एक दिन एक पूर्णिमा की दूधिया
रौशनी के भीतर
मैंने उसे प्रस्ताव दिया कि
वह जिस बेजोड़ तरीके से स्त्री-पुरुष समानता की
बात करती है,
मैं उसका क़ायल हो चुका हूं.
इसके बाद
उसने कर दिये सब कुछ न्योछावर मुझ पर
और संभाल लिए
उसके प्रेम में आकंठ डूबे हुए
मेरे इस ज्वलंत हृदय के
उछाल को
फिर मैंने दोबारा उससे तर्क किए
कि कुछ कुर्बानियां हमें ज़िन्दगी भर के लिए देनी पड़ेगी
यदि हम वाकई इस हिन्दू फ़ासीवाद को
जड़ से उखाड़ फेंकना चाहते हैं :
तो नहीं काम चलेगा लड़कर सिर्फ़
अपने परिवार और जात-बिरादरी से,
भेदना होगा पूंजी के इस सम्पूर्ण दुर्ग को
जो तमाम सांकृतिक उत्पीड़नों की हिफ़ाज़त करते हैं
और हो सकता है इस पूरी प्रक्रिया में
हमें अपना सब कुछ त्याग देना पड़े
यहॉं तक कि शायद प्राण भी…
…एक अकस्मात शांति छाई रही उसके बाद
कई दिनों तक
हमारे बीच
फिर एक पत्ता भी नहीं टूटा शाख से
गुलाब का
एक भी पंछी नहीं लौटे हमारे कंधे पर
पता नहीं वह क्या चीज़ थी जो
हमारे सपनों पर जान देने की बात करती थी
अक़्सर
ठंडी पड़ती गई आतंक की एक दुरूह
प्रक्रिया में…
अपनी समझ की सीमाओं में छटपटाते हुए
उबलती हुई कह पड़ी एक दिन अचानक से
अमावस्या की एकांत रात :
‘कवि हूं तो क्या हुआ,
वह एक नक्सली से
कभी भी प्यार नहीं करेगी.’
- तनुज
08.04.2023
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