सिर्फ़ आठ बरस पहले हम एक बढ़ते हुए समाज थे, विश्व से कंधे से कंधा मिलाते हुए, नये अचीवमेंट्स को सेलिब्रेट करते हुए, नीचे से ऊपर तक, गाँव से शहर तक हर आदमी आगे बढ़ने की बात करता था, फ़्रस्ट्रेटेड था कि तत्कालीन सरकार में पॉलिसी पैरालिसिस है, बिज़नेस अपनी सहज गति से आगे नहीं बढ़ पा रहा है, रिफॉर्म्स नहीं हो रहे हैं, हमारे पोटेंशियल को हमारी सरकार समझ नहीं पा रही है.
फिर हमने इस फ़्रस्ट्रेशन को पर्सोनिफाई होते देखा, जन आंदोलन में बदलते देखा, पहले निर्भया कांड में हमने पूरे समाज को एक लड़की के पीछे खड़े होते देखा, बलात्कार और अपराध के प्रति एक समाज को खड़े हुए देखा. उसके बाद अण्णा आंदोलन हुआ और हमने भ्रष्टाचार के प्रति एक समाज को जागरूक होते देखा.
लोकपाल के ज़रिए शासन की ज़िम्मेवारी और लोकतंत्र के लिये प्रतिबद्ध एक जागरूक समाज को देखा. लगा कि सत्तर साल का सपना अब फलीभूत हुआ है. हमारा समाज जागरूक, प्रतिबद्ध और इक्कीसवीं सदी में दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त बन चुका है. यह तय सिद्ध हुआ कि हम कॉंग्रेस को आऊटग्रो कर चुके हैं और लोकतंत्र को अब एक अधिक जागरूक और पढ़े लिखे शासक वर्ग की ज़रूरत है.
2014 के चुनाव इसी बैकड्रॉप में संपन्न हुए. गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई, दिनों दिन बढ़ती महंगाई को मुद्दा बनाकर प्रधानमंत्री मोदी को एक ड्रीम मैंडेट देकर भारत को लोगों ने देश के अगली सरकार को चुना और फिर जैसे रातोंरात इस देश का नैरेटिव बदल गया.
हम 2023 में खड़े हैं, और ऐसा लग रहा है जैसे इस समाज को काठ मार गया हो, या जैसे गरल से भरी हुई नदी इस देश में बह निकली हो जिसका पानी पीकर यह समाज मानसिक रूप से बीमार हो गया हो. मात्र आठ सालों में हमारा विमर्श सौ साल आगे जाने के बजाये ३०० साल पीछे चला गया है, जहां सोश्यल मीडिया से लेकर चाय की चौपालों तक झूठे इतिहास, धर्म के नाम पर झूठे दावों और रुग्ण मान्यताओं का बोलबाला है.
क्या हो गया भारत देश को ? हाथरस की कन्या का पुलिस के द्वारा रातों रात अंतिम संस्कार कर दिया जाता है, कोई जन आंदोलन नहीं होता, उसके अपराधियों को पूरे उजाले में अदालतें छोड़ देती हैं और उनका स्वागत होता है. बिल्कीस बानो के अपराधियों को जेल से छोड़ दिया जाता है और उनके चरण पखारे जाते हैं. भ्रष्टाचारी रंगे हाथ पकड़े जाते हैं और अदालत कह देती है कि किसी के पास बड़ी रक़म का मिलना भ्रष्टाचार का सबूत नहीं है ?
क्या हो गया इस समाज को ? मात्र आठ बरसों में इसकी जागरूकता कहां खो गई. धर्म और संस्कृति के नाम पर ये कौन सी सड़ांध इस देश के मस्तिष्क में समा गई है कि नैतिकता और मूल्य पीछे चले गये हैं. ये कौन सा देश है जहां धर्म के नाम पर वसूली गैंग खड़े हो गये हैं, जो गोकशी और वैलेंटाइन डे के नाम पर लोगों से पैसा वसूलते हैं या फिर उनको मार डालते हैं.
हम विकास की यात्रा में कब अवनति के पथ पर चल दिये, हम कब अफ़ग़ानिस्तान हो गये. इन आठ बरसों में कई दोस्तों और परिवारजनों का साथ छूट गया क्योंकि समझ ही नहीं आया कि नफ़रत और कुंठा से भरे इन लोगों के साथ कैसे जिया जाये.
कैसे कल्पना कर सकते हैं आप कि आपके परिवार के लोग किसी मुसलमान के मरने पर ताली बजाते हैं और हिंदू के मरने पर छाती पीटते हैं. कैसे आपके अपने ही लोग एक मुसलमान के अपराधी होने पर उसे तुरंत फाँसी पर चढ़ाने कि माँग करते हैं, मगर एक हिंदू बलात्कारी का नाम आते ही उनको साँप सूंघ जाता है. एक ही अपराध के लिये एक धर्म का इंसान महापापी होता है, दूसरे से तो बस गलती हो जाती है.
ये कौन सा समाज है जहां भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर चुनी हुई सरकार महाभ्रष्ट साबित होने के बाद भी गुंडागर्दी के साथ खड़ी हुई है, जहां यह दोषसिद्ध होने के बाद भी उसके कृपापात्र दिलेरी के साथ और भ्रष्टाचार कर रहे हैं.
ये मेरा समाज नहीं है. मैं इसमें बड़ा नहीं हुआ, मैं अपने बच्चों को भी इसका हिस्सा नहीं बनाना चाहता. अब आप बताइये कि इसमें फैले हुए इस नफ़रत, अनीति, अनैतिकता के वाइरस के लिये आपके पास कोई वैक्सीन या ऐंटी-बायोटिक है, या आप इस समाज को मध्य एशियाई देशों जैसा क़बीलाई बना दिये जाने के आंदोलन का ही हिस्सा हैं.
- आनंद जैन
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