‘कहना न होगा कि हम चहूं ओर ‘उथलधड़े’ के ऐसे समय में जी रहे हैं, जहां समाज के लगभग लगभग हर क्षेत्र में, सदियों पुरानी एक सुप्त सभ्यता के ‘पुनर्जागरण’ के वायवीय आश्वासन की आड़ में, समाज के स्थापित प्रतिमानों और मानकों को ध्वस्त करके, उनका अविवेकी ‘पुनर्लेखन’ किया जा रहा है.
छोटे-बड़े अंतराल से घटने वाले ऐसी घटनाओं की श्रृंखला में नई घटना है, गोरखपुर विश्वविद्यालय के द्वारा अपने एम. ए. के पाठ्यक्रम में, हिन्दी के ‘लुगदी साहित्य’ की रचनाओं को, ‘लोकप्रिय साहित्य’ विषय के अंतर्गत पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने की घोषणा करना. यह करना ऐसा ही है जैसे किसी ने शास्त्रीय संगीत की किसी सभा में बड़े गुलाम अली खां साहब की संगत के लिए शब्बीर कुमार को साथ बैठा दिया हो.
दरअस्ल, किसी भी विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम यह तय करता है कि वहां से निकलने वाले छात्र या छात्रा का मानसिक गठन क्या होगा, जिसे हम ‘पढ़ा-लिखा’ होना कहते हैं. औद्योगिक क्रान्ति से उपजी योरपीय शिक्षा व्यवस्था, जिसे हमने एक उपनिवेश होने के चलते ‘स्वीकार’ कर लिया, मूलतः एक उत्पादन प्रक्रिया ही है. इस प्रक्रिया का कच्चा माल, ‘छात्रों की बैच’ अंततः एक ‘पढ़े-लिखे’ नागरिक के ‘तैयार माल’ के रूप में, इस शिक्षा व्यवस्था से बाहर आती है.
यहां, यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि, बात नागरिक के मात्र ‘साक्षर’ होने की नहीं है. यहां, समाज एक ‘पढ़ा-लिखा’ नागरिक चाहता है और इस ‘पढ़े-लिखे’ होने और कहलाने में वे सारे अनुभव और अभ्यास भी हैं, जो एक छात्र किसी औपचारिक शिक्षा संस्थान से निकलते हुए आत्मसात करता है. ऐसे में, यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि, इस बात का आकलन अच्छे से कर लिया जाए कि ‘छात्र’ को पढाए जाने वाले पाठ्यक्रम में क्या शामिल है और क्या नहीं. पाठ्यक्रम तय करना यह सुनिश्चित करता है कि हम हमारी ‘शिक्षा व्यवस्था’ कि ‘असेम्बली लाइन’ से किस तरह का ‘नागरिक’ उत्पन्न कर रहे हैं.
यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि यह तय बात है कि देश की आबादी का एक बड़ा भाग, अपनी ‘शिक्षा’ पूरी करने के बाद फिर जीवन में, अव्वल तो किसी किताब को पढ़ता ही नहीं है, और अगर पढ़ता भी है तो उतने ध्यान से नहीं, जितने कि वह उन किताबों को पढ़ता है, जो उसके पाठ्यक्रम में थी.
इसी के चलते, पाठ्यक्रम में साहित्य की उन कृतियों को रखा और पढ़ाया जाता है, जिनकी प्रासंगिकता, कई कई पीढ़ियों के बाद भी वैसी ही है, जैसी उस समय थी, जिस समय वे लिखी गई थीं और जिनका समाज पर प्रभाव पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आया है. साहित्य की ये उत्कृष्ट रचनाएं, अपने विस्तार में, बुद्धिमत्ता में, भाषा में, और सार्वभौमिकता में, समाज के विचार की उपलब्धियों का प्रतिनिधित्व करती हैं.
ये कृतियां, वर्तमान का सांस्कृतिक और कलात्मक धरातल तो बनाती ही हैं, साथ ही साथ, ये मानव समाज की उन मूलभूत सच्चाइयों का भी वर्णन करती हैं, जिन्हें समाज का वह तबका तो जीता ही है जिससे ये रचनाएं उपजी हैं, बल्कि, जो अपने होने में मानव होने का साझा सच है.
लेव तलस्तोय, जब ‘एन्ना कैरेनिना’ की शुरुआत इन पंक्तियों से करते हैं, ‘All happy families are alike, but every unhappy family is unhappy in its own way‘, तो वे कहीं न कहीं एक ऐसे सच को रख रहे होते हैं, जो देश, काल, संस्कृति की सीमा से परे जाकर, मानव सभ्यता का साझा सच है और जो, आगे भी जब तक मानव सभ्यता किसी न किसी रूप में धरती पर है, बना रहेगा.
या, सन 1879-80 में लिखी गई, फ्योदोर दोस्तोएव्स्की के उपन्यास, ब्रदर्स कार्माज़ोव को ही लें, जो कि, उस समय के रूस के समाज के साथ साथ, उस समय के विश्व में व्याप्त वैचारिक उथलपुथल को दिखाता है. यह उपन्यास आस्था और बुराई के अस्तित्व के अंतर्द्वंद को तो दिखाता ही है, इसके साथ वह आस्था और विज्ञान की मुठभेड़ को भी देखता चलता है.
उस समय के समाज के ये अन्तर्द्वंद जब, दोस्तोएव्स्की की अपने उपन्यास के पात्रों के मनोविज्ञान की गहरी समझ और जिस काल खंड में वे हैं, से जुड़ते हैं, तो वे इस कृति को एक रोचक उपन्यास तो बनाते ही हैं, लेकिन, इससे भी बढ़ कर वे इस उपन्यास को, उन्नीसवीं शताब्दी के रूसी समाज के सटीक चित्रण के साथ साथ, अपने समय के उन वैचारिक, धार्मिक, और, बौद्धिक धर्मसंकटों के दार्शनिक अन्वेषण का दस्तावेज़ बना देते हैं, जो मूलतः मानव होने के मूलभूत अनुभव में सार्वभौमिक हैं.
वह उपन्यास, या उसके जैसी कोई भी दूसरी क्लासिक कृति, मानव होने के मूलभूत अनुभव की सार्वभौमिकता, जैसे समाज में मूल्यों का गठन या उनकी संरचना कैसे हो, इतिहास की निर्मिति किस तरह होती है, और हम आपस में एक दूसरे से कैसा बर्ताव करते हैं, ऐसे प्रश्नों से मुठभेड़ करती है.
ऐसी कृतियों का कथ्य, आज भी हमसे संवाद करता है, आज भी हमें, उसकी सीख देता है, जिसे ऑस्ट्रियन कवि, रेइनर मारिया रिल्के, अनसुलझे प्रश्नों के साथ सहजता से जीना कहते हैं. हमें समझाता है कि जीवन का रंग, सपाट काला और सफ़ेद नहीं, बल्कि, धूसर है. जहां यह ज़रुरी नहीं कि किसी को न्याय मिले ही, जहां यह ज़रूरी नहीं कि नियति आपको अपमान का बदला लेने का मौक़ा दे, जहां संसार अपने दुनियावी तरीके से ही चलता है.
ये रचनाएं, अपनी उस कूव्वत के बल पर काल से भिड़ती हुई अपनी उपस्थिति बनाए रखती हैं, जहां उनमें उठाए प्रश्न पीढ़ी दर पीढ़ी प्रासंगिक हैं, और जो हमें, कई कई स्तरों पर उनकी व्याख्या करने के लिए, उनके भीतर के निहितार्थ खोजने के लिए, और उनमें उद्घाटित सत्यों की पड़ताल करते रहने के लिए बाध्य करते हैं.
इन सबके बरअक्स अगर हम ‘लुगदी साहित्य’ को देखें, तो उसका सरोकार समाज के सिर्फ उन पक्षों, जैसे अपराध, सेक्स, और हिंसा से होता, जो कि, मूलतः सनसनीखेज हैं. जहां सब कुछ पहले से तय है कि, कौन से प्रश्न हैं, उनके उत्तर क्या हैं, और पात्र उन तयशुदा परिस्थितियों में किस तरह बर्ताव करेंगे.
यहां सारा ज़ोर ही इस पर है कि, पाठक को तनिक भी चिंतन का कष्ट न हो. जहां उसके चिंतन में भूले भटके भी कोई बौद्धिक या दार्शनिक विचार न आ जाए और न वह समाज की विसंगियों पर ध्यान दे. यहां, एक ही सवाल है, और उसका एक ही उत्तर है. यहां, हत्या, हत्यारा, हत्यारे को पकड़ने वाला, और हत्यारे का पकड़ा जाना सभी कुछ तय है. इसलिए, यहां कुछ भी नया सोचने की आवश्यकता नहीं है.
कहना न होगा कि ‘लुगदी साहित्य’ एक तरफ तो व्यक्ति कि चिंतन प्रक्रिया को कुंद करता चलता है, वहीं दूसरी ओर उसे एक तरह के मनोरंजनवाद और पलायनवाद की ओर भी धकेलता है. ‘लुगदी साहित्य’, मानव जीवन के अस्तित्व के मूलभूत प्रश्नों के अनसुलझे रहने की असहजता को, त्वरित न्याय और त्वरित समाधान देकर एक मिथ्या सांत्वना देता है, और हमें उस अनुभव से दूर रखता है, जो कि, इस संसार में हमारे मानव होने का साझा अनुभव है.
अतः ‘लुगदी साहित्य’ का पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना यह सुनिश्चित करता है कि, हम हमारी शिक्षा व्यवस्था से जिन नागरिकों को गढ़ रहे हैं, वे सोचने, समझने, विचारने की क्षमता विहीन हों.
- पुनर्वसु जोशी
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rohit
July 23, 2023 at 9:04 am
निःसदेह गरीब-गुराब की आढ़ लेकर अपनी मानसिक विकालंगता, हिटलरशाही चरित्र प्रदर्शित करने वाली विचारधारा से प्रेरित बातें हैं। कछ सही कहना, और कुछ सही करना के बीच की लंबी दूरी वाली वाली विचारधार का सही प्रतिनिधित्व करता है ये लेख। लुगदी साहित्य और सो कॉल्ड बड़े साहित्य का विभाजन, ठीक समाज के बीच दूरी पैदा कर विवाद पैदा करना, फिर रेत में लठ मारने वाली युक्ति, खूनी विचारधारा की दो चीजों को आपस में भिड़ाने का वही पुराना तरीका है, जिसके दम पर समानता के नाम पर इस विचारधारा ने अनेकों निर्दोषों का खून बहाया है।
साहित्य में विवाद भी पैदा करना इसी विचारधारा के लेखकों की आदत है। जो उनके खांचे में फिट नहीं, वो पशु समान है, ऐसा समझने वाली विचारधारा साहित्य की कसौटी को अपनी शर्तों पर तौलती है। सदियों से चले आ रहे भारतीय साहित्य की कसौटी को गलत तरीके से प्रस्तुत करती ये विचारधार इस लेख की हर लाइन में साफ महसूस किया जा सकता है।