फ़ासीवाद की एक ख़ासियत यह होती है कि वह एक-एक करके विरोध के हर रूप को कुचलने, समाप्त करने या शान्त कर देने की कोशिश करता है. इस दमन की ज़द में कई बार गैर-फ़ासीवादी पूंजीवादी पार्टियां भी आती ही हैं. हिटलर और मुसोलिनी ने यह काम सीधे हर प्रकार के विरोध को बाक़ायदा क़ानूनी तौर पर प्रतिबन्धित करके किया था लेकिन इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की एक खासियत यह है कि वह विरोध के तमाम रूपों, पूंजीवादी संसद, सभी राजनीतिक दलों, आदि को औपचारिक तौर पर प्रतिबन्धित किये बिना हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को कुचलने का काम करता है, आज पूरे देश में अघोषित आपातकाल का माहौल दिखाई दे रहा है. चारों तरफ भय का वातावरण छाया हुआ है.
आज साम्राज्यवाद व पूंजीवाद के मौजूदा पतनशील दौर में पूंजीवादी, लोकतांत्रिक समस्त राजकीय व गैर-राजकीय संस्थाओं का अभूतपूर्व क्षरण और स्खलन हो चुका है और संघी फ़ासीवादियों की उनमें इस क़दर घुसपैठ हो चुकी है कि आज फ़ासीवादियों को अपने पूर्वजों हिटलर व मुसोलिनी के समान आपवादिक क़ानून लाने की कोई आवश्यकता नहीं है. बिना किसी नये कानून के ही पूरे देश में भय का वातावरण बना दिया गया है, सरकार के खिलाफ जिसने बोलने की हिम्मत किया उस पर फर्जी F I R करके जेल के सींकचों में डाल दिया जा रहा है.
हम जानते हैं कि जहां तक आर्थिक नीतियों का सवाल है, तमाम पूंजीवादी चुनावी पार्टियों में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं है. चाहे वह भाजपा हो या कांग्रेस लेकिन संकट के दौर में मेहनतकश-विरोधी निजीकरण व उदारीकरण की नवउदारवादी नीतियों को नंगे और दमनात्मक तरीके से लागू करने के लिए भारत के पूंजीपतियों को मोदी-शाह के फ़ासीवादी शासन की ज़रूरत ज़्यादा है इसीलिए पूंजीपति वर्ग का बड़ा हिस्सा मोदी-शाह व भाजपा सरकार के पक्ष में खड़ा है.
आज कांग्रेस ही नहीं, जिन दलों के नेता मोदी-शाह सरकार का विरोध ज़्यादा ऊंची आवाज़ में कर रहे हैं, उनको मोदी-शाह सरकार अपने असली फ़ासीवादी रंग दिखाते हुए तरह-तरह से निशाना बना रही है. यह हम सब देख रहे हैं और अच्छी तरह से जानते हैं. भयंकर बेरोजगारी और महंगाई के कारण मोदी-शाह सरकार की अलोकप्रियता अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है. 2024 के चुनावों में किसी भाजपा-विरोधी पूंजीवादी दलों के गठबन्धन की सम्भावनाओं को मोदी-शाह की जोड़ी समाप्त करना चाहती है. इसलिए ऐसे किसी गठबन्धन को बनाने की कोई क्षीण सम्भावना रखने वाले पूंजीवादी, प्रादेशिक दलों को भी वह तरह-तरह से निशाना बनाकर उन्हें डराने और शान्त करने के प्रयासों में लगी हुई है.
राहुल गांधी को सूरत की एक अदालत द्वारा दो साल की सज़ा इन्हीं प्रयासों की नवीनतम कड़ी है. ज़ाहिर है, राहुल गांधी भारत के पूंजीपति, मध्यम वर्ग व दलित, अल्पसंख्यकों के हित की वकालत करने वाली, आजादी की लडाई लड़ने वाली सबसे पुरानी पार्टी के नेता हैं और हालिया दिनों में भाजपा सरकार पर उनके तीखे हमलों का मक़सद कांग्रेस को फिर से भारत में उसके खोये हुये पुराने गौरव को पुनर्स्थापित करना है.
हमें एक बात समझ में नहीं आती कि राहुल गांधी बीजेपी के गवर्नेंस पर तो हमला बोलते हैं लेकिन बीजेपी की आर्थिक नीतियों पर चुप्पी साध जाते हैं. उन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो नवउदारवाद की नीतियां बदस्तूर जारी रहेंगी, बस उनका फ़ायदा कुछ को ही नहीं, समूचे पूंजीपति वर्ग को पहुंचेगा, सिर्फ़ नरेन्द्र मोदी के कुछ मित्रों यानी अम्बानी-अडानी जैसे कुछ पूंजीपतियों को नहीं. साथ में, कांग्रेस छोटी और मंझोले पूंजी, धनी किसान-कुलक वर्ग को संरक्षण देगी और आम जनता को कुछ कल्याणकारी खैरात. इसके अलावा, सत्ता में आने पर मोदी-शाह सरकार द्वारा छीन लिये गये जनवादी अधिकारों को बहाल किया जायेगा, ऐसा कांग्रेस का दावा है.
नेहरू सरकार के बाद का कांग्रेस का रिकार्ड देखते हुए कहा जा सकता है कि कांग्रेस के उन वायदों पर ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता है जो वह आम जनता से कर रही है. इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया, आज गरीबी की क्या हालत है ? बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, बैंकों की क्या हालत है ? बताना नहीं, नेहरू ने संस्थाओं को बनाया, पिलर मजबूत किया, इंदिरा गांधी ने देश मजबूत करने का नारा देकर अपने और अपने चाटुकारों को मजबूत किया.
कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरूआ का ये नारा ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ भूले तो नहीं होंगे. संजय गांधी का सरकार में अनाधिकारिक हस्तक्षेप सबको याद है ? उनकी पत्नी, बेटा बीजेपी के जूठन पर राजनीति करके नेहरू की कांग्रेस को कमजोर किये कि नहीं ? न्यायपालिका को कमिटेड जुडिशियरी बनाने का काम किसने किया ? कई सिनियर जजों को सुपरसिड करके अजित रे को चीफ जस्टिस किसने बनाया ? बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी.
संघ मोदी एक दिन में अचानक आकाश से टूटकर नहीं आ गये, इसकी नींव कांग्रेस सरकार ने ही रखी. राम मंदिर का ताला किसने खोला, वह भी लात से मारकर ? शाहबानों केश का सुप्रीम कोर्ट का फैसला किसने बहुमत से बदला ? क्या बहुमत मिलने का मतलब यही था कि आप अपने सोच को, पार्टी के सोच को, जनता के बहुमत का सहारा लेकर लागू करेंगे तो परिणाम क्या होगा ?
अब कांग्रेस को बताना नहीं होगा, इंदिरा गांधी की कांग्रेस आपातकाल के बाद भी 154 लोकसभा सीट पायी थी. आज कितनी है ? मोदी तो बस एक मोहरा हैं जिसका संघ परिवार कांग्रेस के कमियों को सामने रखकर चलता गया और सफल रहा. कल अडवानी थे लौहपुरूष ? आज मोदी हैं विश्व गुरू ? कल इनका भी वही हाल होगा जो लौह पुरूष का हुआ. फिर कोई और पुरूष आ जायेगा अगर कांग्रेस नहीं सुधरी.
राहुल गांधी अगर सच में फासिस्ट संघ परिवार से लड़ना चाहते हैं तो सबसे पहले कांग्रेस को नेहरू के रास्ते पर ले चलने की कोशिश करें. जनहित में नीतियां बनायें. मनरेगा, इदिरा निवास टाईप नहीं जिससे गांव का हर परधान मुखिया फर्जी मजदूरों के नाम पर बिल पासकर, कमीशन खाकर साइकिल से लंबी लंबी कार पर चलने लगा. परधान, बिडियो, एसडीओ, डीएम, सीडीओ सब कमीशन खाकर बिल पास करने लगे.
मोदी सरकार ने 5 किलो राशन देकर उनका वोट ले लिया, ये विफलता किसकी है ? किसने उनको 5 किलो राशन पर वोट देने के लिये मजबूर किया ? हमारे जैसे लोग मोदी संघ परिवार के नीतियों का घोर विरोधी हैं लेकिन कांग्रेस में भरे पड़े अपराधियों को भी समर्थन नहीं कर सकते, परिणाम लोकल पार्टियों की तरफ लोगों का झुकाव होता है.
मेरा कहने का मतलब यह है कि जब भी पूंजीपतियों के हित में उसे ज़रूरत हुई है तो कांग्रेस ने भी जनता का दमन किया है. ऐसे ही रातों रात अडानी अंबानी नहीं पैदा हो गये. बिरला ने 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी जी को चुनाव में चंदा ठीक से नहीं दिया परिणाम बिरला का अम्बेसडर कार जो हर बड़े आदमी, सरकारी अफसर, मंत्री की पहली पसंद थी, उसका नामोनिॆशान ही मिट गया. ये कह सकते हैं मोदी ने अति कर दिया है, और अति सर्वत्र वर्जयेत् !
इसमें भी शक की गुंजाइश नहीं है कि जिस ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ पर आज राहुल गांधी बरस रहे हैं उसकी शुरुआती मिसालें कांग्रेस राज में ही क़ायम हुईं थी. ये सही है कि देश की आम जनता में राहुल गांधी की विश्वसनीयता बढ़ी है, लेकिन कांग्रेस के प्रति कितनी बढ़ी है इसका कोई पैमाना नहीं है. राहुल गांधी क्या कांग्रेस के अंदर सर्वसम्मति के नेता बन चुके हैं या कांग्रेस के अंदर मौजूद सेकुलरिज्म का नकाब लगाये G23 के संघी दलाल अब भी उनको मन से नेता नहीं मानते ? प्रदेशीय छत्रप उनको तभी तक नेता मानते हैं जब तक उनके कुर्सी पर आंच नहीं आती. पहले राहुल गांधी कांग्रेस में छिपे संघी दलालों को पहचान करके बाहर करें.
लेकिन इसके बावजूद, लोकतंत्र, संविधान, सेकुलरिज्म में विश्वास करने वाले हर नागरिक, संगठन, राजनीतिक दलों को सर्वहारा वंचित वर्ग के लोकतांत्रिक जनवादी अधिकारों पर होने वाले हर हमले की मुख़ालफ़त करना चाहिये इसलिए राहुल गांधी को सूरत अदालत द्वारा दी गयी सज़ा का हम सभी को एकजुट होकर विरोध करना चाहिये. वजह यह है कि लोकतांत्रिक जनवादी अधिकारों के हनन की हर घटना की कीमत अन्ततः वंचित मजदूर वर्ग ही चुकाता है. क्योंकि पूंजीवाद की फ़ासीवादी तानाशाही का असली निशाना हमेशा मेहनतकश वर्ग ही होते हैं. जनवादी अधिकार पर हमले की किसी भी घटना पर चुप्पी की क़ीमत हमेशा सर्वहारा वंचित वर्ग को ही चुकाना पड़ता है. बुर्जुआ तथाकथित लोकतांत्रिक जनवाद सर्वहारा वचित वर्ग के वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाने की सबसे अनुकूल ज़मीन मुहैया कराता है.
इसलिए चाहे किसी के भी जनवादी हकों पर हमला हो, उसका विरोध करना सर्वहारा वंचित वर्ग का क्रान्तिकारी कर्तव्य है क्योंकि अन्ततः ऐसे हमलों का बर्बरतम इस्तेमाल हमेशा फ़ासीवाद उसके ख़िलाफ़ करता है. राहुल गांधी को दी गयी सज़ा का विरोध हर दल, व्यक्ति को जो लोकतंत्र संविधान और सेकुलरिज्म में विश्वास करता है, को पूरे मन से करना चाहिये चाहे वह भले ही राहुल गांधी, कांग्रेस और उसकी राजनीति का समर्थक न हो.
मेहनतकश मज़दूर वर्ग हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को कुचलने की फ़ासीवादी सत्ता की कोशिशों का विरोध अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक सोच की अवस्थिति से करता है, न कि किसी बुर्जुआ ताक़त का पिछलग्गू बनकर. अत: आज इसी ज़मीन से सभी मेहनतकश मजदूर वंचित वर्ग को फ़ासीवादी मोदी-शाह सरकार द्वारा हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को कुचलने के तमाम प्रयासों का विरोध जमकर करना चाहिये. चाहे फ़िलहाल उसके निशाने के तौर पर राहुल गांधी व तेजस्वी यादव जैसे बुर्जुआ राजनीतिज्ञ हों, तमाम जनान्दोलनों के नेता हों, स्वतन्त्र पत्रकार हों, ट्रेड यूनियनों हों, या जनपक्षधर वकील, बुद्धिजीवी आदि.
इसके लिए उनकी राजनीति से सहमत होना आवश्यक नहीं है क्योंकि हम जानते हैं कि ऐसे हर हमले का और भी ज़्यादा आक्रामक तरीके से इस्तेमाल मेहनतकश वर्गों और उनके आन्दोलनों पर होने वाला है. मूलतः सभी को जो लोकतंत्र, संविधान व सेकुलरिज्म मे विश्वास करते हैं, सबको मिलकर एकजुट होकर अपने अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिये इस मोदी शाह के फासिस्ट तानाशाह सरकार को उखाड़ फेंकने में अब क्षण भर भी देर नहीं करना चाहिये. आज राहुल गांधी हैं तो कल हम सभी का नंबर आयेगा ….
जिस बयान पर राहुल गांधी को सज़ा सुनायी गयी है, वैसे ही और उससे भी कहीं भयंकर और बेहद सस्ते किस्म के बयान तो खुद मोदी, शाह और योगी देते रहे हैं (‘दंगाइयों को पोशाक से पहचानो’, ’50 करोड़ की गर्लफ्रेण्ड’, जर्सी गाय, कांग्रेस की विधवा आदि). अगर न्यायपालिका में बुर्जुआ अर्थों में भी कोई निष्पक्षता बची होती तो मोदी-शाह को अब तक कई सजाएं मिल चुकी होती लेकिन एक तो न्यायपालिका का भी व्यवस्थित तरीके से फ़ासीवादीकरण संघ परिवार ने किया है, वहीं दूसरी ओर कोई जज अपना ‘लोया’ नहीं करवाना चाहता !
इस तरह लोकतन्त्र के जीर्ण-शीर्ण हो चुके खोल को फेंके बग़ैर मोदी-शाह सरकार अन्यायपूर्ण तरीके से सभी लोकतांत्रिक जनवादी हकों पर हमला बोल रही है ताकि अपनी बढ़ती अलोकप्रियता के बावजूद किसी तरह सत्ता में बने रहा जा सके.
उपरोक्त सरोकारों के आधार पर हम सबको मोदी-शाह सरकार के हमलों का पुरज़ोर शब्दों में भर्त्सना और विरोध करना चाहिये, चाहे वह किसी के भी ख़िलाफ़ हो और राहुल गांधी को सुनायी गयी सज़ा इसी का ताजा उदाहरण है. राजनीतिक दुर्भावना का इससे घृणित काम कोई दूसरा नहीं हो सकता.
हमें कहने में कोई गरेज़ नहीं कि राहुल गांधी या नेहरू परिवार पूर्वजों (कांग्रेस) की गलतियों का परिणाम भोग रहे हैं. अगर गांधी हत्या के बाद ही जब संघ पर प्रतिबंध लगाया, वह सदैव के लिये लगा दिया गया होता, सावरकरकर को आजीवन कारावास दे दिया गया होता तो आज ये फासिस्ट ताकतें पैदा नही होती, लेकिन नेहरू को देश के भविष्य से दुनियां में अपने छवि कि चिंता थी, डिमोक्रेट थे.
सबसे बडी बात यह जानते हुये आम के बाग में नागफ़नी को भी फलने फूलने का मौका दिया, आज वही नागफ़नी पूरे बाग पर कब्जा करते बाग को नष्ट करने के लिये पूरे ताकत से लगी है. नेहरू की यही गलती आज कांग्रेस तो भुगत रही ही है, पूरा देश भुगत रहा है. हिटलर को लोकतांत्रिक तरीके से हटाया नहीं जा सकता, वह चुनावी मशीनरी को हैक कर लिया है, सभी संवैधानिक संस्थाये सत्ता की रखैल बन चुकी है. नीचे की जुडिशियरी तो कितनी गिर चुकी है कि कह नहीं सकते,.राहुल गांधी के केश का फैसला सामने है …!
राहुल को अगर गांधी में विश्वास है तो अंतिम रास्ता सड़क है…! अब नारा जो कल तक दूसरे लगाकर लगाते थे, अब उसे राहुल को सड़क पर आकर लगाना चाहिये….’जिसकी जितनी संख्या भारी…आकर ले ले अपनी हिस्सेदारी’. यह नारा लगाते ही कांग्रेसी संघी दलाल बिल से बाहर आकर एक्सपोज हों जायेंगे. नयी नेहरू कांग्रेस का नवनिर्माण करें …,
- डरबन सिंह
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