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बताइए, आदिवासियों के लिए आपने क्या रास्ता छोड़ा है ?

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बताइए, हत्या और बलात्कार से पीड़ित आदिवासियों के लिए आपने क्या रास्ता छोड़ा है ?
(प्रतीकात्मक तस्वीर) बताइए, आदिवासियों के लिए आपने क्या रास्ता छोड़ा है ?
हिमांशु कुमार, गांधीवादी विचारक

आदिवासी लड़की विजया सत्रह साल की थी. वह स्कूल में पढ़ती थी. वह छत्तीसगढ़ के दन्तेवाड़ा ज़िले के एक गांव में रहती थी. वह अपने परिवार वालों के साथ नजदीक के कस्बे किरंदुल बाज़ार गई थी. विशेष पुलिस अधिकारियों ने विजया और उसके साथ गए उसके परिवार के दो पुरुषों सोनू 55 वर्ष तथा बुधराम 18 वर्ष को पकड़ लिया.

विजया के साथ गए परिवार के दोनों सदस्यों को दंतेवाड़ा ले जाया गया, वहां उनकी पुलिस ने हत्या कर दी. उन दोनों की लाश कभी भी उनके परिवार को नहीं दी गई. विजया को किरंदुल थाने में एक महीने तक रखा गया. विजया बताती है – ‘मेरे साथ रोज़ बहुत सारे पुलिस वाले बलात्कार करते थे. एक महीने बाद मेरे मामा जो खुद विशेष पुलिस अधिकारी थे, उन्होंने बड़े अफसरों से कह कर मुझे घर जाने दिया.’

विजया घर में रहने लगी. एक साल बाद विशेष पुलिस अधिकारी फिर से विजया के घर आये और उसे पकड़ कर गंगालूर थाना ले गये. विजया ने बताया यहां भी मेरे साथ पुलिस वाले रोज़ बलात्कार करते थे. पन्द्रह दिन के बाद एक रात विजया अंधेरे का फायदा उठा कर वहां से भाग निकली. अंधेरे में रास्ता भटक कर वह किसी दूसरे गांव में पहुंच गई. मैं जान बूझकर उस गांव का नाम नहीं लिख रहा हूं वरना पुलिस उन्हें पीट कर फिर से विजया को खोज लेगी.

कल रात विजया के गांव की महिलायें मुझे यह सब बता रही थी. महिलाओं ने बताया कि थाने से लौट कर नौ महीने बाद विजया के एक लड़का हुआ, जो बलात्कार की वजह से गर्भ ठहर जाने से हुआ. विजया अभी भी गांव में रहती है. कहने की ज़रूरत नहीं है कि विजया के मामले में कभी कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई. कोई जांच नहीं की गई. किसी को सज़ा नहीं हुई।

विजया की सुरक्षा के लिये मैनें उसका नाम बदल कर लिखा है और गांव का नाम भी नहीं लिखा है. लेकिन अगर सरकार इस मामले की जांच करना चाहे तो हम विजया को जांच दल के सामने पेश कर सकते हैं. बस्तर में आदिवासी महिलाओं की इस तरह की हज़ारों कहानियां बिखरी मिल जायेंगी. यह सब मुझे कल रात बुर्जी सत्याग्रह में आये आदिवासियों ने बताया. इसे मैं देशवासियों के सामने रख रहा हूं बताइए आपने आदिवासियों के लिए क्या रास्ता छोड़ा है ?

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छत्तीसगढ के बीजापुर जिले के तोड़का आदिवासी गांव का दस साल का मनोज बकरी चरा रहा था. विशेष पुलिस अधिकारी उसे पकड़ कर जंगल में ले गए. मनोज को ज़मीन पर उल्टा लिटा कर उसकी गर्दन कुल्हाड़ी से काट दी. बाद में मां बाप लाश उठा कर लाए. नजदीक के गांव अंडरी में भी बारह साल के बच्चे सोढ़ी सन्नु को विशेष पुलिस अधिकारी गाय चराते समय पकड़ कर ले गए. बच्चे सोढ़ी सन्नु को विशेष पुलिस अधिकारी मार कर दफना दिए. इस बच्चे की लाश उसके परिवार को कभी नहीं मिली.

तोड़का गांव के साठ साल के बुज़ुर्ग ताती मंगू को विशेष पुलिस अधिकारियों ने घर से निकाल कर उसके नाक, कान, जीभ काट दी और कुल्हाड़ी से उसकी गर्दन काट दी. इसी गांव के दूसरे आदिवासी बुजुर्ग सुक्खू की भी विशेष पुलिस अधिकारियों ने जीभ, कान, नाक काटने के बाद कुल्हाड़ी से गला काट दिया. हिरोली गांव के पचास साल के कारम पांडू की सीआरपीएफ की नागा बटालियन ने गर्दन काट दी.

मरूंगा गांव में नौ आदिवासियों की पुलिस ने हत्या की, उनके नाम हैं –

  1. लेकाम लच्छू, 50 साल
  2. कोरसा सुक्खू, 60 साल
  3. कोरसा पांडू, 15 साल
  4. कोरसा लच्छू, 50 साल
  5. कोरसा सन्नू, 55 साल
  6. कोरसा आयतू, 45 साल (पिता सुक्खू)
  7. हेमला बदरू, 35 साल
  8. पुनेम कमलू, 34 साल
  9. कोरसा आयतु, 60 साल (पिता मासा)

यह जानकारी मुझे इन गांवों के आदिवासियों ने दी. यह लोग बुर्जी में चल रहे सत्याग्रह में आए हुए हैं. यह सभी घटनाएं भाजपा के शासन में हुई जब 2005 में सलवा जुडूम चला कर बड़े पैमाने पर आदिवासियों की हत्या की गई थीं. इन मामलों में किसी के खिलाफ कोई रिपोर्ट नहीं लिखी गई. किसी को कई सजा नहीं दी गई. आदिवासी पूरा दर्द और गुस्सा दिल में ले कर जी रहे हैं.

इस तरह की सैंकड़ों कहानियां मेरे पास जमा हो गई हैं जिन पर एक किताब लिखने की ज़रूरत है. इतिहास में यह दर्ज होना ही चाहिए कि भारत के आदिवासियों के ऊपर कितने अत्याचार हुए.

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बड़ी कंपनियां कारपोरेट कंपनियों के लिए आदिवासियों की जमीनें हड़पने के लिए 2005 में भाजपा सरकार ने सलवा जुडूम अभियान शुरू किया था. इस अभियान में 644 से गांव में आग लगाई गई थी, हजारों आदिवासियों की हत्या की गई थी, हजारों आदिवासी महिलाओं से बलात्कार किए गए थे.

इस अभियान में सरकार ने 5000 लोगों को बंदूकें देकर उन्हें कहा था कि आप लोग विशेष पुलिस अधिकारी हो और गांव खाली कराने में इन लोगों का इस्तेमाल किया गया था. इन लोगों को सरकार ने विशेष पुलिस अधिकारी का नाम दिया था.

2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में सलवा जुडूम और इन विशेष पुलिस अधिकारियों को गैर संवैधानिक कहकर इनसे बंदूक वापस लेने का आदेश दिया था. लेकिन तब भाजपा सरकार ने और अब कांग्रेस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को नहीं माना और इन विशेष पुलिस अधिकारियों का नाम बदलकर डिस्टिक रिजर्व गार्ड यानि डीआरजी रख दिया है और इन्हें और ज्यादा खतरनाक बंदूकें दे दी है.

डीआरजी के कुछ मुख्य नेता है जो पहले नक्सली थे. लेकिन नक्सलियों ने निकाल दिया तो पुलिस में मिल गए हैं और अब उन्हें पुलिस अधिकारी बना दिया गया है. यह लोग बिना पढ़े लिखे हैं लेकिन सब इंस्पेक्टर तथा इंस्पेक्टर के पद पर प्रमोट कर दिए गए हैं.

यह लोग अपराधी गैंग की तरह काम करते हैं. गांवों में जाकर आदिवासियों को घरों से निकालकर गोली से उड़ा देते हैं. महिलाओं से बलात्कार करते हैं, निर्दोष लोगों को फर्जी मामलों में फंसाकर जेलों में डलवाते हैं. बड़ी कंपनियों के फायदे के लिए इन लोगों को इस्तेमाल किया जा रहा है.

इनमें से नारायणपुर जिले में काम करने वाला ऐसा ही एक डीआरजी का आधिकारी है, जिसका नाम सुक्खू नरोटे है. इसने कुछ समय पहले सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमला करवाने में मुख्य भूमिका निभाई थी. बीजापुर जिले में बदरू है जो पहले नक्सली था और जिसने तब सोनी सोरी के पिता के पांव में गोली मारी थी, अब वह इंस्पेक्टर के पद पर प्रमोशन पाकर पुलिस अधिकारी बना हुआ है और अनेकों निर्दोष आदिवासियों की हत्या कर चुका है. यह भी अंगूठा छाप है.

इसी तरह सुकमा जिले में मड़कम मुदराज है, जिसने 2009 में सिंगारम के 18 आदिवासियों की हत्या की. गोमपाड़ में 16 आदिवासियों की हत्या की और 2016 गोमपाड़ गांव में ही मड़कम हिड़में के साथ बलात्कार के बाद हत्या किया. 2018 में नुलकातोंग गांव में 15 आदिवासियों की हत्या की थी. यह भी अनपढ़ है लेकिन अब पुलिस अधिकारी है.

आज भी वह खुलेआम नये अपराध कर रहा है. सिंगारम गांव के लोगों को धमका रहा है. छत्तीसगढ़ के नए मुख्यमंत्री कांग्रेस के भूपेश बघेल व मंत्री कवासी लखमा मंच पर उसकी पीठ थपथपा चुके हैं. पुलिस का काम गुंडों को सौंपने का यह प्रयोग बहुत खतरनाक है और आदिवासी इलाकों में तो इसने संविधान इंसानियत और कानून की कमर तोड़ दी है.

इन लोगों के खिलाफ ना तो पुलिस अधिकारी कुछ सुनने को तैयार है, ना नेता कोई कार्यवाही करने के लिए तैयार है और अदालतें इन लोगों के अपराधों को खुलेआम अनदेखा करती हैं बल्कि इनके खिलाफ किए गए अपराधों को उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं पर ही जुर्माना लगा देती हैं. बस्तर के आदिवासी इन लोगों के ज़ुल्म और दमन के नीचे दबकर बुरी तरह कराह रहे हैं लेकिन उनकी कोई सुनने वाला नहीं है.

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