सुब्रतो चटर्जी
सुप्रीम कोर्ट मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में एक पक्ष होगी. सुप्रीम कोर्ट अदानी मामले में सेबी की भूमिका और दूसरी एजेंसियों की भूमिका की भी जांच करेगी. कहने का मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट अब executive power का इस्तेमाल करेगी जबकि यह काम सरकार का है. दरअसल, मूर्खों की सरकार ने धोखाधड़ी करते हुए अपनी ये हालत बना ली है कि अब कोर्ट, जिसे judicial overreach कहते हैं, उसके लिए बाध्य है.
संसदीय लोकतंत्र में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका की भूमिकाएं बिल्कुल अलग-अलग और स्पष्ट हैं. परेशानी तब होती है जब विधायिका और कार्यपालिका अपने अपने कार्य ईमानदारी से नहीं करते हैं. ऐसे में, संविधान के रक्षक होने के नाते, न्यायपालिका को जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए आगे आना पड़ता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है.
मैंने जिन दो फ़ैसलों का ज़िक्र शुरू में किया है, वे इस परिधि के अंदर भी हैं और बाहर भी. अंदर इसलिए कि संविधान की रक्षा के लिए निष्पक्ष चुनाव अति आवश्यक है और इसलिए चुनाव की शुचिता बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति सरकार के हाथों नहीं रहे, ऐसा कोर्ट का मानना है. अदानी मामले में सुप्रीम कोर्ट को अपना दायरा बढ़ा कर एक समिति गठित कर पूरे खेल के पीछे क्रिमिनल षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश करना है.
दरअसल यह काम सीबीआई, ईडी और डीआरआई का है. अब चूंकि इन संस्थाओं का काम सिर्फ़ राजनीतिक बदले की भावना से विपक्षी दलों पर हमला करना भर रह गया है, तो सुप्रीम कोर्ट को उनका काम करना पड़ रहा है.
देश में अधिनायकवाद और अघोषित आपातकाल लादने की कुत्सित मंशा से लिए गए मोदी सरकार के प्रयासों को इससे बहुत बड़ा झटका लगा है. नरेंद्र मोदी ये भूल गए थे कि भारत के संविधान निर्माताओं के मन में ऐसी स्थिति की आशंका और समझ दोनों थीं और वे इसके लिए तैयार थे सांविधानिक प्रावधानों के साथ.
नतीजा है कि मोदी ने खुद ही अपनी सरकार के कार्य क्षेत्र और शक्तियों का विघटन कर दिया है. आप कल्पना कीजिए कि अगर सुप्रीम कोर्ट की इस पहल से भारत को टी. एन. शेषन जैसा अगर एक मुख्य चुनाव आयुक्त फिर से मिल जाए ? दूसरी तरफ़ अगर सुप्रीम कोर्ट की समिति ने अदानी मामले की जड़ों तक पहुंच कर एक क्रिमिनल श्रेष्ठ को ज़िम्मेदार ठहरा दें तो क्या होगा ?
गिरोहबंद पूंजीवादी व्यवस्था के गलित कुष्ठ रोगी के पृष्ठपोषक बन कर कोई भी सरकार भारत में संविधान के अनुसार नहीं चल सकती है. इसे सुनिश्चित करना सुप्रीम कोर्ट का सांविधानिक दायित्व है और मुझे ख़ुशी है कि देर सबेर सुप्रीम कोर्ट ने इस दिशा में सराहनीय कदम उठाया है.
वर्तमान मुख्य न्यायाधीश सचमुच में जनपक्षधर या संविधानपरस्त हैं ?
एक फ़िल्मी जोक है. एक आदमी एक फ़िल्म की हरेक शो सात दिनों तक देखता रहा. एक दिन उसके दोस्तों ने पूछा कौन- सी ऐसी बात है इस फ़िल्म में कि तुम रोज़ तीनों शो देखते हो ? उस व्यक्ति ने जवाब दिया – ‘दरअसल इस फ़िल्म में हिरोईन एक तालाब के किनारे नहाने जाती है. इस क्रम में वह एक-एक कर कपड़े उतारती है. ठीक जब वह अपने अंतरवस्त्र उतारने को होती है, तभी सामने से एक ट्रेन गुजर जाती है और … मैं रोज़ इसलिए देखता हूं कि किसी दिन तो ट्रेन लेट होगी !’
यही हाल हमारी देश की जनता का न्यायपालिका को लेकर है. सीलबंद लिफ़ाफ़े में जांचकर्ताओं के नाम को सुप्रीम कोर्ट द्वारा रिजेक्ट कर अपनी जांच समिति अदानी मामले में बनाने के फ़ैसले पर लोग ऐसे उछल रहे हैं जैसे कि सुप्रीम कोर्ट आख़िर में हमारे भ्रष्ट बुर्जुआ पूंजीवादी लोकतंत्र का हिस्सा नहीं रह गया है. वह भी तब जबकि अभी यही नहीं पता कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाए जाने वाली कमिटी का स्कोप ऑफ़ वर्क क्या होगा.
राम मंदिर, पेगासस, राफाएल, नोटबंदी, चुनावी बॉंड, ईवीएम मशीन ऐसे अनेकों मामले में हम सुप्रीम कोर्ट का सत्तापरस्त और जनविरोधी रवैया देख चुके हैं, फिर भी उम्मीद ? क्या बस इसलिए कि माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय के पिता जी एक विरल integrity वाले व्यक्ति थे और कई फ़ैसले उन्होंने सत्ता के विरुद्ध और जनता के हक़ में दिए थे ?
अगर वर्तमान मुख्य न्यायाधीश सचमुच में जनपक्षधर या संविधानपरस्त होते तो शुरुआत राम मंदिर के टाईटल सूट के फ़ैसले की पुनर्वीक्षा से कर सकते थे. अगर वे चाहते तो राफाएल और नोटबंदी के असांवैधानिक फ़ैसले के आधार पर ही सरकार के सबसे उच्च पदस्थ लोगों को जेल भेज सकते थे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, क्यों?
दरअसल हमें यह समझने की ज़रूरत है कि फासीवाद का जो नंगा नाच आज आवारा पूंजी के ज़रिए आज तीसरी दुनिया के देशों में खेला जा रहा है, वह उन्नत देशों के द्वारा ही तीसरी दुनिया की विशाल जनसंख्या का आर्थिक दोहन के लिए रचा गया है. यही कारण है कि बीबीसी पर छापे पर ब्रिटेन चुप रहेगा क्योंकि टाटा 840 विमान फ़्रांस और अमरीका से ख़रीदेंगे जिनका इंजन ब्रिटेन में बनता है !
इन हालातों में स्वाभाविक है कि अदानी या टाटा भारत बन गया है और उनके उपर हमले का मतलब भारत पर हमला है. न तो अदानी का सीईओ झूठ बोल रहा है और न ही मोदी जी झूठ बोल रहे हैं.
आर्थिक ग़ुलामी की प्रक्रिया के संपृक्त स्वरूप में पूंजी देश का पर्याय बन जाता है, यह एक ऐतिहासिक सत्य है. ईस्ट इंडिया कम्पनी (East India Company) पर हमला ब्रिटेन पर ही हमला था, इसलिए 1857 के ग़दर के बाद ब्रिटिश सरकार ने कंपनी भंग कर भारत का शासन अपने हाथों में ले लिया था. आज भारत का शासन अंबाडानी और टाटा जैसे पूंजीपतियों के हाथों में है.
ऐसे में आप अगर सुप्रीम कोर्ट से उतनी ही जनपक्षधारिता की उम्मीद करें जितना कि अंग्रेजों की अदालतों से थीं तो आप सत्य के ज़्यादा क़रीब रहेंगे. लोकतंत्र में नागरिक चेतना, ज़मीनी संघर्ष और अन्याय के विरूद्ध स्वाभाविक प्रतिरोध की भावना का कोई विकल्प नहीं होता – न संसद, न न्यायपालिका. यह ठीक उसी तरह से है जैसे कि जीवन में कठोर परिश्रम का विकल्प कोई रुद्राक्ष नहीं होता चाहे उसमें दुनिया की हरेक नदी का पानी क्यों न हो.
चमत्कार की आशा काहिल दिमाग़ की अंतिम शरणस्थली है !
मैं आपको गारंटी के साथ कह सकता हूं कि 2024 के चुनाव में महंगाई, बेरोज़गारी, अर्थव्यवस्था, अदानी, अंबानी कोई भी मुद्दा फ़र्क़ नहीं डालेगा क्योंकि भिखारियों को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है. सुनने में भले अजीब लगे, लेकिन आज के भारत का सच यही है. तिस पर तुक्का ये है कि इवीएम के ज़रिए क्रिमिनल लोगों की सरकार को चुनाव रोकने से कोई अब रोक नहीं सकता है.
2019 में मैंने लिखा था कि सौ प्रतिशत वोट भी अगर मोदी के खिलाफ पड़े फिर भी वही जीतेगा. क्रिमिनल तरीक़ों पर यही विश्वास किसी भी सरकार को आत्मविश्वास के साथ एक से बढ़कर एक जनविरोधी नीतियों को धड़ल्ले से लागू करने का आत्मविश्वास देता है.
आपको लगता है कि मोदी को राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की राजनीति पर भरोसा है ? आप बिल्कुल ग़लत हैं. कोई भी क्रिमिनल क्रिमिनली पैंतरों के सिवा किसी और बात पर विश्वास नहीं करता है. यह हो ही नहीं सकता है. लोकतंत्र के मुखौटे को बरकरार रखने के लिए चुनावी रैलियां, भाषण, वादे, आरोप-प्रत्यारोप, हिंदुत्व, राम मंदिर आदि चलता रहेगा, लेकिन भरोसा सिर्फ़ इवीएम पर रहेगा, यही आख़िरी सच है.
दरअसल भारत में कम्युनिस्ट दलों को छोड़ कर कोई विपक्ष में नहीं हैं. सारे दक्षिणपंथी दलों का ध्येय सिर्फ़ सत्ता हासिल करने की है, ताकि वे इस सड़ी गली पूंजीवादी व्यवस्था में चारण भांट की भूमिका में आ जाएं.
मुझे संसदीय लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले कम्युनिस्ट लोगों से कोई उम्मीद नहीं है और क्रांतिकारी कम्युनिस्ट लोगों की संख्या नगण्य हैं. मेरे विचार से संसदीय लोकतंत्र में आस्था रखने वाले कम्युनिस्ट लोगों ने कम्युनिस्ट आंदोलन की जितनी क्षति क्रांति की की है, उतनी क्षति किसी भी दक्षिण पंथी दल ने नहीं की है.
संशोधनवाद फासीवाद से भी ज़्यादा ख़तरनाक है कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए, ये हम हिटलर और ख्रुश्चेव की भूमिका के तुलनात्मक अध्ययन से समझ सकते हैं. नाज़ी जर्मनी ने कम्युनिस्ट आंदोलन को प्रतिरोध की ऐसी उर्जा दी कि उसका अंत फासीवाद की समाप्ति के साथ हुआ. दूसरी तरफ़, ख्रुश्चेव और त्रॉतस्की जैसे संशोधनवादियों ने कम्युनिस्ट आंदोलन का बेड़ा ही गर्क कर दिया. सनद रहे कि सोवियत संघ के विघटन के पीछे वहां की संशोधनवादी शक्तियां ही थी. गोर्बाचोव जैसे अमरीकी दलाल तो बहुत बाद में आए.
ठीक उसी तरह से सीपीएम जैसे संशोधनवादी दलों ने ही नक्सल आंदोलन का सफ़ाया किया. सिद्धार्थ शंकर राय जैसे सिर्फ़ नक्सलियों को मार सकते थे, उनकी राजनीतिक हत्या नहीं कर सकते थे.
जनता मूलतः सुविधावादी होती है. जब आपके सामने चुनाव हो कि आप अपने ड्रॉईंग रूम में बैठे विधानसभा और लोकसभा में बैठे अपने कॉमरेड लोगों की दलाली कर गाड़ी बाड़ी बना लें या मुसहरों की टोली में जा कर उनकी लड़ाई लड़े, तो जनता किस तरफ़ जाएगी ? सर्वहारा की क्रांति और विजय का पथ संसदीय लोकतंत्र की राजनीति के ज़रिए नहीं निकलता है.
जनता के अंदर क्रांतिकारी चेतना के अभाव के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत की संसदीय वाम ज़िम्मेदार हैं, यह अंतिम सत्य है. हम क्यों उम्मीद करें कि कोई राहुल या स्टालिन जनता को क्रांति के लिए तैयार करें ? मोदी इसीलिए सफल हैं और रहेंगे.