चावल 40 रूपये किलो मगर सिम-कार्ड मुफ्त. पटना-दिल्ली का पोस्टल खर्च 50 रूपया मगर आॅल इंडिया टाॅकटाइम मुफ्त. गरीबों का सत्तू 160 रूपये प्रति किलो मगर मैकडाॅनल्ड का बर्गर सिर्फ 40 रूपये. ये तो बस बानगी है, इंडिया और हिन्दुस्तान के उस खाई की जो दिनों-दिन बढ़ती जा रही है. गरीबों का देश मंहगा होता जा रहा है और अमीरों का देश इंडिया सस्ता. आधारभूत आवश्यकता की चीजों की कीमतें आसमान छू रही है और ऐश-ओ-आराम की चीजें सस्ती. रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा और शिक्षा से जुड़ी आवश्यकताएं लगातार मंहगी हो रही है और ए.सी., फ्रीज, कार, कम्प्यूटर, मोबाईल जैसी चीजें सस्ती. देश का आम बजट तो जैसे अमीरों के लिए बनाया जाता है. गरीबों को इससे आस ही टूट गई है. आखिर टूटे भी क्यों नहीं !
शायद ही किसी साल ऐसा बजट पास किया गया हो, जिसके बाद अनाजों की कीमतें कम हुई हों. अन्यथा आमतौर पर बजट के बाद तो लग्जरी उत्पाद ही सस्ते होते हैं. सरकार ही नहीं उद्योग जगत की भी यही कहानी है. तभी तो टाटा जेसी कम्पनी एक लाख में नैनो कार तो बेचती है मगर हजार रूप्ये की साईकिल नहीं बनाती. बैंकों का भी यही हाल है. गांव के एक गरीब किसान को अपने बेटे की पढ़ाई के लिए भले ही लोन न मिले मगर मेट्रो में रहनेवालों को कार से लेकर होम लोन तक बुला-बुलाकर मिलता है. स्कूल कोर्स की किताबों की कीमतें हजारों में होती है, मगर फैशन मैगजीन चंद रूपये में हर नुक्कड़ की दुकान पर मिलती है. गरीबों का पेट भरनेवाले राशन की दुकान पर मिलती है. गरीबों का पेट भरने वाले राशन पर कभी छूट नहीं मिलती, मगर अमीरों के शरीर को ढंकनेवाले ब्रांडेड कपड़ों पर छूट-ही-छूट है.
सरकार इनकम-टैक्स पर अमीरों को छूट देती है, पर गरीबों को इनकम की छूट नहीं देती है. देश में हर साल करोड़ों के अनाज सड़ जाते हैं, मगर गरीबों तक अनाज नहीं पहुंच पाता. खाद्यान्न के दाम कई गुना बढ़ गये. पहली नजर में लगता है कि ऐसा खाद्यान्न की कमी के कारण हुआ होगा, पर ऐसा नहीं है. ऐसा होता है हमारी सरकार, हमारी व्यवस्था की अकर्मण्यता के कारण. सरकार मानती है कि करीब 8 करोड़ टन से अधिक अनाज हर साल बर्बाद चला जाता है क्योंकि उसके पास रखने के लिए जगह नहीं है. बर्बाद होने वाली अनाज की यह मात्रा करीब 10 लाख लोगों को एक साल तक खाने के लिए काफी है, लेकिन एफसीआई गोदामों के आंकड़ें कुछ और ही दावा करते हैं. देश भर में एफसीआई गोदामों में अनाज संरक्षण की क्षमता 256.64 लाख टन की है जबकि वर्तमान में 216.35 लाख टन अनाज मौजूद है. ऐसे में सरकार का यह तर्क कि उनके पास रखने की क्षमता नहीं है, बेमानी है.
देश के किसान अपने खून-पसीने से खेतों में जो सोना पैदा कर रहे हैं, उसका 20 फीसदी हिस्सा सरकारी बदनीयती और बदइंतजाती के चलते बेकार चला जाता है. बेचारा किसान अपने पारिश्रमिक के लिए दर-दर की ठोकरें खात है. कर्ज लेकर अनाज पैदा करता है और मूल्य वापसी न होने के कारण कर्ज भुगतान करने की असमर्थता के कारण खुदकुशी कर लेता है. स्मार्ट इंडिया का सपना संजोनेवाले हमारे हुक्मरानों को इस पर शर्म तक नहीं आती.
सच्चाई तो यह है कि अदने और अब्बल हर लोकतंत्र में गैर-बराबरी तेजी से बढ़ रही है. यह गैर-बराबरी तेजी से बढ़ रही है. यह गेर बराबरी राजनीतिक आजादी का नारा देने वालों के लिए एक तमाचा जैसा है. अंतरराष्ट्रीय संस्था आॅक्सफेम की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के सबसे गरीब 3 अरब, 60 करोड़ लोगों के पास जितनी धन-सम्पत्ति है, उससे कहीं ज्यादा तो केवल 8 कारोबारियों की तिजोरी में जमा है. इन 8 कारोबारियों में अकेले 6 अमेरिका के हैं, जो स्थिति विश्वस्तर पर है. करीब वही हालात अर्द्ध-सामंती, अर्द्ध-औपनिवेशिक चरित्र वाले देश भारत का भी है. इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के 57 उद्योगपतियों की तिजोरी का वजन देश की 70 फीसदी आबादी की कुल सम्पत्ति से ज्यादा है. यहां भी धन कम से कम तर लोगों के हाथों में केन्द्रित होता जा रहा है. यह सर्वविदित सत्य है कि चुनाव जीतनेवाले लोकसेवक की सम्पत्ति, चोरबाजारी करने वाले उद्योगपतियों, पूंजीपतियों की सम्पत्ति हिरण की तरह कुलांचे भरती हुई बढ़ती जाती है, और जनता की आय कछुए की तरह चलती है. यह कैसी जन-सेवा है और कैसी सेवकाई ?
अरबपतियों के इस देश में अभी भी आधी आबादी आधे पेट खाकर सोती है. जिस जनता को इस देश में ‘महान’ कहा और माना जाता है, आज उसकी हालत बद से बदतर है. जनता की इस स्थिति के लिए क्या यह कहने से काम चल जायेगा कि नेताओं ने उसका ‘टेस्ट’ बदल दिया है. लगता तो यह है कि भ्रष्ट भोगी रहनुमाओं ने जनता को इतना भ्रमित कर दिया है कि वह एक तरह की मानसिक गुलामी में फंस गई है.
हम-आप में से जो लोग खुद को जनता कहे जाने पर अपमानित महसूस नहीं करते और जनता रहकर ही अपने देश के विकास के लिए सक्रिय रहने पर गर्व महसूस करते हैं, उनको क्यों यह स्मरण नहीं रखना चाहिए कि जनता ‘महान’ कहलाने की हकदार तभी होती है, जब वह अपनी तरह के मेहनतकश और गरीब रहनुमाओं को पसंद करें. जनता अपनी जवाबदारी से बच नहीं सकती. जनता को जवाबदेह होने के साथ-साथ प्रश्नानुकूल होना पड़ेगा. आम से लेकर खास तक सभी विकास की बातें कर रहे हैं, मगर असली विकास तब होगा जब ये गरीब हिन्दुस्तान, अमीर इंडिया के कंधे से कंधा मिलाकर चलेगा. और यह तभी संभव है जब हम इस सड़ी-गली उबाऊ व्यवस्था से मुक्त होंगे. इसके लिए जनवादी तरीके से विभिन्न संगठनों का निर्माण कर जनताना व्यवस्था के निर्माण की ओर उन्मुक्त होकर बढ़ना होगा. दुष्यंत कुमार का यह शेर आज भी जनता को आवाज दे रहा है, ‘रहनुमाओं की अदाओं पर फिदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालों यारों.’
इस भयावह गैर-बराबरी को समाप्त करने के लिए पूरे देश में तूफान मच रहा है. इसका खात्मा हो, इस उद्देश्य से हाशिये पर खड़े लोग अपने हाथों में हथियार में थामे निकल पड़े हैं, दो-दो हाथ करने को. पर इसे दबाने के लिए ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ के रंगमंच पर खेले जा रहे नाटकों से भयावह आवाजें भी निकाली जा रही है. इन आवाजों की धुनें सरकार और काॅरपोरेट के पूरे तंत्र ने मिलकर तैयार की है. आवाजों में आतंकी गतिविधियों और आन्दोलनों के फर्क को मिटा दिया गया है, जबकि संसदीय लोकतंत्र के इस नाटक के खिलाफ बोलनेवाला हर आदमी को देशद्रोही, गद्दार, नक्सलवादी, माओवादी, देशविरोधी कहकर खारिज करने की कायराना कोशिश की जाती है.
लोकतंत्र जैसी व्यवस्था में ऐसा नहीं होना था, पर यह हो रहा है. क्या हमें लोकतंत्र की परिभाषाएं फिर से तालाशनी नहीं चाहिए ? एक ऐसी संरचना की तालाश हमें कर ही लेनी चाहिए, जिस पर आने वाली पीढ़ियां जिन्दा रह सके और नाज कर सके – विभेद के साथ नहीं बल्कि समता-समानता के लोकतांत्रिक मूल्य के साथ. असली आजादी का फल चखने के लिए एक पौधा हमें रोप देना चाहिए.
– संजीला
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S. Chatterjee
March 26, 2018 at 3:58 pm
पूँजीवाद का चरित्र औद्योगिक अर्थव्यवस्था में बदल जाता है। कारख़ाने का माल सस्ता होता है और कृषि उत्पाद महँगा इसके दो फ़ायदे हैं एक तरफ़ जहाँ आबादी के एक छोटे से हिस्से को खुश रखकर दुकानदारी चलाई जा सकती है, वहीं दूसरी तरफ़ श्रम सस्ता होता है और खेती अनुत्पादक। धीरे धीरे बड़ी कंपनियाँ खेतों को हथिया लेंगे और किसान बंधुआ मज़दूर बन जाएँगे। अंततोगत्वा एक विशाल सर्वहारा वर्ग का निर्माण होगा जो कि क्रांति का बारूद बनेगा