Home गेस्ट ब्लॉग अभिशप्त राज्य के शिक्षा मंत्री और उनके अभिशप्त एकलव्य

अभिशप्त राज्य के शिक्षा मंत्री और उनके अभिशप्त एकलव्य

7 second read
0
0
199
अभिशप्त राज्य के शिक्षा मंत्री और उनके अभिशप्त एकलव्य
अभिशप्त राज्य के शिक्षा मंत्री और उनके अभिशप्त एकलव्य
हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

वे उस अभिशप्त राज्य के शिक्षा मंत्री हैं जिसकी स्कूली शिक्षा बर्बाद हो चुकी है और जिसके अधिकतर विश्वविद्यालयों की डिग्रियों को देश के अन्य राज्यों में संदेह की दृष्टि से देखा जाता है. हालांकि, उन्हें शिक्षा मंत्री बने छह-सात महीने ही बीते हैं लेकिन वे अपने विभागीय निर्णयों से इतर अपने बयानों के लिए खासे चर्चा में हैं. राज्य में ही नहीं, देश भर में.

किसी यूनिवर्सिटी के समारोह में उन्होंने राम चरित मानस पर अपने उदगार व्यक्त किये जिसने विवाद का रूप लेकर इतना तूल पकड़ा कि विद्वतजनों की तो बात ही छोड़िए, ऐसे लोगों ने भी पक्ष-विपक्ष में जम कर कागज काले किये जिन्होंने अपने जीवन में उस ग्रंथ के कवर मात्र को देखा भर ही होगा. बहरहाल, मानस विवाद में उन्हें अच्छी चर्चा मिली और जैसा कि माना गया, उनकी पार्टी के वोट बैंक में उन्हें एक अच्छी पहचान भी मिली.

खुद को मिली देशव्यापी चर्चा से वे खासे उत्साहित हुए और अपनी पार्टी से मिले समर्थन से उनका मनोबल भी बढ़ा. हालांकि, उन्होंने नया कुछ नहीं कहा था. जो कहा, वह पहले से बहुत सारे लोग कहते आ रहे हैं और जाहिर है, आगे भी कहते रहेंगे.

वर्तमान की वास्तविक चुनौतियों से मुंह फेर कर अतीत की जुगाली और उस पर बेवजह का विवाद खड़ा करना अक्सर अकर्मण्यों का शगल होता है. भाजपा के नेता गण इसमें माहिर हैं. इसके राजनीतिक लाभ भी हैं तो, अन्य पार्टियां अकर्मण्य जुगालियों में पीछे क्यों रहें ! अपनी-अपनी राजनीति है, अपने-अपने वोट बैंक हैं, जिनकी भावनाओं को सहलाना, भड़काना राजनेताओं के लिये शॉर्टकट वाला रास्ता होता है.

अपने वक्तव्य को मिली देशव्यापी चर्चा और उससे उत्पन्न बौद्धिक-अबौद्धिक विवादों से बेहद उत्साहित बिहार के माननीय शिक्षा मंत्री ने अभी बीते कल फरमाया कि वे ‘एकलव्य के पुत्र हैं, अंगूठा देते नहीं, लेते हैं.’ और कि ‘अभी दो शब्द कहा है और आने वाले दिनों में अभी और बातें कहूंगा.’ यानी, वे आने वाले दिनों में भी ऐसी बातें करेंगे जो कुछ लोगों की छातियों पर मूंग दलेगी और कुछ की छातियों को ठंडक देगी.

राजनीतिज्ञों को यह सब भी करना ही होता है. किसी की छाती पर मूंग दलो, किसी की छाती को ठंडक पहुंचाओ. लेकिन, अगर वे जिम्मेदार पदों पर हैं तो उन्हें काम भी करना होता है क्योंकि, यह काम ही है जो उनके समर्थकों और मतदाताओं के जीवन में सार्थक बदलाव ला सकता है.

उन्होंने एकलव्य की चर्चा की. यह कहते हुए कि वे एकलव्य के पुत्र है और कि अब वे अंगूठा देंगे नहीं, बल्कि लेंगे. सुना है, निर्धन वनवासी एकलव्य ने खुद में ऐसी हुनर विकसित की थी कि बड़े लोगों के बच्चों के गुरु द्रोण डर गए. उन्हें लगा कि यह हुनरमंद बालक उनके अभिजात शिष्यों को पीछे छोड़ आगे निकल जाएगा, बाकी की कहानी तो मिथक बन ही चुकी है.

लेकिन, सवाल उठता है कि बिहार के माननीय शिक्षा मंत्री किन आधुनिक एकलव्यों की बात कर रहे हैं जो अब अंगूठा देंगे नहीं, बल्कि लेंगे. यहां अंगूठा हुनर का प्रतीक है. हुनर गुणवत्तापूर्ण शिक्षण-प्रशिक्षण से आता है, राजनीतिक बयानबाजियों से नहीं. बिहार की शिक्षा एकलव्यों के अंगूठों को भोथरा कर रही है. बतौर शिक्षा मंत्री उनका दायित्व है कि वे निर्धन बच्चों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था सुनिश्चित करें.

याद नहीं आ रहा कि अपने शिक्षा मंत्रित्व के इन सात महीनों में एकलव्यों की शिक्षा की बेहतरी के लिये उन्होंने कोई सार्थक पहल की हो. अभी कल परसों बिहार के लाखों बच्चों ने इंटर की परीक्षा दी है. मंत्री महोदय विज्ञान विषय के एक प्रतिष्ठित प्रोफेसर हैं और उन्हें यह अच्छी तरह पता होगा कि विज्ञान विषय के लाखों इंटर परीक्षार्थियों में 80 प्रतिशत से अधिक बच्चे बिना प्रयोगशाला का मुंह देखे बोर्ड परीक्षा में शामिल हुए होंगे. वे प्रायोगिक परीक्षाओं में भी सम्मिलित हुए होंगे और महज कागजी प्रक्रिया के तहत उन्हें उत्तीर्ण भी कर ही दिया जाएगा.

फिर, उनमें से जो बच्चे फीजिक्स, केमेस्ट्री, जूलॉजी, बॉटनी आदि विज्ञान विषयों में बिहार के विश्वविद्यालयों के स्नातक कोर्स में दाखिला लेंगे उनमें से भी तीन चौथाई से अधिक बच्चे बिना प्रयोगशाला का मुंह देखे विज्ञान स्नातक की डिग्री प्राप्त कर लेंगे.

कारण, बिहार के तीन चौथाई से अधिक इंटर स्कूलों और स्नातक कॉलेजों में प्रयोगशाला फंक्शन में है ही नहीं. न उनमें प्रयोगशाला सहायक नियुक्त हैं, न प्रायोगिक उपकरण उपलब्ध हैं. मतलब, कभी कभार झाड़ू देने के अलावा इन स्कूल-कॉलेजों की प्रयोगशालाओं में ताला ही लगा रहता है, जिन पर जमी धूल आधुनिक एकलव्यों के अंगूठों को भोथरा बना देने के व्यवस्थागत षड्यंत्र का सबूत पेश करती है.

बावजूद इसके कि बिहार सरकार अपने बजट का सबसे बड़ा हिस्सा शिक्षा पर ही खर्च करती है. यहां के स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय हर साल लाखों की संख्या में अकुशल मजदूर उगलते हैं जो देश के अन्य राज्यों और महानगरों में जा कर जिल्लत की ज़िंदगी जीने को अभिशप्त होते हैं. बिहार का शिक्षा मंत्री बनना एक अवसर हो सकता है अगर कोई ठान ले कि उसे आधुनिक एकलव्यों की ज़िंदगी संवारनी है, मजदूर उगलने वाले संस्थानों में ऐसी शिक्षा संस्कृति विकसित करनी है जिनसे बेहतरीन प्रोफेशनल, वैज्ञानिक और प्रशासक निकलें.

राजनीतिक बयानबाजियां किसी पार्टी, किसी नेता की राजनीतिक जरूरतें हो सकती हैं, होती ही हैं, लेकिन महज बयानवीर बन कर कोई मंत्री न अपने राज्य का भला कर सकता है न अपने समर्थक मतदाताओं का.

बिहार के हाई स्कूल शिक्षकों के मामले में इतने वीरान इतिहास के किस काल खंड में रहे यह शोध का विषय हो सकता है. न जाने कितने हाई स्कूल हैं जहां स्थायी नियुक्त शिक्षक महज एक, दो या तीन हैं जबकि नामांकित छात्रों की संख्या सैकड़ों में है. पटना की सड़कों पर भयानक शीत लहरी में धरना-प्रदर्शन करते प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षक अभ्यर्थियों के लिये मंत्री महोदय का यह बयान कोई खास उम्मीद लेकर नहीं आया कि वे ‘नफरत के इस माहौल में मोहब्बत बांटने आए हैं.’

सड़कों पर सोते-जागते, पुलिस की लाठियां खाते उन युवाओं को मोहब्बत की नहीं, नौकरी की जरूरत है. उन्हें नौकरी मिल जाएगी तो देर सबेर मोहब्बत भी मिल ही जाएगी. विभागीय मंत्री से उन्हें सन्तों वाला प्रवचन नहीं, प्रशासकों वाली निर्णयात्मक पहल चाहिये. जिस सरकार ने उन्हें पिछले वर्ष जुलाई में ही नियुक्ति प्रक्रिया शुरू कराने का लिखित भरोसा दिया था, वह इतने महीनों बाद भी नियमावली निर्माण में ही उलझी है.

बिहार के विश्वविद्यालयों की बात ही क्या की जाए, जहां अधिकतर मामलों में संगठित गिरोहों की तरह माफिया राज हावी है. हमने टीवी पर माननीय मंत्री महोदय को देखा जब एक विश्वविद्यालय की छात्राओं ने बाकायदा उनके पैर पकड़ कर वहां की लचर कार्य संस्कृति का रोना रोया. मंत्री जी विश्वविद्यालयों के स्वायत्त होने का हवाला देते खुद की और सरकार की लाचारी का रोना रोने के अलावा कुछ और नहीं कह सके.

पता नहीं, वे किन एकलव्यों की बात कर रहे हैं जो इस नए दौर में अंगूठा देंगे नहीं बल्कि लेंगे ! यहां तो अंगूठों को भोथरा बना देने के ही तमान इंतजामात हैं. जिनके अंगूठे लेने की बात वे कर रहे हैं वे अपनी दसों उंगलियों सहित बिहार के बाहर जा कर अच्छे संस्थानों में क्वालिटी शिक्षा ले कर राज करने की तैयारी कर रहे हैं. यहां न बात जाति की है न धर्म की. चाहे वे जिस भी जाति-धर्म के हों, जिनके पास पैसा है, ऊंचे ख्वाब हैं, जागरूकता है, वे बेहतर जगहों और संस्थानों में जा रहे हैं. जो कहीं नहीं जा सकते वे मंत्री महोदय के बयानों पर जिंदाबाद-मुर्दाबाद के तमाशे देख रहे हैं, खुद तमाशा बन जाने की प्रतीक्षा में.

आम चुनाव की घोषणा होने में महज साल भर बाकी हैं. जाहिर है, बयानों के दौर में और अधिक गर्माहट आएगी. एक से एक जहरीले, भड़काऊ बयानों की सिरीज सामने आएगी. अपनी पार्टी, अपने समर्थन आधार की मानसिकता को तुष्ट करने के लिये मंत्री जी भी मनमाने बयान देने को स्वतंत्र हैं, जैसा कि उन्होंने कहा है, वे इसमें पीछे भी नहीं रहेंगे.

लेकिन, जब तक वे शिक्षा मंत्री हैं, अगर वे आधुनिक एकलव्यों की सुधि ले सकें, उनके खिलाफ हो रहे व्यवस्थागत षड्यंत्रों से उन्हें उबारने में कुछ भी सार्थक पहल कर सकें तो इतिहास उन्हें याद रखेगा. नवउदारवादी तंत्र में जो भी निर्धन है, चाहे वह जिस भी जाति या क्षेत्र का हो, वह एकलव्य होने को ही विवश है.

बाकी, उन्हें जो बयानबाजी करनी है, महौल में जो गर्माहट लानी है, जितने विवाद खड़े करने हैं, यह सब वे करते रहें. उनकी राजनीति है, वे जानें लेकिन, अगर वे इस तथ्य को भी याद रख सकें कि वे उस प्रदेश के शिक्षा मंत्री हैं जिसकी शिक्षा व्यवस्था का मखौल पूरे देश में उड़ाया जाता है, तो बिहार के तमाम एकलव्य उनको दुआ देंगे.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…