23 मार्च, भारत के क्रांतिकारी इतिहास का एक अमर दिन, एक अमिट दिन. एक ऐसा अविस्मरणीय दिन जिसने भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में एक ऐसा अध्याय लिख दिया, जिसकी बदौलत अंग्रेजों को भारत से जाना पड़ा. नित्य स्मरणीय भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू की शहादत ने हर जिन्दादिल इंसान की रगों में रक्त का प्रवाह तेज कर दिया था. हालांकि जिस स्वतंत्रता के सपने के साथ भगत सिंह एवं उनके साथियों ने शहादत दी, आज तक उसकी लड़ाई जारी है. फांसी के फंदे पर लटकाये जाने के कुछ दिन पूर्व ही भगत सिंह ने कहा था, ‘‘अंग्रेजों की जड़ें हिल चुकी है. ये 15-20 सालों में चले जायेंगे. समझौता हो जायेगा पर इससे जनता को कोई लाभ नहीं होगा. काफी साल अफरा-तफरी में बीतेंगे, इसके बाद लोगों को मेरी याद आयेगी’’. उनका अनुमान सही निकला और उनकी शहादत के लगभग 16 साल बाद 1947 ई. में एक समझौता हो गया. इस समझौते के तहत् अंग्रेजों ने भारत छोड़ दिया और हिन्दुस्तान के सत्ता की बागडोर ‘‘गोरे हाथों से भूरे हाथों में’’ आ गई. अंग्रेजों की बनाई शासन-व्यवस्था को ज्यों का त्यों रहने दिया गया. इसमें कोई आमूल परिवर्तन नहीं हुआ. अंग्रेजों के द्वारा बनाये गये होमरूल, 1935 एक्ट को ही संविधान का अमलीजामा पहना दिया गया.
1947 ई. के सत्ता-हस्तांतरण के बाद जनता के व्यापक हिस्से को लगा था कि देश में उनकी बदहाली रूकेगी और समृद्धि व खुशहाली का एक नया दौर आरम्भ होगा लेकिन कुछ साल के अंदर ही यह अहसास हो गया कि जो दिल्ली की गद्दी पर बैठे हैं, वे उनके प्रतिनिधि नहीं हैं. उन्होंने देश व जनता के विकास की जो आर्थिक नीतियां अपनाई और उनका जो नतीजा सामने आया, उससे स्पष्ट हो गया कि अल्प सत्ताधारी वर्ग बड़ें जमींदारों व बड़ें पूंजीपतियों के साथ-साथ साम्राज्यवाद के हितैषी हैं. उनका मुख्य उद्देश्य मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई को लूटना और शोषक-शासक वर्ग को मालामाल करना है. भगत सिंह इस घोर पूंजीवादी प्रक्रिया को समझते थे. तभी उन्होंने कहा था – ‘‘यदि लार्ड रीडिंग की जगह पुरूषोत्तम दास और लार्ड इरविन की जगह तेज बहादुनर सप्रु आ जायें तो इससे जनता को कोई फर्क नहीं पड़ेगा और उनका शोषण-दमन जारी रहेगा’’. 1947 में 248 विदेशी कंपनियां हमारे देश में कार्यरत थी, जिनकी संख्या आज बढ़कर करीब 30,000 (तीस हजार) हो गई है.
आज जब हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जहां साम्राज्यवाद-पूंजीवाद-सामंतवाद का गठजोड़ गलबहियां कर रहा है, प्रक्रिया की शक्तियों पर प्रतिक्रिया की शक्तियां हावी है, प्रतिरोध की शक्तियों बिखरी नजर आ रही है. शिक्षित जनमानस में जड़ता अपनी गहरी पैठ जमाए हुए है, लोगों में क्रांतिकारी स्पिरिट कम होता जा रहा है, शहीदों के विचार और सपनों को दरकिनार करके उनके बलिदान दिवस का उत्साहधर्मी, खोखला और पाखंडी आयोजन करने की होड़ लगी है. जाति और धर्म के तंग दायरे से ऊपर उठकर देश और समाज में समानता स्थापित करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करनेवाले शहीदों को जाति और धर्म की सीमाओं में बंद करने की साजिश हो रही है. ऐसे वक्त में क्रांति की स्पिरिट को जिंदा रखने के लिए और हर जिन्दादिल इंसान के खून में इंकलाब की धार को प्रवाहित करने के लिए भगत सिंह के विचारों को मेहनतकश वर्ग तक ले जाना समय की मांग है.
आज के इस अधोषित आपातकाल के दौर में लूट, छूट, भोग और शोषण पर टिकी सत्ता आम जनता के हर तबके – मजदूरों से लेकर किसानों, छात्रों-युवाओं, लेखकों बुद्धिजीवियों, कवियों, सांस्कृतिक-कर्मियों, शिक्षाविदों, पत्रकारों, मानवाधिकारवादियों, सामाजिक कार्यकत्र्ताओं, दलितों, अल्पसंख्यकों पर सुनियोजित और संस्थाबद्ध हमले कर रही है. घोर प्रतिक्रियावादि ब्राह्मणवादी फासीवादी मोदी सरकार के केन्द्र की सत्ता में आते ही सरकार द्वारा साम्राज्यवादियों-पूंजीपतियों की जी-हुजूरी व आम जन के अधिकारों पर हमले में अचानक तेजी आई है. उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की जो प्रक्रिया चल रही है, उससे आम जन बेहाल है. देश में गजब का लोकतंत्र चल रहा है. आलोचना करिये तो पुलिस केस, सवाल करिये तो सीबीआई रेड, विरोध करिये तो गोली मारी जा रही है.
सच्चे जनवाद की स्थापना के लिए रत् लोगों की उपस्थिति मात्र से ही सरकार के कान खड़े हो जाते हैं और वैसे लोगों को लोकतंत्र विरोधी, देशद्रोही साबित करने में वह ऐड़ी-चोटी का पसीना एक कर देती है. भेदभावपूर्ण न्यायिक व्यवस्था अमीरों और सुविधासम्पन्न वर्गों को साक्ष्य रहने के वाबजूद साफ बरी कर दे रही है जबकि गरीबों, दलितों, वंचितों को साक्ष्य न रहने के बाद भी फांसी की सजा सुनिश्चित कर रही है. स्थिति यह है कि मजूदर अपने मौलिक अधिकार की मांग करें तो लाठी-गोली खाए, अन्नदाता किसान न्यूनतम समथ्रन मूल्य राहत, बीमा, कर्जमाफी, कृषि-संकट आदि अपने जीवन संबंधी मांगों पर गुहार लगाये तो गोली खाये. शिक्षण संस्थानों में छात्र अपने जनवादी अधिकारेां की मांग करें तो अनैतिक व्यवहार का सामना करे. जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ रहे, विस्थापन का दंश झेल रहे, गरीबों की अंतहीन सीमा पर खड़ेकं पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों के लिए नई आर्थिक नीतियां उन्हें खत्म करने का पैगाम साबित हो रही है.
ऐसे चुनौतिपूर्ण समय में जनपक्षीय ताकतों के बीच राजनैतिक तालमेल बनाना और अन्य मुद्धों को लेकर मोर्चाबद्ध आन्दोलन विकसित करना फौरी तौर पर जरूरी है. शहीदे-आजम भगत सिंह ने ‘हमारा फर्ज’ नामक लेख के माध्यम से हमें चेताया है, जिसे अमल में लाकर ही हम सच्चे जनवाद की स्थापना कर सकते हैं.
– संजय श्याम
S. Chatterjee
March 23, 2018 at 4:25 pm
उम्दा लेख। भगत सिंह की प्रासंगिकता मूलत: वामपंथी विचारधारा की प्रासंगिकता है जो शोषितों द्वारा शोषितों के बढ़ते दमन चक्र के साथ और भी प्रखर होता जाएगा।
लाल सलाम