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जेल : जहां सत्ता एकदम नंगी है…

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जेल : जहां सत्ता एकदम नंगी है...
जेल : जहां सत्ता एकदम नंगी है…
मनीष आजाद

जेल : जहां सत्ता एकदम नंगी है…
जेल : जहां से निकलने के बाद इंसान कुछ कम ‘इंसान’ रह जाता है

तुम अकेले हो,
और कमरा भी बंद है,
कमरे में कोई आइना भी नहीं है,
अब तो अपना चेहरा उतार दो.

बहुत पहले ‘जावेद अख्तर’ के मुंह से ये पंक्तियां सुनी थी. जेल जाने के बाद ये पंक्तियां अक्सर मेरे दिमाग में गूंजती रहती थी. मजेदार बात ये है की जेल में सच में कोई आइना नहीं होता. पता नहीं ये पंक्तियां किस सन्दर्भ में लिखी गयी होंगी. लेकिन जेल के विशालकाय बंद दरवाजे के पीछे राज्य सत्ता यहां बिना किसी मुखौटे या आवरण के पूरा का पूरा मुझे नंगा नज़र आया. दरअसल यहां किसी आवरण की जरूरत भी नहीं है. क्योंकि यहां किसी की निगरानी नहीं है.

सरकार या राज सत्ता द्वारा किये जाने वाले जिस भी अपराध को आप समाज में दबे छुपे रूप में देखते हैं, आपको उसका एकदम नंगा रूप यहां जेल में दिखाई देगा, चाहे वह भ्रष्टाचार हो या क्रूर दमन. कभी कभी लगता है कि जेल बनाने का एक बड़ा कारण शायद ये रहा होगा कि यहां सत्ता अपने स्वाभाविक यानी, नंगे रूप में बिना किसी आवरण के थोडा आराम फरमा सके.

लेकिन आश्चर्य की बात ये है कि आम बंदी इस नंगेपन को आश्चर्य के रूप में नहीं देखते. उन्हें लगता है कि बंदी को जेल प्रशासन से बेहतर व्यवहार की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. बस किसी भी तरह से यहां से निकलने के बारे में सोचना चाहिए. दरअसल आम बंदी भी जब जेल के विशालकाय गेट से अंदर घुसता है तो आमतौर पर वो भी अपनी मानवीयता को गेट के दरवाजे पर छोड़ देता है. या यो कहें कि छोड़ने पर विवश कर दिया जाता है.

यही कारण है कि जेल में जब भी आप किसी चीज की शिकायत करेंगे तो साथी बंदियों से ही यह तर्क सुनने को मिलता है- अरे यह जेल है, कोई घर थोड़े ही है. खाना खाने लायक नहीं होता, अरे यह जेल है. सुबह-सुबह लैट्रिन के लिए लम्बी लाइन लगानी पड़ती है. अरे यह जेल है ना…! हर बीमारी में एक ही दावा पेरासिटामोल दी जाती है, अरे यह जेल है ना. अदालत में दिन भर भेड़ बकरियों की तरह लॉकअप में बंद रहना पड़ता है, जहां बंदियों को सबसे ज़्यादा तनाव इस बात का रहता है कि कहीं उनका पेट ना ख़राब हो जाये. अरे भाई आप बंदी हैं, कोई इन्सान थोड़े ही ना हैं.

आख़िर फिर जेल है क्या. सबसे लोकप्रिय जवाब शायद यही होगा, कि समाज में अपराध करके क़ानून व्यवस्था बिगाड़ने वालों को यहां लाया जाता है ताकि उन्हें सुधारा जा सके. इस सन्दर्भ में ज्यादातर आदर्शवादी लोग गांधी का उद्धरण देते हैं- ‘जेल को अस्पताल में बदल देना चाहिए, जहां कैदी का इलाज हो सके और वो सही रास्ते पे आ सके. जेल अधिकारियों को डाक्टरों में बदल देना चाहिए. कैदी को लगना चाहिए कि जेल अधिकारी उसका दोस्त है’. लेकिन सवाल ये है कि जिन्हें इसकी ज़िम्मेदारी दी गयी है वे लोग कौन हैं ?

इसे समझने के लिए मैं डॉ. ‘हैम गिनोत’ की मशहूर पुस्तक ‘टीचर ऐंड चाइल्ड’ से एक उद्धरण देना चाहूंगा. ‘मैं यातना कैम्प का भुक्तभोगी हूं. मेरी आंखों ने वह देखा है जो शायद किसी को नहीं देखना चाहिए. गैस चैम्बर का निर्माण प्रशिक्षित इंजीनियरों ने किया है. बच्चों को ज़हर शिक्षित डॉक्टरों द्वारा दिया गया. नवजात बच्चों को प्रशिक्षित नर्सों ने मारा. बच्चों, महिलाओं को हाईस्कूल व विश्वविद्यालय में पढ़े लोगों ने गोली मारी.’ वास्तव में ऐसे ही लोगों को भारत में ‘अपराधियों’ को सुधारने की ज़िम्मेदारी दी गई है. सच तो ये है कि जेल प्रशासन बंदियों के साथ आमतौर पर जो व्यवहार करता है, उसे यदि बिना यूनिफार्म के जेल के बाहर किया जाये तो वह गंभीर अपराध की श्रेणी में आएगा.

अभी फिलहाल इस बहस को जाने देते हैं कि जिन्हें अपराधी कहा जाता है उनमें से 70 प्रतिशत विचाराधीन हैं. यानी उनका अपराध अभी साबित नहीं हुआ है. खुद नेशनल पुलिस कमीशन की रिपोर्ट (तीसरी रिपोर्ट) यह कहती है कि 60 प्रतिशत गिरफ्तारी गैरजरूरी है. नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट यह बताती है कि यहां कन्विक्शन रेट महज 26 प्रतिशत है. यानी 100 में से 74 लोग मुकदमे के बाद बरी हो जाते हैं.

यदि हम जेलों के इतिहास पर गौर करें तो हम देखेंगे कि जेल व्यवस्था पूंजीवाद की ही देन है. 18वीं-19वीं शताब्दी में ही यह वर्तमान रूप ग्रहण कर सकी है. इसके पहले दंड का प्रधान रूप सार्वजनिक शारीरिक दंड ही था. कोड़े लगाने से लेकर सरेआम फांसी पर लटकाने तक.

पूंजीवादी व्यवस्था श्रम के शोषण पर टिकी है. इस श्रम के शोषण को निर्बाध बनाये रखने व इसे लगातार तीव्र करने के लिए फैक्ट्री के अन्दर मजदूरों का अनुशासित रहना बहुत ज़रूरी है. ज़ाहिर है यह अनुशासन पूंजीवाद द्वारा थोपा हुआ ही होता है क्योंकि इस अनुशासन का उद्देश्य श्रम का शोषण है. फैक्ट्री के अन्दर ‘टेलर सिस्टम’ से लेकर आज के ‘जस्ट इन टाइम’ सिस्टम तक को इसी सन्दर्भ में समझा जा सकता है, जहां अनुशासन का मतलब मजदूर के एक एक मिनट का इस्तेमाल करते हुए श्रम के शोषण को उच्चतम स्तर तक ले जाना होता है. फैक्ट्री में यह शोषण तभी निर्बाध रूप से जारी रह सकता है जब समाज में भी एक हद तक अनुशासन हो, जिसे शासक वर्ग की भाषा में कानून व्यवस्था कहते हैं.

जैसा की मार्क्स ने कहा है कि पूंजीवाद अपनी ही इमेज में पूरे समाज को गढ़ता है. इसलिए परिवार स्कूल फैक्ट्री से लेकर जेल तक जिस चीज़ पर अत्यधिक ज़ोर दिया जाता है, वह है अनुशासन. और स्पष्ट है कि हर जगह यह अनुशासन थोपा हुआ होता है, जिनका अपना एक निश्चित उद्देश्य होता है. जो उनके हितों के खिलाफ़ होता है उन पर यह अनुशासन लादा जाता है. अनुशासन का पालन करवाने के लिए निगरानी बहुत ज़रूरी होती है. इस सन्दर्भ में चार्ली चैपलिन की मशहूर फिल्म ‘माडर्न टाइम्स’ याद कर सकते हैं.

फैक्ट्री और जेल को इस तरह से डिजाइन किया जाता है कि पूंजीपति मजदूरों-बंदियों पर हर समय नज़र रख सके. ठीक वैसे ही जैसे हम एक्वेरियम में कैद मछलियों पर नज़र रखते हैं. हालांकि इस समय तो पूरे देश को ही एक एक्वेरियम में तब्दील किया जा रहा है. इसी अन्तर्निहित समानता के कारण मिशेल फूको जैसे विचारक परिवार, स्कूल, फैक्ट्री, जेल को एक ही केटेगरी में रखते हैं और तीनों में एक अन्योन्याश्रित सम्बन्ध देखते हैं, जो एक दूसरे को बनाये रखने में सहयोग देते हैं.

आख़िर स्कूल से ही उन्हें अनुशासित मजदूर और कर्मचारी मिलते हैं. पिता-पति-पूंजीपति-जेलर इसी अर्थ में ना सिर्फ एक निरंतरता बनाये रखने में मदद करते हैं वरन शासक वर्ग के हित में वैचारिक हेजेमनी (ग्राम्शी) बनाये रखने में भी मदद करते हैं. इस सन्दर्भ यह तथ्य दिलचस्प है कि मैकाले ने ही वर्तमान शिक्षा व्यवस्था और वर्तमान भारतीय दंड संहिता दोनों की ही नींव रखी.

जेल पूंजीवादी समाज में यह भ्रम रचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि हम सुरक्षित हैं. यानि जेल है तो समाज के बुरे लोगों को वहां भेजा जाता रहेगा और अच्छे लोग सुरक्षित रहेंगे. ठीक वैसे ही जैसे आप रोज़ अपने घर से कूड़ा निकाल कर बाहर कूड़ेदान में डालते हैं. और इस तरह अपने घर को साफ़ रखते हैं. इसलिए हमें इस बात पर जोर शोर से विश्वास दिलाया जाता है कि जेल नहीं होगी तो समाज गन्दा हो जायेगा.

उन्हें इस तथ्य से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि मनुष्य ने अपने इतिहास का 99.99 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा बिना जेल के गुज़ारा है. पूंजीवाद को बनाये रखने में यह भ्रम बहुत कारगर साबित होता है. ठीक इसी कारण से एंजेला डेविस जैसे आन्दोलनकारी बुद्धिजीवी जेल सुधार की बजाय जेल के खात्मे पर ज़ोर देती हैं.

दरअसल पूरी दुनिया में पूंजीवाद के दिखाने व खाने के दांत अलग-अलग होते हैं. और दोनों का अनिवार्य सहअस्तित्व होता है. सरकारी मानवाधिकार यदि दिखाने के दांत हैं तो जेल खाने के दांत हैं. जेल और पुलिस कस्टडी में ही आपका राजसत्ता के क्रूरतम रूप से सामना होता है. पूंजीवाद अपने ही बनाये नियमों को यहां पैरों तले रौंदता है. उदाहरण के लिए जेल में रेगुलर काम करने वाले कैदियों का वेतन सरकार द्वारा तय किये गए न्यूनतम वेतन से बहुत ही कम 720/- प्रति माह होता है. इसके अलावा गरीब दलित बंदियों में से बेगारों की एक पूरी फ़ौज होती है जिन्हें कभी भी, कहीं भी किसी भी काम में लगाया जा सकता है.

बंदियों द्वारा सर्दियों में जेलर व अन्य अधिकारियों के पैर दबाने या सर में चम्पी करने का दृश्य आम होता है. समाज से गुलामी प्रथा ख़त्म नहीं हुई है बल्कि वह जेल में ट्रांसफर हो गयी है. ग़रीब दलित बंदियों के बारे में जेल प्रशासन की यह सोच होती है कि इतना काम और इतनी ख़राब स्थिति में तो यह जेल के बाहर ही रहते हैं. तो फिर इन्हें यहां सज़ा क्या महसूस होगी. जबतक उनसे उससे ज़्यादा काम ना लिया जाये और उससे भी बुरी स्थिति में ना रखा जाये.

इससे अमेरिका के ‘थॉमस जेफरसन’ की बात की याद ताज़ा हो जाती है, जो उसने वहां के गुलामों के बारे में कहा था, जो गुलामी से आज़ाद होने के बाद विभिन्न कारणों से जेलों में बंद थे. जेफरसन ने उस वक्त कहा कि इनसे जेल में कठोर काम लेने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि इसकी तो उन्हें आदत है. इसलिए उनका सुझाव था कि उन्हें जेल भेजने की बजाय उन्हें जिला बदर कर दिया जाये. यानी, समाज का पिछड़पन और उसका गैरजनवादी होना जेल के अंदर की क्रूरता व दमन को और बढा देता है.

अमेरिका में तो प्रिजन-इंडस्ट्रियल गठजोड़ के कारण, जेल श्रम का शोषण वहां की पूंजीवादी साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है. भारत में भी तिहाड़ जेल से इसकी शुरुआत हो गई है, जहां कई निजी कम्पनियां अपने प्रोडक्ट का निर्माण बहुत मामूली वेतन देकर कैदियों से करा रही हैं. 1975 तक अमेरिका में कैदी, दवा उद्योग व उपभोक्ता उद्योग की बड़ी कंपनियों के लिए ‘गिनीपिग’ का भी काम करते थे. ‘जानसन’ व ‘डो केमिकल’ जैसी बड़ी कंपनियों ने अपने प्रयोगों में ना जाने कितने कैदियों को मारा है. इसलिए आप जब भी अपने मासूम बच्चों को ‘जानसन एंड जानसन’ का पावडर लगायें तो एक बार यह ज़रूर सोचें कि इस पाउडर की खुशबू के पीछे कैदियों की मौत की बदबू छिपी है.

पुनः भारत पर लौटें तो हम देखते हैं कि यहां ‘क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम’ में वर्ग, जाति, जेंडर जैसे सभी सामाजिक-वर्गीय पूर्वाग्रह घनीभूत रूप से मौजूद रहते हैं. सच तो यह है कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में ‘क्रिमिनल’ संज्ञा नहीं विशेषण बन चुका है. यही कारण है कि भारत की जेलों में आदिवासी दलित मुस्लिम अपनी जनसंख्या अनुपात 39 प्रतिशत से कहीं ज्यादा 52 प्रतिशत तक है. ठीक वैसे ही जैसे अमेरिकी जेलों में काले लोगों का प्रतिशत 40 के आसपास है, जबकि जनसंख्या में उनका अनुपात महज 10 प्रतिशत ही है.

जेल जहां एक ओर अपराधियों के लिए ट्रेनिंग सेंटर का काम करता है (एक अनुमान के मुताबिक जेल से छूटने वाले 3 कैदियों में से 2 के दुबारा जेल आने की संभावना बढ़ जाती है), वहीं दूसरी ओर बहुत हिंसक तरीके से सत्ता के सामने झुकना व समर्पण करना सिखाता है. जेल, बंदियों में इस बात का अहसास भरने का काम करता है कि इस विशाल राज्य संरचना के सामने उसकी कोई औकात नहीं है. और सब कुछ चुपचाप सहने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं है. इसलिए जेल से निकलने के बाद इंसान कुछ कम ‘इन्सान’ रह जाता है. यानी समाज पर बोझ बढ़ जाता है. इसी अर्थ में जेल समाज पर एक बड़ा बोझ है. जैसे जैसे जेल बड़ी होती जाती है वैसे वैसे उसी अनुपात में समाज पर उसका बोझ भी बढ़ता जाता है.

जेल सज़ा के बारे में 1955 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक गाइड लाइन जारी की थी. भारत ने भी उस पर दस्तखत किये थे. उसका लब्बेलुआब यह था कि किसी को उसके परिवार व समुदाय से काट देना ही पर्याप्त सज़ा है. इसके अलावा सज़ा देना सामान्य परिस्थितियों में अमान्य है. जस्टिस ए. एन. मुल्ला के नेतृत्व में जेल सुधार पर बनी रिपोर्ट (1980-83) में साफ-साफ यह कहा गया है कि जेल के अंदर भी कैदी की गरिमा के साथ कोई खिलवाड़ नहीं किया जा सकता. लेकिन ऐसी तमाम रिपोर्टो की तरह ये रिपोर्ट भी आज धूल खा रही है.

जेल प्रशासन सिर्फ इसी बात से थोड़ा डरता है कि कहीं कैदी आत्महत्या ना कर ले. पूरे जेल की डिजाइन और निगरानी सिस्टम इस तरह का बनाया जाता है कि सच में आत्महत्या करना बहुत कठिन होता है. जीवन का गला घोंटने और जीवन बचाने का ऐसा क्रूर बैलेन्स आपको और कहीं नहीं मिलेगा. इसे ही शायद ‘चार्ल्स डिकेंस’ शरीर को बचाते हुए आत्मा को मारने का तरीका (soul destroying method) बताते हैं. चार्ल्स डिकेंस ने अमेरिकी जेलों का भ्रमण करने के बाद कहा कि यहां लोगो को जैसे रखा जाता है, वो व्यक्ति को जिन्दा दफ्न करने (buried alive) के बराबर है.

लेकिन जब व्यवस्था का संकट बढ़ता है और जेल में राजनीतिक बंदियों और क्रांतिकारियों की आमद बढ़ने लगती है तो धीरे-धीरे इससे जुड़े मिथक और क्रूर नियम एक-एक करके भरभराने लगते हैं. अमेरिकी जेल में 16 साल गुजारने वाले लेखक जेरोम वाशिंगटन का मशहूर कथन है- ‘जेल में इंसान बने रहने के लिए जेल के नियमों को तोड़ना बहुत जरूरी है’. ज्युलिअस फ्युचिक, न्युगी या थान्गो, वरवर राव, जार्ज जक्सन, नाजिम हिकमत जैसे दुनिया के तमाम लेखकों ने जेल के नियमों को तोड़ते हुए ही क्रान्तिकारी रचनायें दी और अपने इंसान होने का सबूत दिया.

यहां तक की तुर्की के मशहूर फिल्मकार ‘यिल्माज़ गुने’ ने अपनी कई सफल फिल्मों की स्क्रिप्ट जेल में ही लिखकर बाहर स्मगल की. यह बात तो और भी आश्चर्य में डालने वाली है कि नाज़ी यातना शिविर में बंदियों ने शानदार धुनें बनाई है. इन्हीं धुनों को बहुत मुश्किल से खोजकर इटली के म्यूजिक कंपोजर फ्रांसेस्को लेतोरो ने ‘दि लॉस्ट म्यूजिक’ नामक एलबम निकाला है.

इससे भी आगे बढ़कर अमेरिका में अतिका जेल में जब ब्लैक पैंथर के कामरेडों की आमद बढ़ गयी तो 1971 में उन्होंने सारे नियम तोड़ते हुए जेल पर ही कब्जा कर लिया और 4 दिनों तक जेल को अपने कब्जे में रखा. हालांकि इस इंसानियत की कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. इस विद्रोह में कुल 41 लोगो की जान गयी. इसी तरह 19-20 जून 1986 में पेरू में हुए जेल विद्रोह को कौन भूल सकता है, जिसमें क़रीब 300 माओवादियों ने अपनी जान कुर्बान करते हुए सत्ता के इस सबसे क्रूर गढ़ यानी, जेल के परखच्चे उड़ा दिए. भारत में भी अनेक जेल ब्रेक (जहानाबाद, दंतेवाड़ा आदि) को आप याद कर सकते हैं.

जो लोग इतिहास में यकीन रखते है, उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि फ्रांसीसी क्रांति बास्तील के किले को तोड़ कर ही शुरू हुई थी, जो वस्तुतः एक जेल ही थी.

(मेरी ‘जेल डायरी’ का एक पन्ना)

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