हिमांशु कुमार
नक्सलियों और सरकार के बीच वार्ता कराने के लिये जिस व्यक्ति ने पहल की उनका नाम शंकरन था. मैं शंकरन जी से कई बार मिला. वे बेहद नम्रता और धीरे से बोलते थे. शंकरन आईएएस थे. जब मैं हैदराबाद में उनसे मिलने उनके घर गया तो मेरे साथ मेरे बस्तर के कई आदिवासी साथी भी थे. रिटायरमेंट के बाद शंकरन जी किसी मित्र के खाली पड़े घर में अकेले रहते थे. घर में कोई फर्नीचर नहीं था, बिल्कुल फकीरी का जीवन.
बस्तर के मेरे साथी बाद में बोले कि इतना सादा तो हम भी नहीं रहते, शंकरन जी पहले आंध्र में श्रम सचिव थे. उन्होंने पद सम्भालते ही बंधुआ मजदूरी समाप्त करने का अभियान चलाया, ज्यादातर बंधुआ मजदूर बड़े बड़े नेताओं के खेतों में काम करते थे. शंकरन जी के अभियान से पूरे आंध्र प्रदेश में खलबली मच गई. चेन्ना रेड्डी कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री थे.
एक दिन मुख्यमंत्री ने शंकरन जी को अपने आफिस में बुलाया और पूछा कि आप यह सब क्या कर रहे हैं ? शंकरन जी ने कहा कि कानून लागू कर रहा हूं. मुख्यमंत्री ने कहा कि ‘नहीं, जब मैं कहूंगा तब कानून लागू होगा.’ शंकरन जी ने कहा कि मैं ऐसा नहीं कर सकता. मुख्यमंत्री ने कहा कि फिर आप मेरे साथ काम नहीं कर सकते. शंकरन ने तुरंत इस्तीफ़ा दे दिया और अपना सूटकेस लेकर दिल्ली में केन्द्रीय श्रम सचिव से मिलने आ गये.
शंकरन जी ने केन्द्रीय श्रम सचिव के अर्दली को अपने नाम की पर्ची दी. अर्दली ने शंकरन जी से बाहर बैठने के लिये कहा. कुछ देर बाद कमरे से कुरता धोती पहने एक सज्जन बाहर निकले. शंकरन जी अंदर गये. केन्द्रीय श्रम सचिव ने शंकरन जी से पूछा – ‘कैसे आना हुआ ?’ शंकरन ने पूरा मामला बताया. केन्द्रीय श्रम सचिव ने शंकरन जी से पूछा त्रिपुरा जाओगे ? शंकरन जी ने कहा जहां आप कहेंगे जाऊंगा.
केन्द्रीय श्रम सचिव ने अपने अर्दली को बुला कर कहा कि अभी जो सज्जन बाहर गये हैं, उन्हें बुला दो. कुछ देर में वो धोती कुर्ते वाले सज्जन वापिस आ गये. वे त्रिपुरा के मुख्य मंत्री नृपेन चक्रवर्ती थे. केन्द्रीय श्रम सचिव ने उनसे शंकरन जी का परिचय कराया और कहा आपको त्रिपुरा के मुख्य सचिव पद के लिये एक ईमानदार आदमी चाहिये था ना ? शंकरन को ले जाइए मेरे पास इससे ज़्यादा ईमानदार कोई आदमी नहीं है.
शंकरन जी त्रिपुरा के मुख्य सचिव बन गये. शंकरन जी ने कहा मुझे बंगला नहीं चाहिये. शंकरन जी को एक पुराने डाक बंगले का एक कमरा पसंद आया. बराबर के दूसरे कमरे में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री नृपेन चक्रवर्ती रहते थे. दोनों सुबह बाहर नल के नीचे अपने कपडे धोते थे. बाद में मुख्य मंत्री और मुख्य सचिव दोनों अपने कार्यालय के लिये निकल जाते थे.
शंकरन जी अपना अधिकांश वेतन निराश्रित विद्यार्थियों को उनकी फीस आदि के लिये दे देते थे. जब शंकरन जी रिटायर हुए तो उन्हें जो प्रोविडेंट फंड और ग्रेच्युटी का पैसा मिला वह भी शंकरन जी ने वहां के एक अनाथालय को दान दे दिया. शंकरन अपना एक सूटकेस लेकर आंध्र प्रदेश लौट आये और हैदराबाद में रहने लगे.
नक्सलियों और सरकार के बीच बातचीत कराने के लिये शंकरन जी ने मध्यस्तता की. नक्सलियों ने सरकार से कहा कि सरकार बड़े ज़मींदारों की ज़मीन गरीबों में बांट दे तो हम अपना भूमिगत काम बंद कर देंगे. नक्सलियों ने गैरकानूनी ज़मीन पर काबिज ज़मींदारों की जो सूची सरकार को सौंपी, उसमे सबसे पहला नाम मुख्यमंत्री ई. एस. आर. रेड्डी का था.
सरकार नाराज़ हो गई. बातचीत टूट गई. उसके बाद सरकार ने आंध्र प्रदेश में भयानक जनसंहार किया और जो नक्सली नेता बातचीत के दौरान सामने आये थे उनमे से अधिकांश को मार दिया या जेलों में डाल दिया. वह नक्सलियों और सरकार के बीच अन्तिम वार्ता थी.
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अभी कुछ दिन पहले कुछ पुलिस अधिकारी मुझे विकास के फायदे समझा रहे थे. मैं आदिवासियों के एक आंदोलन में शामिल होने गया था. उन पुलिस अधिकारी के कंधे पर एके फोर्टी सेवन लटकी हुई थी और वे कह रहे थे कि इन आदिवासियों को पता ही नहीं है कि चौड़ी चौड़ी सड़कें इन लोगों के विकास के लिए कितनी ज़रूरी हैं. ये आदिवासी इनके गांवों में से होकर चौड़ी सड़कें बनने का विरोध क्यों करते हैं ? ये लोग पुलिस और अर्ध सैनिक बलों के कैंप इनके गांवों में खुलने का विरोध क्यों करते हैं ? इन लोगों को ऐसा करने के लिए नक्सली भड़काते हैं इत्यादि इत्यादि.
पुलिस अधिकारियों का काम सिद्धांतों और विचारधाराओं को लागू करने का नहीं है. पुलिस का काम महज़ यह देखने का है कि कानून तो नहीं तोड़ा गया है. विकास का कौन सा मॉडल जनता को पसंद करना चाहिए, यह फैसला पुलिस नहीं कर सकती और मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के बनाए हुए उस विकास के मॉडल को पुलिस बंदूक की नली से जनता के गले में नहीं ठूंस सकती.
संभव है प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए विकास का ऐसा मॉडल बना लें, जिसमें गांव गांव में जंगल काटकर खनिज पदार्थ खोदकर पूंजीपतियों की तिजोरी भरने के लिए गांव-गांव में सड़के बनाने का मॉडल ले आएं. ऐसे में पुलिस का काम प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के विकास के मॉडल को जनता को बंदूक के दम पर स्वीकार करवाना नहीं है. जो पुलिस वाले ऐसा कर रहे हैं वह गैरकानूनी काम कर रहे हैं. पूरे आदिवासी इलाके में पुलिस वाले यही गैरकानूनी काम कर रहे हैं लेकिन आजकल हमारे जज भी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के चमचे बन चुके हैं.
प्रशासनिक अधिकारी बुद्धिजीवी और विपक्ष के नेता भी इन पूंजीपतियों के फेंके हुए टुकड़े चाटने में मस्त है.
नेहरू ने खुद आदिवासी इलाकों में ओवर डेवलपमेंट करने से मना किया था. इंदिरा गांधी ने भी आदिवासी इलाकों में खनन की इजाजत नहीं दी थी. गांधी जी ने विकास का कोई भी मॉडल जो जनता पसंद ना करें और जिस पर जनता का कंट्रोल ना हो, वह लागू करने से मना किया था. कमाल है अब बंदूक के दम पर विकास जनता के हलक में उतारा जा रहा है. आज जो आरएसएस की विचारधारा की तरफ नहीं है, उसको भी पुलिस अपराधी मानती है.
पुलिस का ऐसा नैतिक पतन और आपराधिक चरित्र के गिरोह में बदल जाना, पूरे देश के लिए बहुत खतरनाक हालत है. इस समय पूंजीपतियों राजनीतिज्ञों और पुलिस के भयानक गठजोड़ का सामना जनता कर रही है. इनके साथ जज भी मिल गए हैं. इसलिए जनता के पास अब न्याय पाने का कोई रास्ता नहीं बचा है. जनता के सामने सारे रास्ते बंद मत करो. ऐसे ही माहौल में विद्रोह की जमीन तैयार होती है.
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