शाम का ख़ाली कनस्तर पैर पटकता है
सड़क पर
एक ज़िद्दी बच्चा
मचल गया है
मेला देखने को
उसे नहीं मालूम ये मेला
जो कि बारह सालों बाद लगा है
और जहां जुटी है भीड़
परलोक सुधारने
सुरसा का खुला मुंह
खुश है स्वयंसेवकों की भीड़ देखकर
गाहे बगाहे
मुझे भी गुज़रना पड़ा है
उन तंबुओं के घेरों के बाहर से
अंदर से आती घुंघरुओं की आवाज़
अब भी गूंजती है कानों में
और रात के तीसरे पहर में घुलती
सिसकियां
गर्म से गर्म रात भी थोड़ी ठंढी पड़ जाती है
इस समय
और पृथ्वी का एक हिस्सा नम पड़ जाता है
ग्लानिबोध या वात्सल्य
आज तक तय नहीं हो पाया
अब आप ही बताएं
इतनी सारी बातें कैसे समझाऊं
उस ज़िद्दी बच्चे को
जो झूल जाता है मेरा हाथ पकड़ कर कभी
कभी मेरे कंधों पर बैठकर
कोशिश करता है दूर तक देखने की
कभी सो जाता है मेरे सीने से लगकर
उस समय वह पटकता है अपने पांव
मेरे पेट पर
ठीक उसी तरह जैसे वो पांव पटकता था
अपनी मां के गर्भ में
वो बाहर आने की छटपटाहट थी
ये अंदर समाने की बेचैनी है
इसी बीच
रात आ जाती है उड़कर
किसी बेनाम ख़त सा मेरे घर पर
और पढ़ने लगता हूं उसे
ख़ाली कनस्तर शांत हो जाता है
अगली शाम तक !
- सुब्रतो चटर्जी
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