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लोकतंत्र में सर्वहारा मुद्दे

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लोकतंत्र में सर्वहारा मुद्दे
सर्वहारा के दो महान शिक्षक एक साथ – स्टालिन और माओ त्से-तुंग

संसदवादी वामधारा का औचित्य विश्व पटल पर द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ही खत्म हो गया. इस हिसाब से देखा जाए तो दुनिया भर में संसदवादी वामपंथ को अपना अन्वेषण-सर्वेक्षण की प्रक्रिया को ऐतिहासिक भूल चूक के संदर्भ में देखना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जिसका नतीजा ये है कि दुनिया के देशों में संसदवादी वामधारा के पास असीमित जनशक्ति के बावजूद भी वह समाजवादी कार्यक्रम को धरातल पर लागू करने में असफल रहती रही है.

भारत के संदर्भ में संसदवादी वामपंथ अब महज क्रांतिकारी संघर्षों के बीच समझौता करने वाले चौधरी बनकर ही काम चला रहे हैं और इसी को वह बोल्शेविक समाजवादी पार्टी के कार्यक्रम भी बताते हैं. पूंजीवाद के आरामखोहों में बैठी भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टियों का चरित्र अब सर्वहारा मुक्ति आंदोलन को बर्बाद करने के लिए हो चुका है. उनकी समझ में जनव्यापी मुद्दे और सर्वहारा मुद्दे एक ही हैं, जबकि दोनों ही मुद्दे राजनीतिक तौर पर एक दूसरे के शत्रु नहीं भी हैं तो एक दूसरे के पर्याय भी नहीं हैं.

जनव्यापी मुद्दे वो मुद्दे होते हैं जिन्हें लोकतंत्र में सुलझाने की शक्ति तो होती है लेकिन वह अपने राजनीतिक हितों को चर्चाओं में रखने के लिए अपने ही हितों के मुद्दों को थोड़ा-थोड़ा करके पूरा करती है. जैसे सभी राजकीय विभागों में कर्मचारियों की कमी बनाए रखना‌. शिक्षा के बगैर सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, ऐसा लोकतांत्रिक व्यवस्था कहती है लेकिन वह स्कूलों में सुविधाओं व अध्यापकों का अभाव बनाकर रखती है ताकि नागरिक जीवन इन समस्याओं को बड़ी समस्या मानकर हमेशा उलझे रहें और जनांदोलनों के तीव्रतम समय पर आश्वासनों की कीमत पर थोड़ा बहुत सरकारी भर्तियों की इजाजत देते रहे.

चूंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था इस बात से आश्वस्त है कि उसकी शिक्षा प्रणाली या राजकीय प्रणाली उसके विरुद्ध नहीं है इसलिए उसके खेवनहार नेता उन्हीं मुद्दों पर जोर दे रहे होते हैं जिन्हें यह व्यवस्था पूरा कर सकती है. लेकिन संसदवादी वामपंथ का काम यह नहीं था कि वह नौकरी, शिक्षा के अधिकार व सहुलियतों के पीछे ही उलझे रहें बल्कि संसदवादी वामपंथ का कार्यभार ये था कि वह शिक्षा को अधिकाधिक उन्नत व वैज्ञानिक बनाने पर जोर दे, और अंधाधुंध मशीनीकरण से उपजे रोजगार के संकट के लिए वैकल्पिक रास्ते सुझाए और उनकी तामील के लिए संसदीय सदन संचालन को पूरी तरह अपने मुद्दों की तरफ झुकाए लेकिन ऐसा कभी भारतीय टटपूंजिए वामपंथी पार्टियां नहीं कर सकी, इसके विपरीत भारतीय सामाजिक संरचना को समझे बगैर वह भी आंतरिक गुटबंदियों की शिकार होती चली गई.

जनव्यापी मुद्दों को व्यवस्था पूरी तरह हल नहीं कर सकती क्योंकि व्यवस्था जानती है अनर्गल मुद्दे नहीं होंगे तो नागरिक जीवन जो कि खोजी प्रवृत्ति का होता है, उसके वैभवशाली साम्राज्य पर सवाल उठा देगा. इसलिए विभिन्न जातिगत, धार्मिक, ऊंच नीचे अमीर गरीब वर्ग बनाकर, लोकतंत्र जीवित रहने की न केवल कवायद करते रहता है बल्कि प्रगतिशील राजनीतिक कार्यकर्ताओं को उद्धारकों की तरह पेश कर उन्हें इनामो-बख्शीश में फंसाकर अपना सहयोगी बनाए रखता है. जैसे इस समय सभी कम्युनिस्ट पार्टियों सीपीआई, सीपीआई एमएल, सीपीएम व उनके अनुषांगिक संगठनों का कामन नारा है – ‘लोकतंत्र बचाओ.’ तब ऐसे में सर्वहारा मुक्ति मुद्दों की सुध कौन लेगा ?.यह एक सवाल तो है लेकिन इसका जबाव इन संसदवादी वामपंथियों को जोड़कर हासिल नहीं किया जा सकता.

आज तमाम जनवादी पत्रकार व मानवाधिकार सामाजिक कार्यकर्ता जेलों में हैं या बाहर भी हैं तो सुरक्षित नहीं हैं. वो ऐसा क्या कर रहे हैं कि जो संसदवादी वामपंथी कामरेड नहीं कर रहे हैं. संसदवादी कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता बड़ी बड़ी रैलियां कर रहे हैं और सरकार पर जोरदार हमलावर भी रहते हैं, फिर भी वो आजाद पूर्वक देश प्रांतों में घूमते रहते हैं, उन्हें कोई पुलिस, कोई कोर्ट जेल का खतरा नहीं रहता है. इस विषय की खोजबीन करना और निष्कर्षों का मार्क्सवादी क्रांतिकारी इतिहास से मिलान करना इस समय क्रांतिकारी जमात के पहले कार्यभार हैं और यहीं से जनव्यापी मुद्दों का कैसे सर्वहारा मुक्ति मुद्दों में परिवर्तन हो पायेगा, इसकी ‘क्रांतिकारी राजनीति’ समझ में आयेगी.

  • ए. के. ब्राइट

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