मनीष सिंह
पुराने ज़माने में बल्ख और बुखारा दो बहुत ही खूबसूरत शहर होते थे. तब का लन्दन-न्यूयार्क समझिये. उधर लाहौर के अनारकली बाज़ार में छज्जू भगत का चौबारा था. यहां लोगों की गप्प गोष्ठी जुडती, हंसी ठट्ठा होता, दूध और लस्सी बहा करती।
इनमें एक थे सूरजमल. डींग मारी की हम घूमने जा रहे हैं बल्ख और बुखारे. उस जमाने में 3-4 महीने तो लगते ही, मगर सूरज बाबू 8 वें दिन में लौट आये. कारण पूछा तो उन्होंने कहा- दिल नहीं लगा भाइयों. बोले- ‘वो बल्ख ना बुखारे – जो बात छज्जू के चौबारे’
बहरहाल बल्ख, बुखारा, समरकंद आज भी दुनिया के खूबसूरत शहरों में एक है. वहां जाने के लिए आपको रेडक्लिफ लाइन पार करनी होगी. पाकिस्तान आएगा, पार करना है. पहाड़ आ जाएंगे.
खैबर पास से उसे पार कीजिए, सामने अफगानिस्तान गिरेगा. इसे पार कीजिए, आमू दरिया आएगा. पार किया तो आप तुर्कमेनिस्तान पहुंच गए.
अब ये देश भी पार पार कर लेंगे, तो आयेगा- उज्बेकिस्तान. यही तो है- बाबर का घर.
बाबर अरब नहीं था, और न ही वो रेतीले रेगिस्तान से आया था. वो आया था सेंट्रल एशिया के उज्बेकिस्तान से. शायद वहीं कहीं आसपास से कुछ हजार साल पहले आर्य भी आये थे.
सूखे ठंडे ब्रह्मवर्त से उतरकर, कल कल बहती नदियों के देश- आर्यावर्त में…, खैर ! तो उज्बेकिस्तान में फगराना नामक रियासत थी, और अंदिजान उसकी राजधानी. बाबर का बाप वहीं का शासक था.
मध्य एशिया में समरकंद, बल्ख, बुखारा दरअसल चीनी सिल्क रुट के पड़ाव थे. राजा कोई भी हो, व्यापार मार्ग को सेफ रखता, इससे चुंगी मिलती. दौर के अम्बानी अडानी इन शहरों में रहते थे इसलिए ये शहर अमीर, और अमीर होते गए.
लेकिन बाकी का उज्बेकिस्तान तो पांच किलो आटा और दो जीबी डाटा का मोहताज था. तो बाबर ने समरकंद पर दो बार कब्जा किया. वो बेहद बहादुर था, मगर स्माल फ्राई था. टिक न सका.
फिर उसे आर्यावर्त से बुलावा आया. राणाजी ने सोचा था कि आएगा, लूटेगा, चला जायेगा मगर बाबर तो यहां टिक गया.
बाबर की धरती, याने उज्बेकिस्तान की राजधानी से हम सबका पुराना नाता है मितरों…
और एक बुरी याद भी क्योंकि राजधानी है ताशकंद. यही हमारे 56 के सीने वाले प्रधानमंत्री, पाकिस्तान के सीने पर मूंग दलने के बाद शांति वार्ता करने गए थे. यहां उन्होंने जीते हुए लाहौर और हाजी पीर लौटाया, बदले में हारा हुआ कश्मीर वापस लाये.
बुरी याद यह कि जिस वक्त वे ताशकंद में समझौते के लिए जा रहे थे, बेटी को फोन किया. बेटी ने बताया कि दिल्ली प्रधानमंत्री आवास के बाहर संघी काले झंडे लेकर उन्हें गालियां दी रहे हैं, गद्दार कह रहे हैं.
दो हार्ट अटैक झेल चुका वृद्ध, रुका नहीं. गया, अपना कर्तव्य किया, समझौता हुआ लेकिन शास्त्री, ताशकंद में ही सदा के लिए ठहर गए. कृतघ्नों की इस धरती पर वो कभी न लौटे. हां, उनका शरीर जरूर आया.
बल्ख, बुखारे, समरकंद में बेहद खूबसूरत इमारते हैं. दसवीं, बारहवीं, चौदहवीं सदी की. इन मस्जिदों का आर्किटेक्चर अविश्वसनीय है. उस दौर में विशाल, गोल डोम बनाने की तकनीक, शायद उन्होंने पर्शियन आर्किटेक्चर से पाई हो. उन्होंने शायद रोमनों से…
मगर भारत आने के बाद, बाबर की संतानों ने ईरानी स्थापत्य में राजपूती शैली की छौंक लगाकर एक नया ही स्थापत्य क्रिएट किया. आप उसे मुगल शैली कहते हैं.
हालांकि, बाबरवंशी खुद को चगताई कहते थे. मुगल, असभ्य मंगोलों शब्द से जोड़कर दी गयी गाली की तरह था, जो चिपक गया, स्वीकार कर लिया गया, ठीक वैसे ही जैसे हिन्दू शब्द सिंधु पार के असभ्य लोगों को दिया गया नाम था.
चिपक गया, स्वीकारा गया. गर्व बन गया इसलिए बुद्धिमान लोग खुद को अब सनातनी कहते हैं. वह भी बौद्ध त्रिपिटक का शब्द है. मगर जाने दीजिए.
ऑफकोर्स, सबके अपने अपने कल्चर है. हर दौर में हर कोई अपने कल्चर, अपने देश को सभ्य कहता है. दूसरों को जमुनापार का असभ्य कहता है.
यही तो राजनीति है. हर राजा चाहता है कि उसके लोग खुद को उच्च, सीमा पार वालों को असभ्य माने. फिर उसकी सेना में शामिल होकर सभ्यता फैलाने को मरें कटे ताकि उसका राज बढ़े.
ईरानी, मुगल, अंग्रेज, संघी सबका यही फलसफा रहा. मगर आजादी के बाद के एक दौर में हमने सबको बराबर माना. सबको बराबर इज्जत दी. मैं उसी पीढ़ी का चश्मोंचिराग हूं.
जो ग्लोबल सिटीजन है, दुनिया देखी है, हिंदुस्तान भी. जानता है कि हम किसी से कम नहीं. मगर दुनिया में एक से बढ़कर एक देश हैं, शहर हैं, कल्चर हैं. कम तो कोई किसी से नहीं है.
आत्मविश्वास, घमण्ड बन जाये तो विभाजन का सबब बन जाता है. मुफ्तिया गर्व की पहली शायरी- ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा’ लिखने वाले शायर ने ही एक दिन पाकिस्तान का आइडिया दिया था.
गर्व की बकैती, जब अनारकली बाजार या छज्जू के चौबारे से उठकर, देश में कवियों की कविता और नेताओं का भाषण बन जाये, तो इकबाल का ये शेर पढ़ना चाहिए –
वतन की फिक्र कर नादां
तेरी बर्बादी के मशवरे है आसमानों में
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