Home कविताएं क्या तुम्हें भी लगने लगा है डर !

क्या तुम्हें भी लगने लगा है डर !

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हे अन्तरयामी !
अंतिम और परम सत्यवादी !
आओ ! हम सबकी आत्माओं में झांको !
बताओ कि हमारी
आत्मा कहां और
किस देश में बसती है
कौन सी है हमारी पुण्यभूमि
कौन है वो पापी
जो फेंक गया हम अधर्मियों को
इस पवित्र भूमि को करने अपवित्र

आओ ! अच्छी तरह से
करो हमारे शरीर की चीर-फाड़
करो हमारी आत्मा की पूरी पड़ताल
और बताओ
कि…
हम देशप्रेमी नहीं
देशद्रोही हैं
कि
हम किस देश का खाते हैं
किस देश का गाते हैं

बताओ
कि
हम वो देशद्रोही हैं
जो नहीं बोलते
नहीं सोचते
नहीं देखते
तुम्हारे जैसे
परम सत्यवादी की तरह
कि
हम कभी पहचान ही नहीं पाते
परम सत्य क्या है
यहां तक कि
तुम्हारी देववाणी
पर भी करते हैं संदेह

हम नादान
अपने मन की बात
कहते हैं
अपने मन की बात
लिखते हैं
जो दिखता है
वही देखते हैं
और तो और
तुम्हें भी ग़लत और अज्ञानी
बताने की हिमाक़त !
नहीं, नहीं, भूल कर बैठते हैं !

सच में हम भूल जाते हैं
तुम तो आज के युग के
स्वघोषित देवता हो
तुमसे नहीं हो सकती कोई भूल
वो तो सतयुग के देवता होते थे
जिन्हें उनके परम भक्त
और दुश्मन भी
जी खोलकर गरिया सकते थे
पर वे चुपचाप
मुस्करा कर सुनते थे उनकी बातें
और कर देते थे
उनकी सारी शंकाओं का निवारण
बता देते थे अपनी मजबूरियों का कारण

पर तुम तो आज के देवता हो
परम ज्ञानी, परम सत्यवादी, सर्वेश्वर !
तुम नहीं करते कभी कोई भूल !

लेकिन…सुनो…!
आज भी नहीं विकसित हुई है
ऐसी कोई तकनीक
जो रोक सके डगमगाने से
देवताओं का सिंहासन
आज के देवताओं को
भी सताता है यह डर !

क्या तुम्हें भी लगने लगा है डर !

  • सरला माहेश्वरी

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