हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
अमेरिका के न्यायिक इतिहास में एक मशहूर जज हुए हैं लुइस ब्रैंडिस. एक सौ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट में दिए गए एक चर्चित फैसले में उन्होंने कहा था, ‘किसी भी देश में लोकतंत्र और चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण एक साथ नहीं चल सकते. अगर चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण होगा तो लोकतंत्र महज मखौल बन कर रह जाएगा और अंततः वह पूंजी के हाथों का खिलौना बन जाएगा.’
हालांकि, कालांतर में खुद अमेरिका में ब्रैंडिस के इस कथन के उलट पूंजी का संकेंद्रण निर्लज्ज तरीके से बढ़ने लगा और बावजूद अपनी आंतरिक मजबूती के, अमेरिकी लोकतंत्र और उसकी नीतियों पर कुछ खास पूंजीपतियों का प्रभुत्व कायम हो गया. अब चूंकि अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व महाशक्ति बन कर अंतरराष्ट्रीय पटल पर छा गया तो पूंजीपतियों के इशारों पर बनने वाली उसकी नीतियों का नकारात्मक असर दुनिया के गरीब और कमजोर देशों पर पड़ना स्वाभाविक था.
हालात बेहद संगीन तब होने लगे जब 1950 के दशक में आइजनहावर अमेरिका के राष्ट्रपति बने. असल में पूर्व सैन्य अधिकारी आइजनहावर अमेरिकी हथियार कंपनियों के अप्रत्यक्ष राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में राष्ट्रपति चुनाव में उतरे थे. पहले विश्वयुद्ध से त्रस्त और दूसरे विश्वयुद्ध से ध्वस्त मानवता अंतरराष्ट्रीय शांति की तलाश में थी और सोवियत संघ के भी महाशक्ति बन कर उभरने के बाद दुनिया में रणनीतिक संतुलन जैसा बनने लगा था.
अब, युद्ध हो ही नहीं तो हथियार कंपनियों का व्यापार कैसे फले फूले. तो, उन्होंने चुनाव में आइजनहावर का खुल कर समर्थन किया और जीत के बाद राष्ट्रपति ने भी उन्हें निराश नहीं किया. उन्होंने बढ़ते सोवियत प्रभाव को बहाना बना कर मध्य पूर्व के देशों सहित कई अन्य देशों को सैन्य सहायता के नाम पर बड़े पैमाने पर हथियार मुहैया कराना शुरू किया. अब तो द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद सुस्त पड़ी हथियार कंपनियों की चल निकली. उनका व्यापार तेजी से बढ़ने लगा.
आइजनहावर ने अमेरिकी-सोवियत शीतयुद्ध को अपनी अक्रामक नीतियों से एक नए मुकाम पर पहुंचाया. अमेरिकी इतिहास में इन नीतियों को ‘आइजनहावर सिद्धांत’ के नाम से जाना जाता है.
1950 के दशक में अमेरिकी राजनीति और अर्थनीति में बड़ी हथियार कंपनियों के बढ़ते प्रभुत्व ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. उसके बाद जितने भी राष्ट्रपति आए, सबने बातें तो शांति की की लेकिन दुनिया के हर कोने में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष युद्ध को बढ़ावा देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, इतनी कि मानवता त्राहि-त्राहि कर उठी.
अमेरिकी अर्थव्यवस्था में हथियार उद्योग की बड़ी भूमिका है और वहां की राजनीति को बड़े हथियार सौदागरों ने हमेशा अपने निर्णायक प्रभावों के घेरे में रखा. नतीजा, उन पूंजीपतियों के असीमित लालच ने दुनिया को फिर कभी चैन और शांति से जीने नहीं दिया. युद्ध पर युद्ध होते रहे, उनका मुनाफा बढ़ता गया. आजकल चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध में भी अमेरिकी-यूरोपीय बहुराष्ट्रीय हथियार कंपनियों के प्रभावों को महसूस किया जा सकता है.
तकनीक के विकास और उसके विस्तार ने पूंजीपतियों के लिए अवसरों के नए द्वार खोले क्योंकि उन्होंने तकनीक पर अपनी पूंजी के बल पर कब्जा कर लिया. धीरे-धीरे जनता उनकी गुलाम होती गई और वे देश और दुनिया को हांकने लगे. राजनीति उनके इशारों पर नाचने वाली नृत्यांगना बन गई.
इन वैश्विक रुझानों से भारत जैसे गरीब और विकासशील देशों को भी प्रभावित होना ही था. विशेषकर 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण की तीव्र होती प्रवृत्तियों ने भारत में भी चंद हाथों में पूंजी के संकेंद्रण को बढ़ावा देना शुरू किया. यद्यपि यहां की राजनीति में भी आजादी के बाद से ही पूंजीपतियों का प्रभाव बना रहा था लेकिन नई सदी तक आते आते यह प्रभाव एक नए मुकाम पर पहुंच गया. क्रोनी कैपिटलिज्म के प्रतीक के रूप में अंबानी घराने के उत्थान ने भारतीय राजनीति के नैतिक पतन का एक नया अध्याय लिखना शुरू किया.
देखते ही देखते अंबानी घराना इस देश का शीर्षस्थ अमीर बन गया. उनकी संपत्ति में इतनी तेजी से बढ़ोतरी कैसे हुई यह आम लोगों ही नहीं, अर्थशास्त्रियों के लिए भी जिज्ञासा का विषय बना रहा. देश की आर्थिक नीतियों के निर्माण पर इस घराने की पकड़ जगजाहिर रही. लेकिन, क्रोनी कैपिटलिज्म को गैंगस्टर कैपिटलिज्म में बदलते देर नहीं लगी जब नई सदी के दूसरे दशक में राजनीति के मोदी काल ने गौतम अडानी के नाम को कारपोरेट जगत के शीर्ष पर ला खड़ा किया.
नियमित अंतराल पर जारी होती रही ऑक्सफेम सहित अन्य कई रिपोर्ट्स में चेतावनी दी जाती रही कि भारत में चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण बेहद खतरनाक तरीके से बढ़ता जा रहा है और यह एक कैंसर की तरह भारतीय राजनीति और समाज को अपने घेरे में लेता जा रहा है.
किंतु, मीडिया पर बढ़ते कारपोरेट प्रभावों और राजनीति के नैतिक पतन ने आम लोगों को वैचारिक रूप से दरिद्र बनाने का अभियान छेड़ दिया. दुष्प्रचार और गलत बयानी मीडिया का स्थायी भाव बन गया और नवउदारवादी नीतियों की अवैध संतानों के रूप में जन्मे नव धनाढ्य वर्ग ने समाज में नेतृत्व हासिल कर लिया.
समाज में बढ़ती विचारहीनता ने अनैतिक जमातों के नेतृत्व हासिल करने में प्रभावी भूमिका निभाई और भारतीय राजनीति ने पूंजी के कदमों तले बिछने में शर्माना छोड़ दिया. चुने हुए जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त अब खुले आम होने लगी और पूंजी राजनीति के सिर चढ़ कर अपने खेल खेलने लगी. नतीजा, मतदाताओं का निर्णय अपनी जगह, राजनीति और कारपोरेट के अनैतिक गठजोड़ के खेल अपनी जगह. ऐसे में लोकतंत्र को मखौल के रूप में बदलना ही था.
अब, ऐसे दृश्य आम हो गए कि मतदाताओं ने किसी सरकार को चुना और सत्ता में कोई अन्य सरकार आ गई. चार्टर्ड हवाई जहाज, उन पर बिकी हुई सामग्रियों की शक्ल में बैठाए और उड़ा कर ले जाए गए जनप्रतिनिधियों के समूह, फाइव स्टार होटलों या सात सितारा रिजार्ट्स में शर्मनाक बैठकों की शक्ल में अनैतिक मोल भाव के अंतहीन सिलसिले…
सबको पता रहता है कि करोड़ों अरबों की ऐसी राजनीतिक डीलिंग्स में किन पूंजीपतियों का पैसा लग रहा है और अपनी मन माफिक सरकार बनवा लेने के बाद वे क्या करेंगे, लेकिन इन अनैतिक और अलोकतांत्रिक गतिविधियों के विरुद्ध जन प्रतिरोध की कोई सुगबुगाहट कहीं नजर नहीं आती, उल्टे आम लोग टीवी चैनलों के सामने बैठ इन खबरों और विजुअल्स का मजा लेते हैं, उन पर चटखारे लेते हैं. लोगों का वोट ले कर करोड़ों में बिक जाने वाले जनप्रतिनिधि अपने मतदाताओं की हिकारत के पात्र तो नहीं ही बनते.
पूंजी का चंद हाथों में अनैतिक संकेंद्रण, राजनीति का उसकी दासी बन जाना, मीडिया का उसका भोंपू बन जाना अंततः ऐसे ही विचारहीन, खोखले समाज को जन्म देता है जहां न अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध उपजता है न राजनीतिक अनाचार के प्रति कोई जुगुप्सा का भाव उत्पन्न होता है. अनैतिक पूंजी जब किसी को हीरो बनाती है तो वह समाजोन्मुख या जनोन्मुख हो ही नहीं सकता. उसे उन इशारों पर नाचना ही है जो उनको फर्श से अर्श पर पहुंचाते हैं.
निष्कर्ष में एक नई तरह की गुलामी आती है जिसमें जनता को पता भी नहीं चलता कि वह किन तत्वों की गुलाम बनती जा रही है. अपनी भावी पीढ़ियों के प्रति दायित्व बोध का नैतिक भाव उसके मन से तिरोहित हो जाता है.
आज का भारत इसी रास्ते पर है जहां चंद हाथों में पूंजी का सिमटना अब कोई रहस्य नहीं रह गया है, न यह रहस्य रह गया है कि राजनीति और कारपोरेट के वे खिलाड़ी कौन हैं जो जनता को गुलाम बनाने की साजिशों में शामिल हैं. और, मानसिक रूप से गुलाम होते लोग भला प्रतिरोध की भाषा क्यों बोलेंगे ? वे तो प्रतिरोध और विचारों की बात करने वालों का मजाक उड़ाएंगे.
आज के भारत का स्याह सच यही है. एक सौ वर्ष पहले अपने उसी फैसले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जज लुइस ब्रैंडिस ने यह पंक्ति भी लिखी थी, ‘चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण अंततः मानवता के खिलाफ अनैतिक शक्तियों को ही मजबूत करेगा.’ आज वह आशंका सच में तब्दील हो कर हमारे सामने एक सामूहिक विपत्ति की तरह खड़ी हो चुकी है.
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