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जन समस्याएं और समाधान के विकल्प

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देश की जनता के सामने अपनी समस्याओं के समाधान के लिए दो विकल्प हैं. पहला-संसदीय विकल्प के जरिये सरकार में बदलाव और दूसरा-इस व्यवस्था को बदलने का विकल्प. अभी तक पार्लियामेंन्ट में जो वैकल्पिक सरकारें बनती रही हैं, उससे वर्गीय हितों के दृष्टिकोण से मजदूरों, किसानों, छोटे पूंजीपतियों और व्यापारियों, छात्रें एवं युवकों, महिलाओं, आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों के जनवादी हितों को कोई मौलिक लाभ नहीं हुआ बल्कि उनके जीवन में पीड़ा और शोषण बढ़ता ही गया.

भाजपा की सरकार और अपने को भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एकमात्र वारिस कहने वाली कांग्रेस पार्टी, जिसमें शरद पवार जैसी पार्टी भी हैं, क्षेत्रिय पार्टियां, जिसमें करूणानिधि की पार्टी, एन्टी रामाराव की पार्टी, जगन और केसीआर की पार्टी, स्वर्गीय बीजू पटायक की पार्टी, ममता की त्रृणमूल पार्टी, बसपा, सपा, जदयू, राजद, रामबिलास की जनशक्ति पार्टी, आम आदमी पार्टी, फारूख अब्दूल्ला की पार्टी एवं महबूबा मुफ्ती की पार्टी और इसके अलावा सीपीआई और सीपीएम पार्टी की भी सरकारें-चाहे वे प्रान्तीय स्तर की हों या केन्द्रीय स्तर की मिली-जुली, सभी ने मजदूरों, किसानों, सहित सभी जनवादी समूहों की आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान करने के विपरीत जनता की एकता को तोड़ने का ही काम किया.

शिक्षा, स्वास्थ, कृषि, उद्योग और व्यापार में मौजूद समस्याएं और भी ज्यादा विकराल हो गई हैं. बेरोजगारी बेहताशा बढ़ती जा रही है, कारगर और वैज्ञानिक शिक्षा 80% लोगों की पहुंच से बाहर होती जा रही है, इलाज कराना लोगों के बूते से बाहर हो रहा है. छोटे और मध्यम किसानों का कृषि कार्य चौपट होता जा रहा है. छोटे व्यापारियों और पूंजीपतियों का व्यापार और उद्योग बंद होते चले जा रहे हैं. अमीरी गरीबी बढ़ती जा रही है. 105 खरबपति बढ़कर 164 हो गये हैं. 55% जनता को जितनी सम्पत्ति है, उतनी केवल 105 खरबपतियों के पास है.

ऐसी स्थिति में वैकल्पिक सरकार या वैकल्पिक व्यवस्था के बीच चुनाव कर समाधान ढूंढने पर विचार करने का अब समय आ गया है. जितने भी प्रयास जनता के दबाव में इन वैकल्पिक सरकारों के द्वारा कानून में बदलाव करके या निर्णय लेकर किये गये, वे नौकरशाही, न्यायपालिका और शासक वर्ग के विवाद के जाल में फंसकर लागू नहीं हो सके. दरअसल बेरोजगारी, मंहगाई, शिक्षा, सुलभ इलाज का सम्बन्ध व्यवस्था से जुड़े हैं.

राजनीतिज्ञ और राजनैतिक विश्लेषक और जनपक्षीय बुद्धिजीवियों को इन व्यवस्थागत दोषों को जनता के सामने लाने की जरूरत है. लेकिन ठीक इसके उलट अधिकांश प्रचार माध्यम, राजनैतिक विश्लेषक, राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी इस काम में लगे हुए हैं कि जनता का ध्यान व्यवस्था परिवर्तन की ओर से कैसे हटाया जाय.

सवाल उठता है कि समाधान कैसे हो ? यह स्थिति केवल हमारे ही देश में नहीं है बल्कि समाधान ढूंढने की समस्या कमोबेस दुनिया के लगभग हर देश में है. जहां जनता ने सही विश्लेषण करके व्यवस्था परिवर्तन के लिये सही दिशा पकड़ कर पहलकदमी की है, वहां वर्त्तमान व्यवस्था को बनाये रखने वाली सरकारों से जनता की टकराहट अधिक से अधिक मुखर होती जा रही है.

1974 में भारत के बिहार प्रान्त से इस तरह के आन्दोलन खड़ा होने का खट्टा-मीठा अनुभव देशवासियों को है. बिहार के छात्र-नौजवानों ने तत्कालीन पटना विश्वविद्यालय के अध्यक्ष व युवाजन सभा के नेता लालू प्रसाद व नरेन्द्र सिंह, विद्यार्थी परिषद् के छात्र नेता सुशील कुमार मोदी तथा रविशंकर प्रसाद, बीएसए के मुखर नेता अरविन्द कुमार सिन्हा और बलदेव झा (एवं पार्श्व नेता बी. एन. शर्मा तथा धन्नजय सिंह) तथा एआईएसएफ के छात्र नेता शम्भू शरण श्रीवास्तव ने बेरोजगारी, मैकाले की शिक्षा नीति, मंहगाई और भ्रष्टाचार आदि 11 सूत्री मांगों के आधार पर बिहार के विभिन्न विश्वविद्यालयों एवं संगठनों से लगभग 600 प्रतिनिधियों को बुलाकर पटना विश्वविद्यालय के लाईब्रेरी हाल में सम्मेलन आयोजित किया.

बिहार और केन्द्र दोनों जगहों में क्रांग्रेस की सरकार थी. आन्दोलन के विस्तार, जुड़ाव के स्वरूप, आन्दोलन के लक्ष्य तथा आन्दोलन की नेतृत्वकारी दिशा सम्बन्धी सबालों पर बड़ा ही जीवन्त वहश शुरू हुआ. डांगे के मैन्डेट के अधीन सीपीआई की प्रान्तीय कमिटि द्वारा निर्देशित एआईएसएफ के प्रतिनिधि बीएसए के प्रतिनिधियों को साथ लेकर वाम ब्लॉक बनाकर सम्मेलन तथा नेतृत्वकारी भुमिका से बीएसए को बाहर करने के जीतोड़ प्रयास कर रहे थे. वही दूसरी ओर विद्यार्थी परिषद के प्रतिनिधि बीएसए पर सम्मेलन में जबर्दस्त आलोचनात्मक प्रहार कर रहे थे और चाह रहे थे कि बीएसए को सम्मेलन से बाहर किया जाय.

बलदेव झा के विरोध के बावजूद बीएसए की राजनीतिक कमिटी ने एआईएसएफ से मिलकर सम्मेलन-बहिष्कार का निर्णय लिया और उसे लागू करने के लिये अध्यक्ष मंडल के अध्यक्ष बलदेव झा जब खड़े हुए तो अध्यक्ष मंडल के दूसरे अध्यक्ष लालू प्रसाद ने उन्हें मनाने और रोकने का हर सम्भव प्रयास किया. परन्तु अध्यक्ष लालू प्रसाद एवं अन्य युवाजन सभा के नेता व प्रतिनिधि विद्यार्थी परिषद् के नेता और प्रतिनिधि के साथ ही सम्मेलन में बैठ रहे.

कुछ ही दिन के बाद जिस इन्दिरा गांधी की कांग्रेस सरकार के विरूद्ध आन्दोलन और सम्मेलन आयोजित किया गया था, उसी इन्दिरा गांधी की सरकार को डांगे के नेतृत्व में सीपीआई ने समर्थन कर दिया और बीएसए के नेतृत्वकारी सामर्थ्य के अभाव में लालू-मोदी ने जयप्रकाश नारायण को आन्दोलन का नेतृत्व सौंप दिया.

यद्यपि बीएसए एआईएसएफ के आन्दोलन के प्रति गद्दारी के बाद छात्र-नौजवान के आन्दोलन की मुख्य नेतृत्वकारी भूमिका से बाहर हो गया, फिर भी जयप्रकाश की नेतृत्ववाली आन्दोलन को अपना समर्थन देने का एलान करते हुए सहयोग करने लगा. इस लड़ाई में भी जयप्रकाश नारायण सहित हजारो नेताओं कार्यकर्त्ताओं को सरकारी दमन का शिकार होते हुए लाठी खानी पड़ी, जेल जाना पड़ा और गोली खानी पड़ी. परिणाम यह हुआ कि व्यवस्था में बदलाव और सम्पूर्ण-क्रान्ति के नारे के साथ केवल सरकार बदली.

आज आरएसएस की जनसंघ पार्टी, (अब भाजपा बनकर) जहां एक ओर केन्द्र और कई प्रान्तों में सरकार पर काबिज है, वहीं सोशलिस्ट राजद व सपा के रूप में आकर क्षेत्रीय पाटियां बन गई और राजद, जदयू, सीपीएम व सीपीआई (माले), कांग्रेस और सीपीआई के सहयोग के साथ प्रान्तीय सरकार पर काबिज है. राजद और सपा दोनों पार्टियाँ पारिवारिक स्वार्थ के साथ वोट के लिए सामाजिक न्याय के नाम पर सैद्धांन्तिक रूप से खड़ी दिखायी देती है इसलिये हमारे देश की जनता की एकता बड़ी आसानी से जातीय और धार्मिक भावनाओं का शिकार बनती जा रही है तथा जन आक्रोश और प्रतिरोध की चेतना के अभाव में अन्धराष्टवाद, धर्मनिर्पेक्षता और जातिवाद का शिकार बनती जा रही है.

तब ऐसी स्थिति में जनपक्षीय बुद्धिजीवियों के सामने जनता में फैली इन जन-विरोधी भावनाओं को दूर करने का काम सर्वोपरि हो जाता है और संसदीय विकल्प की अक्षमता को स्पष्ट करने का कार्य भार भी उनके सामने आ जाता है. इस कार्य में निश्चित रूप से क्रांतिकारी तथा जन-पक्षीय बुद्धिजीवियों को शासक वर्ग का कोपभाजन होने की स्थिति बन जाती है जैसे रजन्ना, बरवरा राव, सुधा भारद्वाज, आनंद तेल तुमडे, साईबाबा, गौरी लंकेश, कलबुर्गी आदि. देश के बुद्धिजीवी जनता जब तक इसके लिए तैयार नहीं होंगे, तब तक शासक वर्ग की तिकड़म और षड़यंत्र बदस्तूर चलता रहेगा.

केवल बुद्धिजीवी ही नहीें बल्कि किसान, मजदूर, छात्र -नौजवान, आदिवासी, महिला, दलित, अल्पसंख्यक भी इसका कोपभाजन बनने के लिए अभिशप्त हो गये हैं. पिछले दिनों किसानों के ऊपर होने वाले प्रहार, मजदूरों के ऊपर होने वाले प्रहार, छात्र-नौजवानों के ऊपर होने वाले प्रहार, महिलाओं और दलितों के ऊपर होने वाले प्रहार तथा अल्पसंख्यकों के ऊपर होने वाले प्रहार इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं लेकिन कोपभाजन होने के बावजूद इनकी एकता और टकराहट बनी हुई है. आदिवासियों, छात्रों, नौजवानों, किसानों आदि जनता को इन सब लड़ाईयों की आवश्यकता इसलिए पड़ रही है क्याेंकि पार्लियामेंट में इनकी समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है.

जो जनवादी और क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी यह सोच रहे हैं कि इन सब लड़ाईयों अथवा एकता और टकराहटों के बावजूद भी समस्याओं के समाधान की दिशा में ठोस रूप में कोई नतीजा नहीं दिखाई दे रहा है, उन्हें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि निरन्तर छोटी-छोटी लड़ाईयां ही बडे़ पैमाने के निर्णायक संघर्ष और टकराहट में तब्दील हो जाते हैं, जो चरित्र में परिमाणात्मक होते हैं, वह निश्चय ही आगे बढ़कर गुणात्मक बदलाव का कारण बनते हैं, यानि जन-विरोधी
व्यवस्था के बदलाव को सम्भव बनाते हैं. देश की जनता को अपनी जनवादी व वर्गीय एकता को बनाए रखने की जरूरत है और जनवादी संघर्षों को जारी रखने की जरूरत है.

  • ‘जनतरंग’ पत्रिका का सम्पादकीय आलेख

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ROHIT SHARMA

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