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डाटा की खरीद-बिक्रीः बड़े मुद्दों से ध्यान भटकाने का योग

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अर्ध सामंती, अर्ध औपनिवेशिक राष्ट्र की यह विशेषता होती है कि उसका शासक अपनी ही जनता की हत्या करता है, उसके सम्पत्तियों को लूटता है और साम्राज्यवादियों के सामने दुम हिलाता है. इसमें मजे की बात यह होती है कि शासक यह सब देशहित के नाम पर करता है. चूंकि अर्ध सामंती राष्ट्र की दूसरी विशेषता यह भी होती है कि उस देश की विशाल आबादी अशिक्षित या अर्ध शिक्षित होती है, जहां बड़ी ही आसानी से महज चंद रुपये खर्च कर दलालों की फौज खड़ी की जा सकती है, जो विशाल आबादी को शासकों के अनुकूल बनाती है. उसकी सम्पत्तियों-आबरूओं को लूटने, उसकी हत्या करने तक को फर्जी राष्ट्रवाद के नाम पर जायज ठहराती है. हमारा देश भारत इसका शानदार उदाहरण है.

दुनिया के नक्शे से खत्म हो चुके दास प्रथा जैसे अमानवीय व्यवस्था की शानदार नुमाइश हम अपने ही देश में देख सकते हैं जहां चप्पल पहनने, मूंछें रखने, सिर उठाकर बात करने भर से मालिकों के खून बलबलाने लगते हैं और उसकी हत्या कर डालते हैं. पीड़ित वर्ग के लोग इसके खिलाफ आवाज संगठित करने के बजाय इसे देशहित में सहज मान लेता है और हत्यारों के ही चरणों में पड़ा रहता है क्योंकि शासकों के टुकरखोर बुद्धिवादियों ने हत्यारे मालिकों के खिलाफ आवाज उठाने को ही अपराध घोषित कर दिया है.

इस देश में अपने उपर हो रहे जुल्म का प्रतिकार करना सबसे बड़ा अपराध माना जाता है. इसे देशद्रोह कहा जाता है क्योंकि देश का मतलब देश की विशाल जनता नहीं देश के चंद शोषक पूंजीपति और उसके हत्यारों का गिरोह माना जाता है. यही कारण है कि हजारों की तादाद में गरीब असहायों की हत्या करने वाला सरेआम घूमता है और इस भयानक रक्तपात के विरुद्ध पोस्टर चिपकाने वालों को फांसी के फंदे पर लटकाया जाता है.

जिस देश में गरीबों, मध्यम वर्गीय लोगों की धन-संपदा को सरेआम लूटा जाता हो, बैंकों में जमा लाखों करोड़ रुपयों को देश का शासक लूटकर चोरों को देकर ससम्मान देश से बाहर भेज देता हो और उसमें हिस्सा खाता हो, औरतों की इज्जतें सरेआम लूटी जाती हो, वहां ‘डाटा’ चोरी क्या मायने रखता है ? जिस चुनाव और लोकतंत्र की दुहाई देकर इस ‘डाटा’ चोरी पर हंगामा मचाया जा रहा है, इसके आड़ में निश्चित तौर पर एक बड़े मामलों को दबाने की कोशिश की जा रही है.

बिका हुआ मीडिया मरा हुआ नागरिक पैदा करता है, यह महज कहावत भर नहीं है. मुख्यधारा की लगभग तमाम मीडिया देश के लाखों कऱोड रुपया लेकर जाने वाले चोरों और उसके सहयोगी इस सरकार से अपना हिस्सा भी पाती है और टुकरखोर की भूमिका बखूबी निभाते हूए देश को बुनियादी मुद्दे से इतर अन्यत्र कहीं भटका देती है. डाटा चोरी जैसे संवेदनशील प्रकरण पर भी भाजपा-कांग्रेस जैसे चोरों के शागिर्दों का आरोप प्रत्यारोप ऐसा ही मुद्दा है.

देश की चुनाव प्रक्रिया ‘डाटा’ चोरी से पहले ही दाव पर लगी हुई है जब यहां का चुनाव आयोग ही बिक चुका है, दलाली में मदमस्त राष्ट्रपति औने-पौने काम करते है और मामूली से मुख्यमंत्री के पैरों पड़ते हैंं. इस देश का चुनाव प्रक्रिया तभी दाव पर लग जाती है जब ईवीएम जैसे अविश्वसनीय मशीन को वोटिंग प्रक्रिया में जबरन लगाया जाता है और अन्ना हजारे जैसे दलाल ईवीएम के समर्थन में आंदोलन करने का प्रयास करते हैं.

इस देश की चुनाव प्रक्रिया तब दाव पर लग जाता है जब मुख्यधारा की मीडिया बिक जाती है और दलाली खाने लगती है. खबरों को दबाने लगती है और झूठ फैलाने लगती है. सोशल मीडिया पर गालीगलौज और धमकाने के लिए निजी गुंडे बिठाये जाते हैं और सरकारी गुंड़ों के माध्यम से विरोधियों को ठिकाने लगाया जाता है.

इस देश की चुनाव प्रक्रिया तब दाव पर लगती है जब आधार कार्ड के जरिए करोड़ों देशवासियों की निजी जानकारियों को विदेशी कम्पनियों तक पहुंचायी जाती है, और बदले में पैसा कमाती है.

इस देश की चुनाव प्रक्रिया के तब दाव पर लग जाती है जब खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने एक ‘मोदी एप’ को लोगों के मोबाइल में जबरन इंस्टॉल करवाकर बकायदा देश के लोगों की निजी जानकारियों को अमरीका तक पहुंचा आते हैं. इन सब की तुलना में फेसबुक जैसे सोशल साईट से डाटा चोरी बेहद छोटा लगता है क्योंकि यहां कोई जबरदस्ती नहीं है, और लोगों केे सामने एक समानांंतर मीडिया को खड़ा करती है, जिससेे दलाल शासकों को एक थरथराहट तो महसूस होती है.

इस देश की चुनाव प्रक्रिया तब भी दाव पर लगता है जब देश का नागरिक सवाल करने से कतराने लगता है और सवाल पूछने को अपराध करना मान लेता है. देश का सर्वोच्च न्यायालय तक जब मौत के साये में थरथराने लगता है और समझौता करने लगता है तब देश की चुनाव प्रक्रिया दाव पर लगता है और लोकतंत्र महज मुखौटा बन जाता है.

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One Comment

  1. Sakal Thakur

    March 27, 2018 at 4:30 am

    बिल्कुल सही सटीक बहुत सही लिखा

    Reply

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