हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
सवाल है कि संस्थाएं अगर कमजोर हो रही हैं तो उनकी कीमत पर मजबूत कौन हो रहा है ? प्रत्यक्ष तौर पर तो लगता है कि राजनीतिक सत्ता मजबूत हो रही है क्योंकि वही संस्थाओं पर हावी होती दिखती है लेकिन, क्या सच में ऐसा है ?
राजनीतिक सत्ता जैसे-जैसे संस्थाओं पर हावी होती नजर आ रही है, इस मुद्दे पर बहस भी तेज होती जा रही है. न्यायिक व्यवस्था में राजनीतिक सत्ता के हस्तक्षेप का प्रयास इस बहस का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है. बाकी, अन्य संस्थाओं की दुर्गति तो सारा देश देख रहा है.
प्रतिरोध हो रहे हैं, लेकिन यह प्रभावी नहीं है. यही कारण है कि एक-एक कर संस्थाओं की गरिमा में ह्रास होता जा रहा है और उन पर सत्ता की जकड़बंदी बढ़ती ही जा रही है. लोकतंत्र में संस्थाओं का कमजोर होना अंततः जनता को ही कमजोर करता है. लेकिन, सवाल उठता है कि इससे मजबूत कौन होता है ?
क्या कोई राजनीतिक दल? या कोई संगठन, जो प्रत्यक्ष राजनीति में न रह कर भी राजनीति को प्रभावित कर रहा है ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जब हम राजनीतिक सत्ता की बात करते हैं तो हम किन शक्तियों की बात कर रहे होते हैं ?
यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व प्रत्यक्ष तौर पर भले ही जनता का प्रतिनिधि दिखता है लेकिन नीतियों के निर्माण के स्तर पर वह किन्हीं अदृश्य शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता प्रतीत होता है.
इस आलोक में जब हम सवालों से जूझते हैं कि आखिर वे कौन हैं जो संस्थाओं पर कब्जा करके जनता को कमजोर करना चाहते हैं तो हम स्थितियों का सरलीकरण नहीं कर सकते.
यह कहना कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी या उनको आगे रख कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन संस्थाओं पर कब्जा कर लेना चाहता है, स्थितियों का सरलीकरण करना ही होगा.
हमें अपनी दृष्टि को और अधिक व्यापक बनाना होगा और सोचना होगा कि आखिर वे कौन हैं जो जनता को कमजोर कर स्वयं को और अधिक, और अधिक शक्तिशाली बनाना चाहते हैं ?
जनता को अपने अनुकूल ढालना और फिर लोकतंत्र सहित तमाम संवैधानिक संस्थाओं को अपनी उंगली पर नचाना वे चाहते हैं, जो जनता के हितों और अधिकारों के विरुद्ध खड़े हैं. वे न केवल खड़े हैं बल्कि निरंतर मजबूत भी होते जा रहे हैं. वे जितना मजबूत होते जा रहे हैं, जनता उतनी ही कमजोर होती जा रही है.
उन्होंने सबसे पहले राजनीतिक शक्तियों को अपने इशारों पर चलाने की कोशिशें की. इसमें जैसे जैसे वे सफल होते गए, नीतियों के निर्धारण में उनका अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप उसी अनुपात में बढ़ता गया.
इस देश में नवउदारवाद की राजनीति को जड़ें जमाने का पहला मौका कांग्रेस ने दिया और फिर भारतीय जनता पार्टी ने अपेक्षाकृत खुल कर इसे आगे बढ़ाया.
कभी मनमोहन सिंह और चिदंबरम ने मुक्त बाजार के नाम पर उनके लिए कालीन बिछाने का काम किया, बाद में यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और फिर अरुण जेटली जैसों ने इनके लिए बैटिंग की कमान संभाली.
सत्ता पर काबिज पार्टियों का चेहरा बदलता गया लेकिन नीतियों की दिशा वही रही. यहां तक कि 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में देवगौड़ा और गुजराल के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकारें भी नवउदारवादी नीतियों की कसमें खाती रहीं.
बीते तीस सालों में भारत की अर्थव्यवस्था ने मुक्त बाजार के प्रांगण में जितनी ऊंचाई हासिल की, उसके सबसे बड़े लाभान्वितों को पहचानने की कोशिश हम करेंगे तो हमें आज उठ रहे तमाम सवालों में से अनेक के उत्तर मिलने लगेंगे.
आज स्थिति यह है कि उनके हित मेहनतकश जनता के हितों के सीधे विरुद्ध खड़े हैं और इस हित साधन में राजनीतिक सत्ता तो उनकी उंगलियों के इशारों पर नाच ही रही है, जनता के हितों की रखवाली करने वाली संवैधानिक संस्थाएं भी उनके शिकंजे में आती जा रही हैं. नियमित अंतराल पर होने वाले आम चुनावों से संचालित लोकतंत्र में कोई राजनीतिक दल लगातार सत्ता में बना नहीं रह सकता।.
जाहिर है, भारतीय जनता पार्टी भी एक दिन सत्ता से बेदखल होगी और तब…कमजोर होती जा रही संवैधानिक संस्थाएं उस राजनीतिक पार्टी के हाथों का खिलौना होंगी जो सत्ता में होगी. तब, भारतीय जनता पार्टी को भी चुनाव आयोग का कमजोर होना, ईडी और सीबीआई का सत्ता का तोता बन जाना, न्यायपालिका का कमजोर होना भारी पड़ेगा.
आज वे किसी भी विपक्षी नेता को चुप या कमजोर करने के लिए उन पर बात बेबात छापा डलवाते हैं, उन्हें जेल भेजते हैं, कल उनके साथ भी यही होगा. होगा ही, क्योंकि मुक्त बाजार की शक्तियां अपने हितों के सामने जनता के हितों की जब भी बलि देने को उद्यत होंगी, विरोध में उठ रही आवाजों को कुंद करने की हर संभव कोशिशें करेंगी. लोकतंत्र और जनता के हितों की प्रहरी संस्थाएं जितनी कुंद होंगी, उनकी कोशिशें उतनी कामयाब होंगी.
1990 के दशक में, जब नई आर्थिक नीतियों की बयार इस देश के मध्य वर्ग को खुशगवार लग रही थी, जब देश की जीडीपी ऊंचाइयों की ओर बढ़ने लगी थी, तभी उन शक्तियों के नख दंत भी तेज होने लगे थे जो आज हमारी राजनीति को अपने इशारों पर नचा रही हैं.
इन तीस वर्षों में देश ने आर्थिक विकास के नए मानदंडों का स्पर्श किया है, आधारभूत संरचनाओं के विकास के चौंधिया देने वाले आंकड़े और दृश्य हमारे सामने हैं, लेकिन इसी के बरक्स यह भी उतना ही सत्य है कि आज की तारीख में इस देश के 81 करोड़ लोग मुफ्त के अनाज के भरोसे अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था की गाड़ी खींच रहे हैं.
और उधर, आक्सफेम जैसी संस्थाओं की रिपोर्ट्स हमें बता रही हैं कि किस तरह देश की संपत्ति का संकेंद्रण मुट्ठी भर हाथों में होता जा रहा है. बाजार का खुलना एक बात है और खुलते हुए बाजार के माध्यम से जनता के दिमाग और श्रम पर कब्जा जमाना अलग बात है.
नई सदी में मनमोहन सिंह के दस वर्षों के कार्यकाल में मध्य वर्ग ने अच्छी समृद्धि हासिल की, लेकिन नरेंद्र मोदी के आठ-नौ वर्षों का कार्यकाल पूरा होते होते आज मध्य वर्ग आर्थिक रूप से हांफने लगा है.
भारतीय मध्य वर्ग की यह आर्थिक परिणति बिलकुल तार्किक है क्योंकि नियो लिबरल इकोनॉमी गरीब लोगों का श्रम और मध्यवर्गीय लोगों की जेब लूट कर ही समृद्धि हासिल करती है. फिर, इस समृद्धि को खुले तौर पर उन्हें हस्तांतरित कर देती है जो इस इकोनॉमी के कर्णधार हैं, जो मौलिक तौर पर इसके लाभान्वित हैं.
आप मोदी को 2024 में तीसरी बार सत्ता दीजिए और गरीबों के श्रम की लूट, मध्यवर्गीय लोगों के जेब की लूट के नजारे का अगला, पहले से भी अधिक दारुण दृश्य देखने के लिए खुद को तैयार कर लीजिए. अभी बैंकों का 12-15 लाख करोड़ बड़े लोगों की जेब में गुम हुआ है, यह आंकड़ा 2029 आते आते और अधिक हैरत अंगेज बढ़ोतरी हासिल करेगा.
चीजें जिस दिशा में जा रही हैं उसमें बदलाव की कोई सूरत फिलहाल तो नजर नहीं आ रही. मतदाताओं की मेंटल कंडीशनिंग, प्रशासन की मशीनरी का बंधुआ बनते जाना, न्याय तंत्र पर सवालों का गहराते जाना आदि तो लक्षण मात्र हैं, जो आने वाले समय की आहट दे रहे हैं.
मनमोहन दस वर्षों तक रहे. तब तक रहे जब तक नरेंद्र मोदी नामक छवि तैयार नहीं कर ली गई. फिर तो, मोदी की छवि चमकाने के लिए मनमोहन की छवि की जिस कदर ऐसी की तैसी की गई, वह इतिहास में दर्ज हो चुका है.
मोदी के बाद कौन होगा, यह अभी अनसुलझा-सा है. जनता नहीं जानती, लेकिन वे शक्तियां उस छवि के संधान में लगी होंगी जो पोस्ट मोदी एरा में उनके हितों को साधने के लिए नीतियां बनाएगी.
संस्थाएं जितनी कमजोर होंगी, सत्ता पर काबिज करने के लिए छवियों का संधान करने वाली, उनसे अपने अनुकूल नीतियां बनवाने वाली शक्तियां उतनी ही मजबूत होंगी.
लड़ाई तो जनता और छवियों का संधान करने वाली उन शक्तियों के बीच ही है. जन जागरूकता, गरीबों में शिक्षा का प्रसार और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सार्वजनिक स्तर पर सुधार ही इन अंधेरों से लड़ने का सबसे बड़ा उपाय है.
तभी, जनता उन शक्तियों की पहचान कर सकेगी जो उस के विरुद्ध आज इतने ताकतवर हो चुके हैं कि उसका और उसके देश का भाग्य लिख रहे हैं.
कुछ तो कारण है कि सार्वजनिक शिक्षा में गुणवत्ता के लिये नीति निर्माताओं के स्तर पर सिर्फ शोशेबाजी हो रही और जमीन पर उसका कोई खास असर नजर नहीं आ रहा.
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