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बचपन से लिंग अब तक

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बचपन में,
बच्चों से बच्चा था मैं
औरत क्या है, तब नहीं जानता था मैं
उनसे मार-पीट करता था बराबर,
और जीत ही जाता था अक्सर,
जो मुझे रुलाकर हंसती थीं
ऐसी थीं, पर कम ही थीं
औरतें तब भी थीं दुनिया में
(वरना मैं कैसे होता !)
पर मैं नहीं जानता था कि औरत क्या है ?
जबकि औरत तो बहुत पहले बन चुकी थी—
हिंदी-भाषा से भी पहले.
बहुत पहले से जलाई जा रही थी औरतें—
पेट्रोल-एसिड बनने से बहुत-बहुत पहले से.
बहुत पहले से ही मानव-मूल्य कुचले हुए थे—
हिटलर के बनने के बहुत पहले से.
ऐसे ही संस्कृति के मंडप तने हुए थे—
रेप-पोर्न का मतलब समझने से बहुत पहले से
इक्कीसवीं सदी के बेरोज़गारी के संकट के बहुत पहले से
लोग नशेड़ी और संन्यासी हो रहे थे.
ज्ञान और मुक्ति का पथ भी
बहुत पहले से बना रहे हैं लोग—
गोंजालो, सीसोन और ओकलान से बहुत पहले से
बहुत पहले से भड़की हुई थी विद्रोह की आग,
मैं तो अभी-अभी जला हूं,
फफोले देखते सोचता हूं–
कि जब सीखा था बोलना,
तब स्त्रीलिंग होना सीखा,
पुल्लिंग होना सीखा,
नपुंसकलिंग होना सीखा,
लिंग की पूजा देखी,
विभिन्न लिंगों के चित्र,
विभिन्न आलिंगन,
चेहरों पर भाव विचित्र
लिंग की वेदनाओं के विज्ञापन पढ़े
कुछ खुला, कुछ ढका गोरा बदन,
मेरा क़द बढ़ने के साथ-साथ
बढ़ता गया मेरे चारों ओर–
लिंग-दर्शन-प्रदर्शन.
मैंने जब ओसान संभाला देखा कुछ सफ़ेद, कुछ काला,
कुछ धूसर, कुछ आसमानी
मैंने मांओं को, बहनों को अक्सर रोते देखा,
मैंने की अनंत प्रार्थनाएं–
मेरी बहन ‘गोरी’ हो जाए !
रोते-रोते मेरी आंखें लाल हो गईं
पर जो न होना था, नहीं हुआ।
मुझे समझ आया स्तन और झाँट का मतलब
मुझे समझ आया सुहागरात का मतलब
मुझे समझ आया दुनिया न चपटी है, न गोल,
न ठहरी है, न घूमती है—
दुनिया एक लिंग में है गहरे—
प्रकाश की पहुंच से बाहर,
ब्लैक-होल है,
गहरा अंतराल है दुनिया.
दुनिया एक लिंग पर टिकी है
नसें फटने की हद पर ठहरा,
गहरा तनाव है दुनिया.
मकड़ी का जाल है दुनिया,
दुनिया नपुंसकलिंग है.
अपमान है, दुराव है दुनिया.
हुस्न का बनाव है दुनिया,
इश्क़ का ख़्याल है दुनिया.
स्तनों और नितंबों पर
पिघलती हुई नज़र है दुनिया.
काली, पीली, सफेद, लाल है दुनिया.
दुनिया ख़ुबसूरत होने की ख़्वाहिश है.
सवाल है, बवाल है दुनिया.
किसी तंगहाल घर का ज़वाल है दुनिया.
बचपन में, बच्चों से बच्चा था मैं,
संभोग क्या है, तब नहीं जानता था मैं.
जब बोलना सीखा था मैंने,
देखी थीं यौन-क्रीड़ाएं.
जैसे-जैसे ओसान संभालता गया था,
लिंग-उत्तेजना को भाव-विचार-कहानी की तरह
जानता गया था,
छुपते, घूमते, खेलते–
अकेले में, अक्सर किसी के साथ, अंधेरे में कभी
वे ठंडी जगहें मेरी कलाइयों और गर्दन पर महसूस होती हैं अभी
सिर्फ़ कपास और रेशम और जिंस ही नहीं
कई तहों में दबी थी उत्तेजना
मेरे मन पर भी वह तह-दर-तह जमती गई.
अब सोचता हूं कि तब ही अच्छा था
जब मैं बच्चों से भी बच्चा था,
अब तो समझ आता है कि
लिंग का इतिहास है,
विज्ञान है,
राजनीति है,
अनुपात है,
विनिमय है,
मुद्रा-स्फीति है,
रंग है,
जाति है,
धर्म है,
देश है,
भाषा है…
लिंग का अपना तमाशा है
सब जिसके तमाशबीन–
भारत-रूस-अमरीका-चीन.
(अब तो कभी-कभी यह भी सोचने लगता हूं
कि कुछ है कि नहीं लिंग या
कि लिंग की क्या परिभाषा है
या ये बेकार की बातें हैं, मगजमारी है,
क्योंकि हवस तो मिटती नहीं,
संभोग अथक जारी है.)
अब तो सोचता हूं काले नमक के पत्थर
और ज़ब्तशुदा कविताओं पर,
मेरे ध्यान के विषय हुए सब्ज़ी,
दवाइयां, गैस का सिलिंडर.
अब मैं बच्चा नहीं रहा.
बदल गया दिल-दिमाग़
बदल गई आवाज़ और अंदाज़ बदल गया
ख़्वाब जल उठे,
ख़याल हुए आग,
बदल गया ज़िंदगी से लेन-देन.
ज़माने ने मोबाइल पा लिया,
सीरियल किलर, बुलेट-ट्रेन
कॉल-गर्ल, वीडियो-कॉलिंग,
कृत्रिम बुद्धि, कोकेन,
रासायनिक हथियार और लाइव-स्ट्रीमिंग,
नायक बने मनुष्य-भक्षी-मनुष्य-आधुनिक,
लेनिन की मूर्तियां गिरा दीं
येन-केन-प्रकारेण भगत सिंह को बना दिया आस्तिक,
खड़े हो गए नए विश्व-विजेता और नए ईश्वर,
लेटेक्स रबर की लंगोट पहनकर—
जिमजिमाया बदन—क्लिक-क्लिक-क्लिक।
मुझे समझ आया कि
फांसी देने के काम भी आती है लंगोट
मुझे समझ आया कि
नेताओं के जुड़े हाथ और मुस्कुराहट नहीं मांगते सिर्फ़ वोट,
वे हत्या और बलात्कार की मांग भी करते हैं,
मुझे समझ आया कि
हर बेरोज़गार एक चोटिल खजेला कुत्ता होता है—
भयभीत, आशंकित, चिढ़ा हुआ,
अपने केनाइन दांत घिसता हुआ—
दफ़्तर-दफ़्तर,
अपना लिंग छुपाता-दिखाता फिर बचाता हुआ,
अपना ही मन पीसता हुआ—
पूरी पृथ्वी पर.
क्या घुट-घुटकर जीने,
अपमान का घूँट पीने
और निरंतर झांट जलाते रहने से बेहतर नहीं
कि दुनिया को जला दिया जाए,
ख़ुद भी जल जाया जाए
न ख़ुदी रहे,
न ख़ुदा रहे…
(लिंग अलग से थोड़े ही रहेगा !)
…और कभी सोचता हूं काला नमक पेट साफ़ रखता है.
पेट साफ़ तो दिमाग़ साफ़, ऐसा बेचने वाला कहता है.
मैं ख़रीदूं साठ रुपए किलो का काले नमक का पत्थर
या एक रुपए की माचिस !
‘हिंदी-भाषा और नैतिक-मूल्य’
पढ़ाते वक़्त सोचता हूं बराबर पेट,
लिंग, नमक और माचिस के बारे में,
गांव, नगर, महानगर, विश्व-नगर,
झुग्गियां और पक्के घर,
कूड़ा-कर्कट और भव्यता के बारे में,
भारत की सभ्यता के बारे में,
बुद्ध और कबीर के बारे में,
कॉन्फ़्लिक्ट मिनरल्स और सिलिकॉन वेली के बारे में,
पाठ्यक्रम और शिक्षा, राजनीति और ज़मीर के बारे में,
ग़रीब और अमीर के बारे में.
भूखे पेट सोचता हूं तो दुनिया अलग दिखती है,
लिंग अलग, आतंक अलग,
चुंबन और आलिंगन अलग,
शास्त्र और ईश्वर अलग दिखते हैं,
स्वर्ग घृणा पैदा कर देता है
और आनंद घुटन.
चौपाटी पर अख़बार पढ़ते हुए देख रहा हूं
एक बच्ची गंदगी के ढेर से निकाल रही है दुपहर का भोजन.
मुझे हो चला है यक़ीन
भूखी-नंगी-मजबूर दुनिया के तमाशबीन सब नहीं हैं.
शहादत अब भी है उरूज-ए-ज़िंदगी.
सब नहीं हैं—
आलसी और उदासीन,
बेरीढ़-बेहिस-साहसहीन
सब नहीं हैं.
ऊंच-नीच, भेद-भाव से तस्कीन सबको नहीं है.
मुझे हो चला है यक़ीन,
मैंने माचिस ख़रीदकर ग़लती नहीं की—
शांति संभव ही नहीं पूंजीवाद के अधीन—
मैंने कक्षा में एक-एक तीली बांट दी…
जो-जो बच्चे रोते थे, बस उनको
इस बार मैंने प्रार्थना नहीं की—
अब मैं बच्चा भी तो नहीं रहा,
जानता हूं दुनिया अकेले न जलाई जा सकती है,
न बसाई जा सकती है.

  • उस्मान ख़ान

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