जनता के साथ संपर्क, इन संपर्कों को सुदृढ़ बनाना, जनता की आवाज़ सुनने के लिए तत्पर रहना, इसी में बोल्शेविक नेतृत्व की शक्ति और अजेयता रहती है. इसे एक नियम के रूप में माना जा सकता है कि जब तक बोल्शेविक व्यापक जनता के साथ संपर्क रखते हैं, तब तक वे अजेय बने रहेंगे. और इसके विपरीत, बोल्शेविकों के लिए बस इतना ही काफ़ी है कि वे जनता से दूर हो जाएं, जनता के साथ उनका रिश्ता टूट जाए तो फिर उनमें नौकरशाहियत का जंग लग जाएगा, उनकी सारी शक्ति जाती रहेगी और वे नगण्य हो जाएंगे.’
– कॉमरेड स्तालिन, विश्व मज़दूर आंदोलन के महान नेता और शिक्षक
जनता के साथ जुड़ना, उनसे सीखना और फिर उसे मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी दर्शन के आइने में देखकर पुनः जनता को वापस कर देना, मार्क्सवादी कार्यशैली है. भारत में बहुत सारे बुद्धिजीवी, जो खुद को कम्युनिस्ट कहते हैं, इस शैली का इस्तेमाल नहीं करते, फलतः निराश होकर कहते हैं कि ‘भारत की जनता बिकाऊ है, कि वह बस दारु-मुर्गे पर बिक जाती है, कि वह संघर्ष करना नहीं चाहती.
पिछले दिनों ऐसे ही एक शख्स से बातचीत हो रही थी. उनका कहना था कि ‘लोग भी शातिर, बेईमानों और दंगाईयों को पसंद करते हैं. दारु, धरम और पैसे के नाम चढ़ जाता है आंदोलन.’ जब उन्हें बताया कि ‘ऐसा नहीं है. हम कम्युनिस्ट की ही समस्या है. हम जनता के बीच नहीं रहते और उन तक अपनी बात सुगम तरीकों से पहुंचा नहीं पाते. बस माला की तरह तक पाठ करते रहते हैं, तब जनता भला हमें क्योंकर पसंद करेंगी ! लेकिन जहां कहीं भी जनता के बीच में रहकर काम किया गया, आंदोलन बूम किया है.’ तब उन्होंंने गजब का तर्क दिया – ‘बीजेपी कौन-सा आंदोलन करके और जनता के बीच रह कर आयी है ?’
यह सीधा उस साथी का पलायनवादी सोच था. अपनी कमजोरियों को स्वीकार करने के बजाय उसका दोष जनता पर डालने की प्रवृत्ति है. बहरहाल, जब मैंने भाजपा के उत्थान के कारणों को बताया तो वे कोई जबाब नहीं दे सके. मैंने उन्हें बताया कि भारत में अंधविश्वास, चमत्कार, जातिवाद, छुआछूत, कूपमंडूकता, पिछड़ेपन, अशिक्षा आदि की हजारों साल पुरानी जड़ें हैं. सबसे बढ़कर दर्जनों नस्लों और हजारों भाषाओं का विभाजनकारी दरारें मौजूद हैं.
ऐसे में इन दरारों के सहारे भाजपा का सत्ता पर काबिज हो जाना कोई बड़ी चुनौती नहीं है. भाजपा को सत्ता पाने में वही सब चुनौतियां थी, जिसने उसे 70 साल तक आने से रोक रखा था, वह था – वामपंथियों व अन्य प्रगतिशील ताकतों का मजबूत आंदोलन. जैसे-जैसे यह ताकतें शिथिल पड़ती गई, मैदान खुला छोड़ती गई, वैसे-वैसे भाजपा और संघियों का उत्थान होता गया.
भाजपा और संघियों के उत्थान के पीछे वामपंथियों और प्रगतिशील ताकतों का निष्ठल्लापन जिम्मेदार है. आज भी भाजपा इन्हीं चुनौतियों का सामना कर रही है, जिस कारण उसे आये दिन झूठ बोलना पड़ रहा है और उसके झूठ का पर्दाफाश करने वाली प्रगतिशील ताकतों को खत्म करना पड़ रहा है, क्योंकि भाजपा को इन्हीं से खतरा है. अंधेरा को सदैव रोशनी से खतरा होता है.
भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ यह सबसे बड़ी समस्या रही है कि यहां के लाखों मजदूर-किसान, छात्र-नौजवानों ने जिस दृढ़ता से अपना साहसिक बलिदान दिया है, उसी नीचता और निर्लज्जता के साथ इस देश के नेतृत्व ने बार-बार गद्दारी या अपनी मूढ़ता का खुला प्रदर्शन कर शासक वर्ग के सामने घुटने टेक दिए. आंदोलनों के साथ की जा रही बार-बार की इस गद्दारी के वाबजूद जब कभी कम्युनिस्टों ने जनता का आह्वान किया है, जनता खुलकर सामने आई है और आन्दोलन ने नई गति पकड़ी है.
यहां हम भारत में मजदूरों की भयावह दुर्दशा पर जमीनी रपट शामिल कर रहे हैं, जिसे ‘मुक्ति संग्राम’ पत्रिका ने अपने वेबसाइट पर विभिन्न वक्त में प्रकाशित किया है, इसे हम साभार यहां प्रकाशित कर रहे हैं. मजदूरों की जिन्दगी पर आधारित यह खोजी रिपोर्ट इस प्रकार है.
चाय बागानों के मज़दूर भयानक ज़िंदगी जीने पर मजबूर
सर्दी हो या गर्मी चाय के बिना ज़्यादातर लोगों का काम नहीं चलता. जहां ग़रीब लोग चालीस-पचास रुपए पाव वाली चायपत्ती से काम चला लेते हैं, वहां अमीर लोग हज़ारों रुपए किलो वाली उम्दा चाय का स्वाद चखते हैं. पर क्या आपने कभी यह सोचा है कि चाय का ये स्वाद लोगों तक पहुंचाने वाले चाय बागानों के मज़दूरों की ज़िंदगी कैसी है ?
चलिए, आपको असम और पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में ले चलते हैं. पहाड़ों की ढलानों पर टाटा, लिप्टन, ब्रुक बॉन्ड, टेटली आदि ब्रांडों के इन ख़ूबसूरत बागानों में काम करते हैं बदसूरत बस्तियों में रहने वाले वो मज़दूर, जिन्हें 12-14 घंटे की मेहनत के बाद 80-90 रुपए दिहाड़ी मिलती है. चाय की पत्तियां तोड़ते-तोड़ते इनकी पीठ अकड़ जाती है. सूरज उगने से पहले काम शुरू हो जाता है और सूरज छिपने से पहले तक वो काम बंद नहीं कर सकते.
इतनी कम मज़दूरी में उनका गुज़ारा कैसे चलता होगा, ये सोच कर कंपकंपी होती है. ग़रीबी इतनी है कि मां-बाप अपनी नाबालिग बेटियों को नौकरी दिलाने वालों के साथ दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों में भेजने पर मजबूर होते हैं. ये लड़कियां अकसर धोखेबाज़ों का शिकार होती हैं. उनको वेश्यावृत्ति के धन्धे में धकेल दिया जाता है या नाममात्र वेतन पर काम लिया जाता है.
चाय बागानों के मज़दूरों में कुपोषण बड़े पैमाने पर फैला है. बीमारियों ने उन्हें घेर रखा है. उनको अच्छे भोजन, दवा-इलाज ही नहीं बल्कि आराम की बहुत ज़रूरत है, पर उनको इनमें से कुछ भी नहीं मिलता. सरकारी बाबुओं की रिटायरमेंट की उम्र से पहले-पहले बहुत सारे मज़दूरों की तो ज़िन्दगी समाप्त हो जाती है.
चाय बागानों में काम करने वाली 95 प्रतिशत औरतें खून की कमी का शिकार होती हैं. यहां औरतों के साथ-साथ बच्चों और बुजुर्गों से बड़े पैमाने पर काम लिया जाता है क्योंकि उनको ज़्यादा पैसे नहीं देने पड़ते और आसानी से दबा के रखा जा सकता है. बीमारी की हालत में भी चाय कम्पनियां मज़दूरों को छुट्टी नहीं देती. कम्पनी के डॉक्टर से चैकअप करवाने पर ही छुट्टी मिलती है और कम्पनी के डॉक्टर जल्दी छुट्टी नहीं देते.
अगर बीमार मज़दूर काम करने से मना कर देता है तो उसको निकाल दिया जाता है. बेरोज़गारी इतनी है कि काम छूटने पर जल्दी कहीं और काम नहीं मिलता, इसलिए बीमारी में भी मज़दूर काम करते रहते हैं. उनकी बस्तियां बीमारियों का घर हैं. पर उनके पास इसी नर्क में रहने के सिवा कोई रास्ता नहीं होता.
1947 के बाद भारत में चाय की खेती का रकबा चालीस फ़ीसदी बढ़ा है और पैदावार ढाई सौ गुना बढ़ गयी है. भारत में दुनिया की 30 फ़ीसदी चाय की पैदावार होती है और चाय उत्पादन में यह दुनिया में चौथे स्थान पर है.
यहां चाय का सलाना कारोबार 10 हज़ार करोड़ रुपये का है. चाय उद्योग में 10 लाख से ज़्यादा मज़दूर काम करते हैं जिनमें से आधी गिनती औरतों की है. चाय उद्योग लगातार बढ़ रहा है, चाय कंपनियों की पांचों उंगलियां घी में है, पर इसके लिए अपना खून-पसीना बहाने वाले सभी सुख-सुविधाओं से वंचित हैं.
प्रबंधकों का रवैया मज़दूरों के प्रति कितना अमानवीय है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब कोलम्बिया कानूनी स्कूल की मानवीय अधिकार संस्था के लोग असम के बोरहट प्लांट में मज़दूरों की हालत की जांच-पड़ताल करने गये तो प्रबन्धकों ने उनको मज़दूरों से बात करने से रोकते हुए कहा कि मज़दूरों से बात करने की क्या ज़रूरत, उनकी अकल कम है और वो तो बस ढोर-डांगर जैसे हैं.
असम के पवई प्लांट में दवा का छिड़काव करते समय एक मज़दूर की मौत का मुआवज़ा और काम में सुरक्षा की मांग पर आपस में सलाह करने जुटे मज़दूरों पर मालिकों के इशारे पर पुलिस गोली चलाकर दो मज़दूरों को मार डालती है. मगर ज़ोर-ज़बर्दस्ती और दमन से मज़दूरों के हक की आवाज़ को दबा पाने में मालिकान नाकाम रहे हैं. भयानक लूट और शोषण को चुनौती देते हुए मज़दूरों के संघर्ष बार-बार उठ खड़े होते हैं.
चंडीगढ़ की एक मज़दूर बस्ती के हालात
हल्लोमाजरा चंडीगढ़ शहर के मज़दूर इलाकों में एक है. साथ सटे हुए रामदरबार और फैदां के इलाकों को मिलाकर यह चंडीगढ़ का सबसे बड़ा वार्ड बनता है. इसके बिल्कुल पास चंडीगढ़ का औद्योगिक इलाका फेज़ 1और 2 और यहां से 3-4 किलोमीटर की दूरी पर बलटाणा और पंचकूला का औद्योगिक इलाका शुरू हो जाता है, जहां हजारों की गिनती में औद्योगिक इकाइयां हैं.
हल्लोमाजरा के अंदर भी हजारों ही परिवार रहते हैं, जिनमें मुख्य तौर पर यू.पी. बिहार से आकर बसे प्रवासी मज़दूर हैं जो इन उद्योगों, नज़दीकी मालों, रेहड़ियों आदि पर काम करते हैं. यह इलाका चंडीगढ़ की सीमा में आने से पहले पंजाब का गांव था. इसलिए यहां पंजाबी आबादी भी मौजूद है, पर प्रवासियों के मुकाबले पर बहुत कम है.
प्रवासियों की यह बड़ी आबादी यहां किराए पर रहती है. कहा जाए तो यह आबादी यहां बस वक्त काट रही है, क्योंकि जैसे बदतर हालातों में इनके रहने के कमरे हैं, वे किसी गंदी जेल का भ्रम पैदा करते हैं. इस पूरी बस्ती और यहां की गलियों वगैरा में बुनियादी साफ़-सफ़ाई, नालियों, सीवरेज आदि की बहुत समस्या है.
क्षेत्रफल में बहुत छोटा पर घना इलाका होने के कारण यहां शोर-शराबा बहुत ज़्यादा है, जिसके कारण बच्चों के पढ़ने के लिए कोई अच्छा माहौल भी मुहैय्या नहीं हो पाता. क्योंकि 3-4 लोगों के परिवार 10 गुना 8 फुट के बहुत ही छोटे-छोटे कमरों में रहता है, इसीलिए व्यक्तिगत जीवन, पढ़ाई के लिए अच्छे माहौल के संकल्प का यहां कोई वजूद नहीं है.
एक 150-200 गज़ के बेहड़े में ही 40-50 ऐसे छोटे-छोटे कमरे होते हैं, मतलब जितनी जगह में अच्छे मध्यवर्ग का एक परिवार अपने 5-7 लोगों के साथ रहता है वहीं इस मज़दूर बस्ती में 200 गज़ के दो मंज़िल बेहड़े में ही 150 से 200 लोग मिल जाते हैं. ऐसी भीड़ में अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि एक बच्चा या छात्र किस तरह अपनी पढ़ाई या कोई भी और व्यक्ति अपने व्यक्तिगत काम पर ध्यान दे सकता है.
रविवार को ज़्यादातर मज़दूरों के लिए छुट्टी होती है, इसलिए इन बेहड़ों की छतों पर रौनक होती है, ख़ासकर सर्दी के इन दिनों में – धूप सेंकने के लिए हर छत पर दर्जनों ही लोग – बच्चे, मर्द, औरतें बैठ जाते हैं और साथ-साथ अपने छोटे-मोटे काम – बाल संवारना, कपड़े धोना, खाने की तैयारी करनी आदि करते रहते हैं. रविवार की खिली दोपहर को अगर हल्लोमाजरा की किसी ऊंची छत से नज़र घुमाओ तो चारों ओर कपड़े ही कपड़े सूखने के लिए लटके हुए नज़र आते हैं.
ख़ैर मुझे बात तो करनी थी कि कारखानों की लूट के अलावा भी इन कमरों में रहने वाले प्रवासियों की लूट किस ढंग से होती है. बेहड़े में रहने वाले एक मज़दूर ने मुझे बताया कि उनके पूरे बेहड़े में रहने वाली 150 से भी ज़्यादा आबादी के लिए केवल तीन ही शौचालय हैं और पानी भरने के लिए केवल दो ही टूटियां हैं.
इसीलिए सुबह जल्द ही, जिस समय आमतौर पर लोग अभी बिस्तर से नहीं उठे हुए होते, यहां नहाने या शौचालय जाने के लिए भाग-दौड़ लग जाती है. क्योंकि सब काम निपटा कर मज़दूर ने कई किलोमीटर साइकिल दौड़ा कर सही 8 बजे से पहले कारखाने पहुंचना होता है. जरा-सी देरी कारखाना मालिक की ओर से तनख्वाह पर डाका डलवा सकती है.
जब मैंने ये शौचालय देखे तो ऐसे लगता था कि जैसे मकान मालिक ने यह भी मजबूरी में बस दीवार में ही छेद निकलवा छोड़ा हो, क्योंकि इस शौचालय में अच्छी तरह बैठने के लिए भी जगह नहीं थी और बिजली, पानी का कोई प्रबंध नहीं और ना ही दरवाज़े में कोई कुंडी लगती थी. आपको बाल्टी/डिब्बा भर के पानी साथ ही ले जाना पड़ता है.
कोई सुविधा ना होने के बावजूद भी मकान मालिक प्रति कमरा 2500-3000 किराया वसूल लेते हैं. इसके अलावा बिजली के 200-300 रुपए अलग से लेते हैं. मज़दूरों ने बताया कि बिजली का पैसा भी नाजायज़ लिया जा रहा है क्योंकि बिजली के नाम पर ज़्यादातर कमरों में एक बल्ब और किसी-किसी कमरे में एक टीवी होता है और तय सरकारी रेट से दुगने रेट पर मकान मालिक उनसे वसूल करता है.
इसके अलावा मालिक प्रति कमरे 50 से 100 रूपए पूरे बेहड़े की सफ़ाई के भी लेता है, जो कि लूट का एक और ज़रिया है क्योंकि सफ़ाई इन बेहड़ों में होती ही नहीं. और फ़र्ज़ करो अगर 50 रूपए हर कमरे में से लिए तो 50 कमरों के कुल 2500 रुपए हर महीने मकान मालिक की जेब में जा रहे हैं.
इसके बदले मालिक हर हफ़्ते या 10 दिनों में दिखावे के लिए किसी दिहाड़ी को बुलाकर बेहड़े में झाड़ू लगवा देता है. घंटा भर झाड़ू लगाने की उसको 100 से 200 रूपए दिहाड़ी बन जाती है. महीने में इस तरह तीन-चार बार सफ़ाई करवा दी जाती है जिसका कुल खर्चा तो 400-500 रूपए ही बनता है पर मकान मालिक मुफ़्त में 2500 रुपए इसके ले जाता है.
इसी तरह पानी के भी पैसे मज़दूरों से लिए जाते हैं यानी कि 10-11 हज़ार रुपए तनख्वाह में से 3000-3500 रूपए तो सर की छत के ही खर्च हो जाते हैं. कई मालिक तो ऐसे भी हैं कि जब महीने के दसवें दिन मालिक किराया वसूलने आते हैं, तो अगर कमरे के बाहर कोई अतिरिक्त जोड़ा चप्पल का पड़ा हो तो उसे देखकर किराएदारों के साथ लड़ाई शुरू कर देते हैं कि तुमने दो/तीन जनों का बोलकर ज़्यादा बंदे रखे हैं, लाओ इसके भी पानी और सफा़ई के अलग से पैसे दो !
(इस तरह) एक ही बेहड़े के 50 कमरों से लगभग एक लाख रुपया इकट्ठा करने के बावजूद भी अगर किसी मज़दूर के 5-10 रुपए बकाया रह जाएं तो मालिक उसको कॉपी में अगले महीने के जोड़ में लिख लेता है.
हल्लोमाजरा में जितने भी बेहड़े हैं किसी में भी सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं है. सीढ़ियों की ओर कोई रेलिंग नहीं, छतों से सरिए बाहर ही निकले हुए हैं, जिनके साथ टकराकर, गिरकर कई बच्चे, बुजु़र्ग गंभीर चोटें लगवा चुके हैं.
पुरानी होने के कारण कई छतों की मियाद ख़त्म हो चुकी है और यहां तक के छतें रिसने भी लगी हैं. पर बार-बार कहने पर भी इन बेहड़ों का कोई सुरक्षा मुआयना नहीं कराया जाता, क्योंकि मालिक को केवल किराए से मतलब है. इन कमरों में धूप, रोशनी, और हवा के लिए कोई रास्ता ना होने के कारण यहां सीलन ही रहती है और ये बेहड़े बीमारियों का घर बने रहते हैं.
ये वे हालात हैं जिनमें चंडीगढ़, पंचकूला, मोहाली, और डेराबस्सी के लाखों मज़दूर रहते हैं पर जिसकी ओर कोई मीडिया, सरकारी अमला, प्रशासन ध्यान नहीं देता और ख़ूबसूरत शहर चंडीगढ़ में बसने वाला ऊपर वाला तबका भी इन मज़दूरों को देखकर नाक चिढ़ाता है कि ये तो गंदगी में रहते हैं. यह मुश्किल जिंदगी मज़दूरों का शौक है या मजबूरी – यह तो हम ऊपर देख ही आए हैं.
मुनाफ़े की चक्की में पिसता बाल मज़दूरों का बचपन
बच्चों का हंसी, चेहरे की प्यारी मुस्कान, उनकी तोतली बातें, हर बात पर स्वाल, शरारतें, हम बड़ों की जिंदगी में खुशियां लेकर आते हैं. जब हम बच्चों की बात करते हैं तो हम कल्पना में बच्चों के खेल-कूद, हंसने, शरारतों के बारे में सोचते हैं लेकिन हमारे समाज में सभी बच्चों की यही हालत नहीं है.
ऐसे करोड़ों माता-पिता हैं जिनके बच्चे बचपन का सुख हासिल नहीं कर पाते. आपने अपने आस-पास ऐसे बच्चे देखे होंगे जिनके सर पर टोकरियां होती हैं और हाथों में जूठे बर्तन होते हैं. वे दौड़ रहे होते हैं, लेकिन किसी खेल के मैदान में नहीं ! अपने दोस्तों के साथ खेलने जाने के लिए नहीं ! बल्कि काम पर पहुंचने के लिए.
आज मानव सभ्यता बहुत विकास कर चुकी है, इसके बहुत गुणगान किए जाते हैं. इसमें बहुत कुछ नया और अच्छा अपनाने लायक है. लेकिन बहुत कुछ घटिया है, घृणा करने लायक है. भारत समेत पूरी दुनिया में गरीबों के बच्चों की अच्छी खासी संख्या बाल मज़दूर है. उनके छोटे-छोटे हाथों को गरीबी, मंदहाली के कारण मजबूरी में काम करना पड़ता है.
संयुक्त राष्ट्र संघ का अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन बाल मज़दूरी को इस तरह परिभाषित करता है : वह काम जो बच्चों को उनके बचपन, उनकी क्षमता और उनके सम्मान से वंचित करता है, और जो शारीरिक और मानसिक विकास के लिए हानिकारक है. यह हमारी देश और दुनिया की कड़वी सच्चाई है कि संसार भर में बाल मज़दूरी बड़े पैमाने पर करवाई जाती है.
भारत में लगभग अस्सी लाख तीस हज़ार बच्चे ऐसे हैं जो बाल मज़दूरी करते हैं. कारख़ानों, खेतों, निर्माण कार्यों, खदानें, घरेलू काम-काज, ढाबों, ईंट के भट्ठों आदि अनेकों जगहों पर गरीबों के बच्चों का बचपन तबाह हो रहा है. ये काम बच्चों के शारीरिक, मानसिक विकास को रोकते हैं. उन्हें अनेकों शारीरिक-मानसिक बीमारियों की तरफ धकेलते हैं.
काम की जगहों पर अक्सर बच्चों के साथ मार-पीट की जाती है, उन्हें गाली-गालौच की जाती है. अक्सर बच्चों से बारीकी वाला और नीरस काम करवाया जाता है. सिल्क उद्योग में 5 साल से कम उम्र के बच्चे काम करते हैं. वह भी एक दिन में 12 घंटे से भी अधिक और हफ्ते के सातों दिन ! उनसे मेहनत तो बहुत ज्यादा करवाई जाती है लेकिन वेतन बहुत कम दिया जाता है.
यहां तक कि काम के पैसे तक मार लिए जाते हैं. काम के पैसे बिना दिए काम से निकाल दिया जाता है. भारत में बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र ऐसे राज्य हैं जहां सब से अधिक बाल मज़दूर हैं. अकेले उत्तर प्रदेश में कुल भारत के 20 प्रतिशत बाल मज़दूर हैं.
भारत में बाल मज़दूरी को रोकने के लिए बहुत सारे कानून बने हुए हैं जैसे बंधुआ मज़दूर प्रणाली (ख़ात्मा) क़ानून 1976, बाल मज़दूरी (रोकथाम और नियमन) संशोधन बिल 2016 आदि. भारत में 14 साल से कम उम्र के बच्चों से मज़दूरी करवाना क़ानूनी अपराध है लेकिन इन तमाम क़ानूनों के बावजूद बाल मज़दूरी बेलगाम जारी है.
बहुत सारी गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) वालों से यह सुनने को मिलता है कि ‘गरीबी के कारण बच्चे ज़बरदस्ती काम करने की तरफ धकेले जाते हैं’, ‘गरीबी के कारण बाल मज़दूरी है.’ एनजीओ अपने स्कूल चलाते हैं, बच्चों को पढ़ाते हैं, उनके कपड़ों, जूतों आदि खर्चा उठाते हैं लेकिन इनके पास समाज से गरीबी ख़त्म करने का कोई कार्यक्रम नहीं होता.
उनसे यह स्वाल बनता है कि क्या कुछ गरीब बच्चों की मदद कर देने से भारत के तमाम गरीब बच्चों की, बाल मज़दूरों की हालत में बदलाव आ जाएगा ? वो भी स्थाई बदलाव, न कि अस्थाई ? जो एनजीओ करती है उसका असर अस्थायी होता है, न ही वह गरीब होने से रोक सकते हैं, न ही मंदहाली से, न ही शोषण से.
सब से बड़ी बात उनका यह एजेंडा कभी होता भी नहीं बल्कि गरीबी की मौजूदगी से ही इनका धंधा चलता है. इन संस्थाओं के जरिए अमीर घराने अपने काले धन को ‘जन कल्याण’ के नाम पर सफ़ेद करते हैं. ये संस्थाएं इस ढांचे की उम्र को लंबा करने का काम करती हैं. मज़दूरों-मेहनतकशों के शोषण के ख़िलाफ़ बेचैनी को पैसों, कपड़ों आदि से कम करने का काम करती हैं.
अब तक यह पूरी तरह साबित हो चुका है कि महज क़ानून बना देने से या एनजीओ जैसे सामाजिक सुधार के कामों से बाल मज़दूरी जैसी सामाजिक बीमारियों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता है, इसके लिए समाज में बुनियादी बदलाव जरूरी है. बाल मज़दूरी की समस्या इस पूंजीवादी समाज की बुनियाद से जुड़ी हुई समस्या है. पूंजीवादी व्यवस्था ही गरीबी पैदा करती है, जिसमें मुट्ठीभर धनवानों का उत्पादन के साधनों पर कब्जा है.
पढ़ाई के लिए मज़दूरी करने पर मजबूर एक ग़रीब छात्र
चंडीगढ़ के इलाक़े मौली जागरां में दीपक नाम का 14 साल का लड़का रहता है, जो नौजवान भारत सभा की ओर से पढ़ाई जाने वाली मुफ़्त ट्यूशन में पढ़ने आता है. वह नौवीं कक्षा का छात्र है और बहुत शांत और कम बोलने का आदी है.
यह पिछले हफ़्ते की बात है, जब लगभग सुबह 7 बजे मैं दीपक को मिलने उसके घर गया था. वह घर पर नहीं था, पता चला कि घर के सामने वाली बिस्किट बनाने वाली बेकरी में काम कर रहा है. उसके परिवार वालों ने छोटे भाई को भेजकर उसे बुलाया तो वह बाहर आया. सारे का सारा आटे से ढंका हुआ ! बाहर आते ही उसे बेकरी में से आवाज़ आई कि ‘जल्दी आओ, अभी तुम्हारा बहुत काम बाक़ी है’ यह सुनते ही वह दोपहर में मिलने का बोलकर वापस अंदर चला गया. मैं भी दोपहर को मिलने का बोलकर प्रचार करने चला गया.
दोपहर में जब मैं उसे मिला तो पता चला कि उसके परिवार में कुल 6 लोग हैं और वह पिछले एक साल से इसी बेकरी में काम कर रहा है. यह जानकर मुझे कुछ हैरानी हुई, क्योंकि उसने अपने काम करने के बारे में कभी मेरे साथ बात नहीं की.
पूछने पर उसने बताया कि घर के हालात ठीक ना होने के कारण आठवीं कक्षा से ही यहां काम कर रहा है. जिस दिन स्कूल जाना होता है, उस दिन सुबह 6 से 7 बजे तक और शाम को सात से नौ बजे तक और छुट्टी वाले दिन पूरा दिन काम करता है. इसमें से समय निकालकर हमारे पास शाम को पांच से सात बजे तक ट्यूशन पढ़ने आता है. बेकरी में काम करके उसे जो पैसे मिलते हैं, उसी में से अपनी पढ़ाई का ख़र्चा निकालता है और बचत में से परिवार को भी देता है, ताकि उसके घर का ख़र्चा चल सके.
हम सभी अक्सर ही लोगों से यह सुनते हैं कि भविष्य में कोई अच्छी नौकरी करनी है, तो आज मेहनत से पढ़ना चाहिए, लेकिन दूसरी ओर यहां दीपक जैसे लाखों-करोड़ों बच्चे हैं, जो इस वजह से काम करने को मजबूर हैं कि वह पढ़ सकें. वह पढ़ाई में भले औसत ही है, लेकिन पूरी मेहनत करता है. एक छोटे से 10×10 के कमरे में वे 6 लोग रहते हैं. ऐसी स्थिति में पढ़ाई कर पाना किसी बड़े कारनामे से कम नहीं है.
घर के हालातों के बारे में बात चली तो उसने बताया कि पिछले दो सालों से घर में दूध की चाय तक नहीं बनी, क्योंकि महंगाई बढ़ने के चलते वे काली चाय ही पीते हैं, बस किसी मेहमान के आने पर ही दूध वाली चाय बनती है. छोटे से कमरे में घर का कोई–ना-कोई सदस्य बीमार रहता है, इसका भी कारण उनके कमरे के पास से गुज़रने वाला गंदा नाला है, जिसे ‘बीमारियों वाला नाला’ या ‘बीमारियों का घर’ कहना कोई अतिकथनी नहीं होगी.
मैं मन ही मन सोच रहा था कि चंडीगढ़ प्रशासन जो शहर में सड़कों से धूल-रेत साफ़ करने के लिए भी ख़ास वाहनों का इस्तेमाल करता है, वह मज़दूर बस्ती के इस नाले को साफ़ करवाने के बारे में सोचता तक नहीं, जिसके किनारे-किनारे हज़ारों लोग रहते हैं.
दीपक से उसके भविष्य और पढ़ाई के बारे में कुछ बातें करके मैं वापस लौट आया. लेकिन लौटते समय मैं सोचता रहा कि केवल यही दीपक नहीं, हमारे देश में लाखों दीपक हैं, जो इस अंधकारमय समय में रोशनी की कुछ किरणों के लिए दिन-रात संघर्ष करते हैं, ताकि जीवन के उस प्रकाश का आनंद ले सकें, जिसे असल में ‘जीवन’ कहा जाता है.
भरोसेमंद नेतृत्व
पिछले दिनों, संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें कहा गया था कि 2022 में, युद्धों और ‘कुदरती’ आपदाओं के कारण अपने घर-बार से उजड़ चुके लोगों की गिनती 100 करोड़ को पार कर गई है. इक्कीसवीं सदी के इस दौर में, जब मानवता के पास हर दिक्कत को दूर करने के साधन मौजूद हैं, फिर भी पूंजीवादी व्यवस्था जनित साम्राज्यवादी युद्धों, भुखमरी, गरीबी, ‘कुदरती’ आपदाएं थोपकर जनता को तबाह कर रही है.
ऐसे में भारत की अर्द्ध सामंती-अर्द्ध औपनिवेशिक व्यवस्था के तहत बदहाल हो रही भारत की मेहनतकश जनता के सामने मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद के विश्व दृष्टिकोण से संचालित होने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-माओवादी ही एकमात्र वह निर्देशक ताकत के जिसके नेतृत्व में भारत की जनता नवजनवादी क्रांति करते हुए हमें इस तबाही से निजात दिला सकती है क्योंकि भारत में मजदूरों, किसानों के बीच रहते हुए सच्ची लड़ाई सिर्फ यही लड़ रही है, इसीलिए जीत भी सिर्फ यही दिला सकती है.
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