सुब्रतो चटर्जी
अमरीकी साम्राज्यवाद को चीन के विरूद्ध भारत को खड़ा करने के लिए ‘नाटु नाटु’ जैसे थर्ड क्लास गाने को ऑस्कर देने की ज़रूरत है. मूर्खों को बाद में समझ आएगा, अभी नाचो. ज़िंदगी में जब भी प्रशंसा मिले सबसे पहले यह देखिए कि कौन कर रहा है और क्यों कर रहा है. बिना निहित स्वार्थ की पहचान किए आप बहक जाएंगे.
दूसरी ज़रूरी बात है आत्म विश्लेषण. अगर मेरी किसी घटिया कृति पर बहुत वाह वाही मिलती है तो मैं उसे मिटा देता हूं. हाल में ही रेत समाधि जैसे औसत से नीचे दर्जे की किताब को भी ब्रुकर पुरस्कार मिल गया. ये घटनाएं मुझे उन दिनों की याद दिलातीं हैं जब भारत के नए बाज़ार में कॉस्मेटिक बेचने के लिए सुस्मिता सेन को ब्रह्मांड सुंदरी के ख़िताब से नवाज़ा गया.
वह नब्बे के दशक का दौर था. आगे की कहानी आपको मालूम है. छोटे बड़े शहर की गलियों में कुकुरमुत्ते की तरह ब्यूटी पार्लर उग आए. हर दूसरी भारतीय लड़की खुद को कुरुप मानते हुए वहां जाने लगीं. यहां तक कि सुंदरता के पैमाने भी बदल गए. उबटन और मुल्तानी मिट्टी से चमकते हुए, अच्छी साड़ी में लिपटी वधू अब किसी को पसंद नहीं, सबको फेशियल, आई ब्रो, पैडिक्योर, मैनिक्योर, वैक्सिंग की हुई मोम की गुड़िया पसंद है.
हम भूल गए कि बाज़ार पहले आपकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए साधन उपलब्ध कराता है और जता देता है कि आप एक बहुत ही घटिया ज़िंदगी जी रहे हैं. आपको लगता है कि सरकारी स्कूल और अस्पताल बेकार हैं और प्राईवेट बेहतर हैं. नतीजा यह होता है कि आप सरकार पर बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के लिए दवाब बनाना छोड़ देते हैं और धीरे-धीरे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को आपकी सहमति से ही फ़ासिस्ट लोगों द्वारा ख़त्म किया जाता है.
ठीक इसी तरह से प्राईवेट क्षेत्र के कुछेक उच्च सैलरी पाने वाले लोगों को प्रचारित कर आपको बताया जाता है कि कैसे निजी क्षेत्र सरकारी क्षेत्र से बेहतर सुख सुविधाएं देता है. आपको ये सोचने की फ़ुर्सत नहीं है कि इतने बड़े देश और इतनी बड़ी जनसंख्या को रोज़गार देने के लिए निजी क्षेत्र के पास कितनी बड़ी पूंजी और संसाधन हैं.
आप ये भी नहीं समझते हैं कि सैलरी नौकरी का एक हिस्सा है, सामाजिक सुरक्षा, मान सम्मान, देश की प्रगति से सीधे तौर पर जुड़ने का जो मौक़ा एक VLW या ब्लॉक कर्मचारी के पास है, वह किसी सत्य नाडेला के पास भी नहीं है.
नतीजतन, आप अपने बच्चों को कॉरपोरेट ग़ुलाम बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और वे पैसों से भरपूर एक नाकामयाब ज़िंदगी जीते रहते हैं. इस तरह से आप शोषण और युद्ध आधारित पूंजीवादी व्यवस्था (वास्तव में अर्द्ध सामंती-अर्द्ध औपनिवेशिक व्यवस्था- सं.) के कल्पतरु की जड़ों में अपने खून को पानी समझ कर सींचते रहते हैं.
आज की परिस्थितियों में मैं देश की राजनीतिक व्यवस्था पर मध्यम वर्ग की चुप्पी के बारे बहुत कुछ सुनता रहता हूं. यह मध्यम वर्ग कौन है और क्या है इसका राजनीतिक, सामाजिक चरित्र ? यह वही वर्ग है जिसकी आधी आबादी ब्यूटी पार्लर के आसरे है खूबसूरत दिखने के लिए और बाक़ी महानगरों में एक फ़्लैट ख़रीदने को अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मान कर सारे ग़लत सही काम निर्विकार भाव से करती है.
अब एक नया चाल चला गया है. हमारे हज़ारों साल पुराने शास्त्रीय संगीत पर कोई भी गीत उनको ऑरिजिनल नहीं लगता, लेकिन एक सी ग्रेड फ़िल्म की डी ग्रेड गाने को पुरस्कार मिलता है. वे जानते हैं कि राष्ट्रवाद के इस घिनौने दौर में अधिकांश भारतीयों के दिमाग़ को यह कितना सुकून पहुंचाएगा और गधों को नाचते देखना मज़ेदार तो होता ही है.
समाज और देश के पतन के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार विचारों का पतन होता है. हो सके तो इसे बचा लीजिए. चलते चलते बता दूं कि हाथी पर बनी डॉक्युमेंटरी को मिले पुरस्कार के लिए उनके निर्माता वाक़ई बधाई के पात्र हैं. आपको ये विरोधाभास लग रहा होगा लेकिन लोहे के पंजे मख़मल के दस्तानों में ही छुपे रहते हैं.
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