैरों में वही कुत्तों वाली जिन्दगी बसर करने के लिए अपने सबसे बड़े सहायक योद्धाओं का कत्लेआम कर रहा है.

कहा जाता है कि कुत्तों को घी हजम नहीं होता. ठीक वही हालत शुद्रों की है. आज भी शुद्रों को बेहतर जिन्दगी, आजादी, शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं हजम नहीं हो रही है और वह संघियों के रचित जाल में फंसकर अपनी ही पीढ़ियों को गुलामी की जंजीरों में जकड़ रहे हैं. अतीक अहमद जैसे सेक्युलर सोच के लोगों को शुद्र के द्वारा जिस तरह खत्म कराया गया है, और आगे भी कराने का योजना है, वह दो हजार साल पुरानी उसी बौद्ध कत्लेआम की पुनरावृति है.

कार्ल मार्क्स लिखते हैं अगर आप इतिहास से नहीं सीखते हैं तो इतिहास खुद को दुहराता है. पहली बार त्रासदी के रुप में, दूसरी बार प्रहसन के रुप में. बौद्धों के कत्लेआम के बाद उपजी दो हजार साल की गुलामी एक त्रासदी था, अब उसी इतिहास को एक बार फिर दुहराने की कोशिश आज एक प्रहसन बन गया है. दुनियां हंस रही है और हम खुश हो रहे हैं. यह ब्राह्मणवादी संघी सत्ता अभी तो उसे तो बचा ले जायेगा लेकिन शुद्रों की पीढ़ियों को हिन्दू राष्ट्र के नाम पर वह जिस गुलामी की दर्दनाक दलदल में फंसायेगा, उसकी कल्पना भी शरीर में सिहरन पैदा करने के लिए काफी है.

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ROHIT SHARMA

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