‘शब्द (लफ्ज) दुनिया के किसी भी जादू से कम ताकतवर नहीं है.’ हैरी पॉटर सिरीज़ के सबसे ताकतवर जादूगर एल्बस डम्बलडोर जब यह कथन कहते हैं तब वह शब्दों के जादुई प्रभाव को ही व्याख्यित कर रहे होते हैं. शब्दों के इसी जादुई प्रभाव को बेहतरीन तरीकों से प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और बौद्ध विचारक स्वामी शशिकांत अपने प्रस्तुत आलेख में कर रहे हैं – संपादक
शब्दों के मकसद को जानना, समझना और फिर उसके निहितार्थ भाव को उजागर करना आवश्यक है. सबद अर्थात शब्द में बड़ी ताकत है क्योंकि यही संवाद का माध्यम है इसलिए नए शब्द सृजित करने होंगे तो चलन में जबरन चलाये गए कुछ शब्द ख़ारिज भी करने होंगे. शब्द कोष बनाने होंगे. उसके इस्तेमाल की आदत स्वयं में डालने होंगे. वैकल्पिक शब्द ढूंढ़ने पड़ेंगे और नए शब्द गढ़ने होंगे. बिसरा दिए गए हमारी पुरानी भाषा के शब्द उभारने होंगे. धर्म जनित सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था के बदलाव में संवाद में प्रयुक्त कतिपय शब्दों को भी बदल डालने होंगे ताकि आत्मभिमान, समाज्भिमान और मूलनिवासी का भान उभरे.
शब्दों के प्रवाह और प्रसार में हम सब की भागेदारी होती है क्योंकि हम भी इसके संवाहक होते हैं. शब्द और उसके भाव का प्रचार–प्रसार बोलने व लिखने से होता है. शब्दों से ही हारी हुई बाजी जीती जाती है. शब्दों के मार्फ़त ही सांस्कृतिक तौर पर पराजय का अहसास कराया जाता रहा है. अतः शब्दों के द्वारा ही गौरव भाव और पराभव के अंतर को भली-भांति समझा जा सकता है. शब्द का कहां और कैसे इस्तेमाल होना है, इसे बखूबी समझना होगा. अभिमान की बाजी पराभव का अहसास करने वाले शब्दों के इस्तेमाल करके कभी नहीं जीती जा सकती है. अभिमान की अभिव्यक्ति अभिमानी शब्दों से ही होते हैं.
हमने, सांस्कृतिक संक्रमण के दौर से स्वयं को गुजार रखा है. यह एक शुभ अर्थात बहुत ही अच्छा संकेत है कि हम स्वयं को मानसिक तौर पर बदलाव के लिए तैयार कर लिया है. ऐसा जरुरी है क्योंकि, हम शब्दों के द्वारा सांस्कृतिक पराभव के शिकार बनाये गए. इसलिए शब्द की शक्ति के द्वारा सांस्कृतिक संघर्ष में पुनः जीत जाना है. हम सांस्कृतिक युद्ध इसलिए कह रहे हैं कि हमारे सामजिक जीवन पर हिन्दूधर्म (गुलाम) आधारित संस्कृति का प्रभाव साफ़–साफ़ दिखता है, जिसके हम शिकार हुये. ऐसे में यशकारी व अपयशकारी शब्दों के उपयुक्त इस्तेमाल को जानना होगा, तभी शब्दों के रहस्यों को आसानी से समझा जा सकेगा. हथियार से बात न बनने पर छल का सहारा लेकर हमें परास्त करने के बाद से निरंतर शब्दों से मारा गया (मोटी-मोटी ग्रंथो को रचा गया). जिन शब्दों के द्वारा हमें और हमारे समाज को चिन्हित किया जाता है क्या वे सम्मानदायक शब्द हैं या अपमानबोधक ?
इसलिए श्रधेय प्रबुद्धजनों शब्द अर्थात सबद की शक्ति को अपनी ओर मोड़ने होंगे. इसके लिए हमें अपने प्राचीन भाषा और बोली में प्रयुक्त गौरवमय शब्दों को ढूंढ कर आज फिर से व्यापक तौर पर इस्तेमाल करने ही होंगे. लगे हाथ शब्दों के गठन और उसकी उत्पत्ति का भी खुलासा करने होंगे. आंख बंद कर पूर्ववत मान लेने की आदत अब पूरी तौर से छोड़ दें. देश की सभ्यता को वास्तविक स्वरूप में जानने और उस भाव में एक बार फिर से जीने के लिए सही व सच्चे शब्द का इस्तेमाल नितांत ही आवश्यक है. अन्यथा हम पर थोपे गए शब्दों का चलन बना ही रहेगा व उसके शिकार होते रहेंगे. और जाने–अनजाने हम भी आपस में एक दुसरे के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते रहेंगे जबकि जरुरत है थोपे गए शब्दों को उलट देने की और आपति जताने व विरोध करने का.
थोपे गए शब्दों को नकार दें. थोपे गए शब्दों के औचित्य को उपयुक्त शब्द के विकल्प के द्वारा चुनौती दे कर हटा दें. अपने शब्दों की सार्थकता को कायम करें. उन घिसे-पिटे शब्दों का गुलाम नहीं बने जिनसे हमारे व्यक्तित्व का घात होता हो. ऐसे शब्दों को मत दुहरायें (न बोल-चाल में और ना ही लेखन में या परस्पर या खुले संवाद में). ऐसे शब्दों का खंडन करें (हमने ऐसा कर के देखा है, शीघ्र ही असर होता है) जिनका इस्तेमाल गलत रूप से तुलना भाव में किया जाता है. जैसे रावणरूपी भ्रस्टाचार, दैत्य जैसा अति विशाल, दुष्ट, दानव तुल्य व्यवहार आदी.
यहां स्पष्ट कर देना जरुरी है कि रावण न भ्रष्टाचारी थे और न दैत्य दुष्ट या विशाल होते थे. वे इसी देश के सहज, सभ्य मूल निवासी इंसान थे जो हमारे पूर्वज रहें हैं जिनके चरित्र आदर्श थे. इन दोनों को आधार में रखकर भ्रष्टाचार, विशालता और दुष्टता का भाव प्रकट संवादों में किया जाता है जबकि रावण दक्षिण के एक मूलनिवासी सदाचारी राजा थे, अन्यथा अपहरण के बावजूद सीता वापस अपने पति राम के पास अक्षत नहीं लौट पाती जैसा कि बराहमनी ग्रंथों में कहा जाता है.
दैत्य, दानव भारत के मूलनिवासी का एक समूह रहा है जो दानी प्रवृति के लिए जाने और माने जाते थे. इसी वंश में प्रतापी, न्यायी, दानी राजा बलि पैदा हुए जो प्रहलाद के पौत्र थे. इसी वंश में बानासुर पैदा हुए जिन्होंने वामन बने विष्णु की दुष्टता का अंत किया. इस वंश का महानायक भगवान कृष्ण के खानदान से रिश्ते थे लेकिन इन दोनों ही के लिए शब्दों का विकृत इस्तेमाल जान-बुझ कर भेदभाव के नस्लीय लेखन में देखने–सुनने को मिलता है. सबसे दुःखद तो यह है कि हम भी जाने–अनजाने ऐसे शब्द दोहराते, बोलते –लिखते हैं.
शब्दों को विकृत करने तक ही बात नहीं थमी बल्कि शब्दों का अपहरण भी किया गया. हमारे कई परंपरागत शब्दों का अपहरण कर लिया गया और एक नस्ल ने इन शब्दों को अपने पहचान में जोड़ लिया, जबकि ऐसे शब्द विशुद्ध तौर पर गुणवाचक हैं जो हमारे पूर्वजों के द्वारा गुण विशेषण को दर्शाने के लिए इस्तेमाल में लाये जाते थे. जैसे –पंडित, आचार्य, उपाध्याय, पाठक, नाथ आदि शब्द पाली के हैं जो गुणवाचक हैं लेकिन देश में बुद्धत्व का हिंसक तौर पर सफाया किये जाने के साथ ही नस्लवादियो ने ऐसे अनेकानेक शब्दों का हरण स्वयं के परिचय हेतु करने लगा. आज जरुरत है कि ऐसे शब्दों का धड़ल्ले से सुयोग्य पात्रों के लिए इस्तेमाल करें और कुपात्रों के लिए कतई ना करें. साथ ही इस सच को उजागर करें.
हम और हमारे समाज के लिए खुल कर ‘नीच’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है और जाति में खंडित–खंडित–विखंडित कर रखे गए मूलनिवासी समाज एक दुसरे के लिए इस शब्द का घृणा भाव से खूब प्रयोग करता है. ‘नीच’ शब्द से तो कोई अच्छा भाव प्रकट नहीं होता है और ना ही अभाव, गरीबी, साधनहीनता का बोध होता है. क्या यह विचारनिए नहीं है कि किसी देश की बहुसंख्यक आबादी भला ‘नीच’ कैसे ? क्या यह शब्द का गलत इस्तेमाल नहीं है ? क्या यह अपमानकारी नहीं है ? क्या यह अवमानकारी नहीं है ?
दरअसल ऐसे शब्द का इस्तेमाल घृणित कार्य, चारित्रिक पतन, दुष्कर्म जैसे घोर अपराध करने वाले के लिए सटीक तौर पर व्यक्त करने के लिए होता है. जैसे बलात्कारी, दुष्कर्मी के लिए यह शब्द उपयुक्त है तो फिर यह शब्द हमारे लिए क्यों ? क्या हम बलात्कारी, दुष्कर्मी, लुच्चा–लफंगा, बेईमान, चोर, गुंडा, मवाली, हत्यारा, राष्ट्रद्रोही, फसादी, जघन्य अपराधी हैं ? नहीं, कतई नहीं.
हम चरित्रवान लोग हैं. चरित्र ही हमारी विरासत है. ज्ञान, चरित्र (शील), अनुशासन (समाधि ) हमारी थाती है. हम इन्साफ पसंद हैं. हमारे ही पूर्वज इन चारित्रिक विशेषताओं के जनक हैं जिन्होंने आचरण की सभ्यता हमें विरासत में दी. हम वचन के धनी हैं. हम बेईमान लोग नहीं हैं और ना ही व्यभिचारी तो फिर इतना घटिया अपमानकारी शब्द का इस्तेमाल देश के मुलनिवासियों के लिए करने का क्या मकसद है ?
सबसे दु:खद तो यह है कि हम भी ऐसे शब्दों के संवाहक बने हुए हैं. स्वयं का परिचय ‘नीच/लोअर’ के रूप में देने का औचित्य क्या है ? यही सांस्कृतिक हमला है, जिसके हम गंभीर रूप से शिकार हो गए. यह हमारी कितनी बड़ी त्रासदी है कि ‘अपर’ या ‘उंची’ शब्द का इस्तेमाल ऐसे समूह के लिए किया जाता जो इस देश में बुद्धत्व को खत्म करने का घोर अपराधी है, जो हमें हमारे ही भूमि पर आभावग्रस्त बनाकर अमानवीय दशा में जीने को विवश कर ‘नीच’ कहने का गुनाहगार है.
जो एतिहासिक रूप से नरमेध और मौजूदा दौर में कई नरसंहार का दोषी है, जो देश की सभ्यता–संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने का अपराधी है, जो देश में ज्ञान के बजाय अंधविश्वास फ़ैलाने का घोर पाप किया है, जो स्वभाव से उत्पीड़न, जुल्म, अत्याचार, लूट का अपराधी है जिसने देश के करोडों–करोड़ लोगों को दासता के जीवन में धर्म की बेड़ियों से जकड रखने का अपराध किया है, ऐसे मानवद्रोही समूह के लिए ‘प्रशंसा’ वाले शब्दों के इस्तेमाल की क्या सार्थकता है ?
मेरी गुजारिश है मीडिया और कलमकारों से कि शब्दों का यथास्थान वाजिब प्रयोग करें अन्यथा ‘हरिजन’ जैसे शब्द पर आपति उठी और अवैध घोषित कर दिया गया. ‘हरिजन’ शब्द का यथास्थान इस्तेमाल नहीं होने का ही नतीजा है कि गांधीजी जैसे महान नेता द्वारा देश में अधिकारविहीन शूद्र वर्ण में अछूत बनाकर रखे गए तबके के लिए यह शब्द इस्तेमाल किया गया, जो गाली समान प्रमाणित हुआ.
भीम बाबा जैसे महान मानवतावादी नेता ने भारी आपति जताई और अंतः सरकार को यह शब्द अवैध घोषित करना पड़ा. मीडिया भी इससे वाकिफ हो गई. उसने तत्परता से अपने स्वर के शब्द बदल लिए. ‘हरिजन’ शब्द का इस्तेमाल बराहमन को चिन्हित करने के लिए होता तो कहीं ज्यादा सटीक होता क्योंकि यह समूह विष्णु का वंशज कह अपने को देव बताता है, विष्णु का एक नाम ‘हरी’ है !
अंत में, कहने का तात्पर्य है कि शब्दों का यथास्थान इस्तेमाल नहीं होने पर अर्थ का अनर्थ हो जाता. समूह विशेष को दर्शाने के लिए ‘नीच/उंच’ शब्दों का इस्तेमाल वाजिब नहीं है. हकमारी के शिकार, सताए गए लोगों को नीच और सताने वाले को उंच कहना कहां की विद्वता है ! क्या यह याद रखने वाली बात नहीं है कि ऐसे शब्द जो अपमानकारी, भेदकारी, मानव विरोधी होते हैं, वे संविधानसम्मत भी नहीं होते.
प्रबुद्ध भारत की सत्ता पुनः स्थापित हो !
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