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ख़ल्क ख़ुदा का, मुलुक मोद-शाह का … और एक विरक्त राजकुमार

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ख़ल्क ख़ुदा का, मुलुक मोद-शाह का ... और एक विरक्त राजकुमार

ढम। ढम। ढम।
ख़ल्क ख़ुदा का, मुलुक मोद-शाह का …
हुकुम शहर कोतवाल का !!!!!

हर खासो-आम को आगह किया जाता है कि खबरदार रहें, अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से कुंडी चढा़कर बन्द कर लें.

गिरा लें खिड़कियों के परदे, बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजे. क्योंकि नफरत, जहालत, मूर्खता, डंकाबाजी के स्वर्ण युग में खलल डालने, एक विरक्त राजकुमार, सड़कों पर मोहब्बत फैलाते …

हुजूम लेकर दिल्ली में घुस आया है.

आठ साल से यह मुजिर है के हालात को हालात की तरह कतई बयान ना किया जाए. कि चोर को चौकीदार और हत्यारे को सहारा कहा जाए. कि मार खाते आदमी को, असमत लुटती औरत को, भूख से पेट दबाये ढांचे को, और थार के नीचे कुचलते किसान को बचाने की बेअदबी की जाय !

जीप अगर वजीर की है, उसे इंसानों केे पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ? आखिर सड़क भी तो वजीर ने बनवायी है ! अगर किसी के बनाए कब्रिस्तान गुलजार है, तो हमारे बनाऐ श्मशान सूने कैसे रहे ???

आधी रात को बेटिया जलाना, लाजिम हैं

इस राजकुमार के पीछे,
दौड़ पड़ने वाले अहसान फरामोशों !

क्या तुम भूल गये कि बादशाह ने एक खूबसूरत माहौल दिया है, जहां भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर तुम पर छांह किये रहते हैं.

हूरें लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी, मोटर वालों की ओर लपकती हैं. अस्मतें बिकती है, चांद-सी रोटी के लिए कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर …

तुम्हें इस राजकुमार के पीछे दौड़कर…भला और क्या हासिल होने वाला है ?

आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से …

जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए 18-18 घण्टे जागते हैं; और गांव की नाली की मरम्मत के लिए मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…

तोड़ दिये जाएंगे पैर,
और फोड़ दी जाएंगी आंखें …
अगर तुमने अपने पांव चल कन्याकुमारी से संसद तक, सड़कें लांघकर सत्ता की कोठरियों में झांकने की कोशिश की.

क्या तुमने नहीं देखा उस बूढे का हश्र, जो मोहब्बत और शांति की मशाल लेकर पोरबंदर से नोआखली निकला था ?? भूल गए, निहत्थे कांपते बुड्ढे को हमारे एक कद्दावर जवान ने कैसे ढेर कर दिया था ?

हां, हमने किया कि आने वाली नस्लें याद रखें,
और हमारी जवांमर्दी की दाद दें !

हमने बंद कर दिए है वो सारे लाडस्पीकर, जो कभी सच बोलते थे. खरीद ली है सारी मखमली आवाजें, टीवी और रैलियों में स्वर ऊंचे करा दिये हैं और कहा है कि देशभक्ति के गीत बजायें, और जोर जोर से बहस करें ताकि थिरकती धुनों और इतिहास की चिल्ल-पों में इस शातिर राजकुमार की बकवास दब जाए !

लेकिन नासमझ लोग, इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं. जिसका बच्चा मारा गया, वो वेमुला की मां, जिसकी बेटी मारी गई, वो निर्भया का बाप …जिनके घरों में आग लगी वो लोग, अपने जले हुए कपड़े परचम की तरह लहराते हुए सड़कों पर निकल आये हैं.

ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है, पर जहां हो वहीं रहो. यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि तुम फासले तय करो और मंजिल तक पहुंचो. इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे, नावें मंझधार में रोक दी जाएंगी. बैलगाड़ियां सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएंगी. ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा.

सब अपनी-अपनी जगह ठप !
क्योंकि किसी बाहर के मुल्क में, कोई वाइरस आ गया है !

तुम्हारी, और राजकुमार की रक्षा के लिए लिए जरूरी है कि जो जहां है, वहीं ठप कर दिया जाए !

बेताब मत हो !!

तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है. बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से, तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए, बाश्शा के खास हुक्म से, उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा.

दर्शन करो !

वही रेलगाड़ियां तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएंगी. बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी. ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा. नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा और जो पानी मांगेगा उसे इत्र बसा शर्बत पेश किया जाएगा.

लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में, और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो ताकि इस राजकुमार के कदमों के जो निशान हैं, वह पुंछ जाए.

बाश्शा सलामत वक्त की रेत पर…
किसी और के कदमों के निशान पसंद नहीं
ढम। ढम। ढम।

ख़ल्क ख़ुदा का, मुलुक मोद्-शाह का
हुकुम शहर कोतवाल का…,

  • मनीष सिंह

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