सुब्रतो चटर्जी
गोबरपट्टी की राजधानी यूपी के बच्चे अब सिर्फ़ चापरासी की नौकरी योग्य. इतिहास से 22वीं से 19वीं सदी तक का तुर्को अफ़ग़ान और मुग़लिया पीरियड ख़त्म. गोबरपट्टी की राजधानी के अभिभावक गाय, गोबर, गोमूत्र, गंगा, गायत्री की आराधना में इतने डूबे हुए हैं कि उनको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि उनके बच्चे चापरासी बनने लायक़ भी नहीं रहेंगे आने वाले दस सालों में ।
मुस्लिम घृणा के नाम पर ये महान गोबरपट्टी के पुजारी एक ऐसे व्यक्ति को अपना नायक मान चुके हैं जिसे देखते ही किसी भी सभ्य व्यक्ति के मुंह में बलगम आ जाए. कभी ग़ौर से उस चेहरे को देखिए. कितना घिनौना ! कितनी नकारात्मक सोच और कर्म ! कितनी जाहिलियत ! कितना घृणास्पद ! थू: !
जहां-जहां ये लोग बैठे हैं, सबके चेहरों को गौर से देखिए. सारे के सारे धुरंधर क्रिमिनल, मूर्ख, षड्यन्त्रकारी, विभाजनकारी, चोर, शातिर अपराधी, हत्यारे और घृणित !
Face is the index of mind, Shakespeare कहते थे. बात अब वहां तक सीमित नहीं है. अब किसी किसी व्यक्ति का चेहरा एक पूरे समाज के एक बड़े हिस्से की Collective Consciousness का प्रतिनिधित्व करता दिखता है.
यह सामुद्रिक शास्त्र के परे का विषय है. आप बहुत गौर से इन नरपिशाच लोगों के चेहरों को देखिए और देश के उन बड़े भू-भाग में रहने वाले इनके मतदाताओं या समर्थकों का राजनीतिक सामाजिक चरित्र को देखिए, दोनों समान रूप से घिनौने मिलेंगे. क्या ये महज़ संयोग है ? बिल्कुल नहीं.
हिंदी, गुजराती और अन्य प्रदेशों के अंदर भी समाज का एक बड़ा हिस्सा कुपढ़, अनपढ़, लंपटों के झुंड में तब्दील कर दिया गया है. इसमें हमारे हुक्मरानों का ही दोष है, जनता का नहीं.
एक पूर्व शिक्षक और सामान्य व्यक्ति होने के नाते मुझे मालूम है कि पांच साल से पैंतीस साल तक का मस्तिष्क हमेशा कुछ नया जानने और सीखने के लिए उत्सुक रहता है. ऐसी उम्र में अगर उसे गोदान दिया जाए तो भी वह पढ़ेगा और अगर नहीं मिले तो मस्तराम भी पढ़ेगा, लेकिन पढ़ेगा ज़रूर.
80 के दशक के बाद पूरे देश और ख़ासतौर पर गोबरपट्टी, गुजरात और कुछ और जगहों में जिस तरह से समूची शिक्षा व्यवस्था का विध्वंस योजनाबद्ध तरीक़े से किया गया है, उसका नतीजा आज समाज और देश के संपूर्ण लंपटीकरण में देखा जा सकता है.
ऐसे में अगर लंपटों का अनियंत्रित झुंड पंद्रह सोलह साल के बच्चों को दंगाई बना दें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, जैसा कि हमने हाल में बिहार में देखा है.
यह सब एक योजना के तहत किया जा रहा है. पहले ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को अच्छी शिक्षा से वंचित किया गया और अब पाठ्यक्रमों में कुत्सित बदलाव लाकर शिक्षा से ज्ञान को अलग करने की साज़िश की जा रही है.
गोबरपुर विश्वविद्यालय में गुलशन नंदा और राणु की किताबों को पॉपुलर साहित्य के नाम पर पढ़ाने का निर्णय भी इसी दिशा में एक कदम है. बौद्धिक रूप से पंगु, नैतिक रूप से कंगाल और राजनीतिक सामाजिक चेतना शून्य एक समाज संघियों के पीछे ही लामबंद हो सकती है. हम इसी सत्य के साथ जीने को अभिशप्त हैं.
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