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लोकतंत्र, न्यायिक व्यवस्था और हम

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लोकतंत्र, न्यायिक व्यवस्था और हम
26 नवंबर, 1949 को संविधान को देश ने ‘अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मर्पित’ किया था। भारतीय संविधान का पहला शब्द है ‘हम’. धर्म, जाति, रंग, भाषा, समुदाय, लिंग, आयु किसी भी भेद से रहित है यह हम यह सर्वाधिक मूल्यवान शब्द जिसमें मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखा जा सकता है. इस हम से शुरू होने वाला भारत क्या एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बना? क्या हम सबको समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त हुआ है ? क्या हमने सचमुच समान रूप से विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्राप्त की है ? प्रतिष्ठा और अवसर की समता क्या सबको मिल गई है ? वास्तविकता यह है कि भेदभाव रहित समाज बनाने वाले इस लोकतंत्र के शासकों ने समाजिक भेद-भाव बढ़ाने के ही भर-पूर प्रयास किये हैं.

तथाकथित आजाद भारत मेें जिस सामाजिक-राजनीतिक न्याय की बात कही गई है, उसे दिलाने वाली प्रमुख संस्था न्यायपालिका है. सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने निष्पक्ष न्यायपालिका पर 12 जनवरी 2018 को प्रेस कांफ्रेस में प्रश्न खड़े किये. इनका इस तरह से मजबूरी में जनता के साथ संवाद करना, इनके साथी जज लोया की रहस्यमय हत्या हो जाना न्यायायिक व्यवस्था के न्याय को खुद कटघरे में खड़ा कर देता है. कुछ साल पहले खबरिया चैनलों के महाबहस के द्वारा देश का पूरा ध्यान चर्चित सिनेस्टार सलमान खान की सजा और जमानत पर टिका हुआ था. उसी समय कुछेक अखबारों और चैनलों के जरिये दिल्ली के मोहम्मद आमिर, केरल के यहया काम्मुकुट्टी, गुजरात के मोहम्मद अब्दुल कयुम अंसारी की कहानी भी सामने आयी थी. एक विचाराधीन कैदी के रूप में आमिर पूरे 14 साल दिल्ली के तिहाड़ जेल में रहे। उन्हें आतंकवादी साबित करने के लिए दिल्ली पुलिस पूरे 14 साल सबूत इकट्ठा करती रही पर अदालत में कुछ पेश नहीं कर पायी. तब जाकर आमिर की रिहाई संभव हो पायी। वह भी तब दिल्ली में सक्रिय कुछ मानवाधिकार संगठनों, स्वयंसेवी संस्थाओं और मानववादी वकीलों ने उनके मामले में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई इस बीच उनके पिता की मौत हो गयी, मां को लकवा मार गया.

कर्नाटक के विप्रो के युवा इंजीनियर और केरल निवासी याहया काम्मुकुट्टी को पूरे 7 साल जेल में रखने के बाद हमारी व्यवस्था ने पाया कि वे निर्दोष हैं. गुजरात के मुफ्ती मंसूरी भी पूरे 11 साल जेल में रहने के बाद निर्दोष साबित होकर जेल से बाहर आये. यह स्थिति देश के लगभग हर सूबे की है जहां विभिन्न समुदायों के दर्जनों पीड़ित हैं जो कई-कई बरस जेल में रहे और अंततः बेगुनाह साबित हुए. ऐसे लोगों की संख्या लाखों में है जो आज भी विचाराधीन कैदी के रूप में जेल की यातनामय जिंदगी बिता रहे हैं. इनमें विभिन्न धार्मिक जातीय समूहों के गरीब हैं, दलित आदिवासी हैं, अल्संख्यक हैं.

ये कुछ उदाहरण मात्र हैं. जिसमें एक तरफ अरबपति सलमान खान की कहानी है जो हिट एंड रन से एक व्यक्ति की मौत और कई अन्य के जीवन भर के लिए अपंग हो जाने के जुर्म के बावजूद एक मिनट भी जेल में नहीं रहता. और दूसरी तरफ मजदूर, किसान, दलित, मेहनतकश आम जनता है जिसे किसी जुर्म के बगैर 14-14 सालों तक जेल की सलाखों में कष्टदायक जिंदगी जीने को मजबूर किया जाता है. 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला में ए राजा, कनिमोझी का रिहा होना, भोपाल गैस कांड में लाखों लोगों के साथ कई पीढ़ियों की जिंदगी बर्बाद करने वाले एंडरसन को पूरी सुरक्षा में विदेश जाने की अनुमति मिल जाना, हजारों करोड़ का घोटाला करने वाले विजय माल्या, हीरा व्यापारी नीरव मोदी, पेन बनाने वाली कंपनी कं. मालिक विक्रम कोठारी जैसे अपराधी हमारी व्यवस्था को मुंह चिढ़ाता नजर आता है. दूसरी तरफ दिल्ली विश्वविद्यालय का 90 प्रतिशत विकलांग प्रोफेसर साईं बाबा जनता के हित में आवाज बुलंद करने केे कारण नागपुर जेल के अंडासेल में अपनी अस्वस्थता के बीच सजा काट रहे हैंं.

हमारे लोकतंत्र में व्यवस्था के ऐसे फर्क सिर्फ एक-दो मामलों तक सीमित नहीं हैं, यह हमारी ‘लोकतांत्रिक दिनचर्या’ का हिस्सा है. हमारे विशाल गणतंत्र, जिस पर हमारे हुक्मरान फूले नहीं समाते, का जाना पहचाना सच है. ऐसे सैकड़ों मामले जिनमें सुविधा संपन्न, खाये-पीये-अघाये लोगों को न्यायालय से मिली मुंहमांगी राहत पर हम कोई सवाल खड़ा नहीं कर रहे हैं. हम तो सिर्फ देश की अदालतों में होने वाले हजारों आम फैसलों का इन फैसलों के साथ तुलना करना चाहते हैं. देश की जेलों में हजारों ऐसे कैदी यातनामय जिंदगी बिता रहे हैं जो उग्रवाद, आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार किये गए हैं और जटिल व खर्चीली न्यायिक प्रक्रिया के कारण जमानत तक नहीं हो पा रही हैं जबकि उग्रवाद, आतंकवाद से दूर-दूर तक उनका कोई संबंध नहीं हैं.

इन दिनों अपने अधिकार की मांग करने वाले उग्रवादी, नक्सलवादी, माओवादी एवं आत्मनिर्णय के लिए लड़ने वाले आतंकवादी की संज्ञा से परिभाषित हो रहे हैं तथा मानवाधिकार की बात करने वालों को हमारी सत्ता व्यवस्था की तरफ से फौरन उग्रवादियों, आतंकवादियों का मददगार कह दिया जा रहा है. ऐसे में अपने जनवादी अधिकारों के लिए लड़ रहे, जल-जंगल-जमीन, नदी-पहाड़, अस्मिता की रक्षा में शामिल हजारों निर्दोष आमिर, याहया, दामोदर, आनन्द, प्रशांत आदि आज भी जेलों मेें बंद हैं और न्यायतंत्र की मोटी फाइलों में अकारण दबे पड़े हैं.

गुजरात प्रांत में एक अमीर आदमी द्वारा दूघर्टना में मारे गये एक निर्धन अछूत के बच्चे के केस में अदालत ने अभियुक्त को यह कहते हुए बरी कर दिया कि जिसका बच्चा मरा वह बेहद गरीब है और वह इनकी परवरिश करने में असमर्थ है. ऐसे में बच्चे की मौत से इसे फायदा हुआ है.

कोलकता में बकरी चोरी के झूठे केस में रिहा हुए नवीन डोम द्वारा क्वीन नामक महीला पर किये गये मानहानी के केस को मजिस्ट्रेट ने यह कहते हुए खारिज किया कि वह निम्न जाति का आदमी है जिसकी कोई इज्जत नहीं होती. फिर मानहानि किस बात का.

राजस्थान में महिला सशक्तिकरण का अभियान चलानेवाली भंवरी देवी के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. केस चला. अदालत ने निर्णय दिया कि चूंकि भंवरी देवी अछूत जाति की है और आरोपित सवर्ण. किसी अछूत के साथ सवर्ण बलात्कार नहीं कर सकता और आरोपी बरी हो गये.

इधर, तीन दशक बाद भी 1984 के सिख नरसंहार करवाने वाले नेताओं को अभी तक सजा नहीं हुई, गुजरात नरसंहार के असली दोषी छूट्टे घूम रहे हैं, बाबरी मस्जिद विध्वंश करने वाले सत्ता के शीर्ष पर बैठकर न्यायतंत्र को चुनौती दे रहे हैं, वर्तमान सत्तासीन दल के प्रमुख को एक केस में बरी कर दिया गया और उन्हें कोर्ट में मात्र हाजिर होने का आदेश देने वाले जज की हत्या हो गयी, गोविन्द पनसारे, कलबुर्गी, दाभोलकर, गौरी लंकेश जैसे तर्कशील विद्वानों के हत्यारों को सजा तो दूर आज तक वे पकड़े भी नहीं गये. सैकड़ों प्रगतिशील, क्रांतिकारी धारा के संगठनों के कार्यकर्ताओं और नेताओं को न्यायिक प्रक्रिया में लाया भी नहीं जाता और उन्हें पकड़कर फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाता है.

अभिव्यक्ति की आजादी, संगठन बनाने की आजादी भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार में शामिल है पर सच्चाई है कि सौ से अधिक क्रांतिकारी जनवादी संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया गया है. हाल ही में झारखंड सरकार द्वारा मजदूर संगठन समिति नामक पंजीकृत संस्था को बिना कारण बताओ नोटिस जारी किये प्रतिबंधित करना चर्चा में है. इस पर भारी विरोध जारी है, कानून चुप है और सत्ताधारी वर्ग मजे ले रहा है.

पक्षपातपूर्ण न्यायिक व्यवस्था के मामले में बिहार की भी भूमिका शर्मनाक है जहां अन्य राज्यों की तरह ही वर्गभेद, नस्लभेद और वर्णभेद के आधार पर सजा मुकर्रर की जाती है. खासतौर पर यहां फांसी की सजा तो खास वर्ग के लिए सौ फीसदी आरक्षित हो चुका है. पिछले दशक के दौरान विभिन्न नरसंहारों के मामले में 150 दलित व पिछड़ों को फांसी की सजा सुनाई गयी जबकि वैसे ही दर्जनों नरसंहार जिसमें सैंकड़ों दलित, महिला, पुरूष व बच्चों की निर्मम हत्या की गयी, के सभी अभियुक्तों को पैसा, पैरवी और पहुंच के बल पर साफ बरी कर दिया गया. अदालत ने सरकार को निर्देश तक नहीं दिया कि इस नरसंहार की पुनः जांच कर दोषियों को गिरफ्तार किया जाए. इतना ही नहीं अदालत ने जांच एजेंसी द्वारा सबूत पेश नहीं करने पर इन एजेंसियों पर सजा तो दूर टिप्पणी तक करना मुनासिब नहीं समझा जबकि नरसंहार के अभियुक्तों ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दलितों की हत्या की जिम्मेवारी ली थी. पक्षपातपूर्ण अदालती फैसले का एक और नमूना हाल ही में सेनारी हत्या कांड (जहानाबाद) मामले में 10 गरीब किसानों को फांसी की सजा एवं मुंगेर जिला व सत्र न्यायालय द्वारा 5 दलित आदिवासियों को दी गई फांसी की सजा है.

इन कुछ उदारहणों में हमारे लोकतंत्र, खास तौर पर हमारी अपराध न्याय व्यवस्था की एक खौफनाक तस्वीर उभरती है. इस खौफनाक तस्वीर के समानांतर दूसरी तस्वीर भी है- तेजी से बढ़ते खबरपतियों-अरबपतियों और करोड़पतियों की जिनके आगे भारतीय लोकतंत्र हाथ जोड़ कर नतमस्तक है. यह बात हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या जबरन सताये और फंसाये जा रहे असंख्य लोगों से भरी हमारी समाज व्यवस्था सिर्फ मुट्ठीभर खुशहालों के बल पर फल-फूल सकती है ? संकट में लोकतंत्र है, संकट में न्यायिक व्यवस्था है, संकट में हम  देश की उपरोक्त स्थिति मांग करती है कि इस व्यापक जनविरोधी तथाकथित जनतांत्रिक व्यवस्था को बदल कर नये जनतंत्र की स्थापना की जाए.

फैज अहमद फैज के शब्दों में – “ऐ जुल्म के मारों लव खोलो चुप रहनेवालों चुप कब तक कुछ हश्र तो इनसे उठेगा कुछ दूर तो नाले जायेंगे. अब दूर गिरेंगी जंजीरें अब जिंदानों की खैर नहीं, जब दरिया झूम के उठेंगे तिनका से ना टाले जायेंगे.”

– संजय श्याम

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2 Comments

  1. S. Chatterjee

    March 22, 2018 at 3:05 pm

    प्रजातंत्र पूँजीवाद का ही एक स्वरूप है और उसके सारे अवगुणों को ढोता है। उदार और अनुदार पूँजीवाद कुछ नहीं होता

    Reply

    • संजय श्याम

      March 22, 2018 at 3:46 pm

      सहमत

      Reply

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